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जरमी बैंथम की जीवनी एवं विचार (Biography and Thoughts of Benthem)

जरमी बैंथम (Benthem)

बैंथम इंग्लैण्ड का एक समाज सुधारक, कानून शास्त्री तथा राजनीतिक विद्वान था राजनीतिक क्षेत्र में वह उपयोगितावाद (utilitarianism) के सिद्धांत का प्रतिपादक है। वैयम ने सभी सामाजिक संस्थाओं कानून, संविधान, धर्म, आदि को उपयोगिता के मापदंड से मापने की मांग की। उपयोगिता से अभिप्राय अधिक-से-अधिक व्यक्तियों का अधिक-से-अधिक सुख माना गया, अर्थात् समाज के अधिक-से-अधिक व्यक्तियों का अधिक से अधिक सुख जो कि व्यक्तिगत रूप से अपने हितों की पूर्ति में लगे हुए हैं।

बैंथम राज्य को व्यक्ति के सुख और आनंद की वृद्धि के लिए निर्मित संस्था मानता है। उसके अनुसार समाज में रहने वाले मनुष्यों के सुख के अलावा राज्य का कोई सामूहिक सुख नहीं होता। समाजी की अंतिम वास्तविकता है। समाज को वैयम एक बनावटी प्रबंध मानते हैं। वैथम के अनुसार राज्य व्यक्ति के लिए है न कि व्यक्ति राज्य के लिए इस तथ्य के बावजूद कि राज्य व्यक्ति के सुख की वृद्धि के लिए बनाया गया है, वैथम के अनुसार राज्य का चरित्र नकारात्मक है। व्यक्ति केवल अपने सुख और दुख द्वारा शासित होता है, और प्रत्येक व्यक्ति अपने हितों का सर्वश्रेष्ठ निर्णायक है इस मान्यता का सहारा लेकर बैंथम इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि राज्य पर कार्य कानून बनाना तथा उन्हें लागू करना है और कानून का कार्य उन सभी के लिए कोई कल्याणकारी कार्य नहीं कर सकता, इसका कार्य केवल उन बंधनों को हटाना है और उन व्यक्तियों को सजा देना है जो व्यक्ति के सुख की साधना में बाधा डालते हैं। वैथम के अनुसार सुख चार तरीकों से प्राप्त किया जा सकता है जीवन निर्वार, प्रचुरता, समानता और सुरक्षा से उसने सुरक्षा के अंतर्गत नागरिक और राजनीतिक स्वतंत्रता तथा व्यक्ति के जीवन और संपत्ति की सुरक्षा को गिनाया। जीवन निर्वाह और प्रचुरता को जुटाने में बंधन के विचार से, राज्य कुछ नहीं कर सकता। समानता तथा सुरक्षा के संघर्ष में वैदम ने सुरक्षा को अधिक महत्त्व दिया और सुरक्षा से उसका अभिप्राय मुख्यतः संपत्ति की सुरक्षा से है। जहाँ लॉक ने संपत्ति की सुरक्षा को प्राकृतिक कानूनों के आधार पर उचित ठहराया, यहाँ बैंयम ने यह सुरक्षा उपयोगितावाद के सिद्धांत द्वारा न्यायोचित ठहराई। जैसा कि उसने लिखा, "में अपने आप से यह सवाल करता हूं कि यह या वह संस्था किस प्रकार मुझे अधिकतम सुख दे सकती है, यदि नहीं तो और किस प्रकार की संस्था अधिकतम सुख में सहायता कर सकती है?" राज्य के कार्यों के विषय में विचार प्रकट करते हुए उसने लिखा है "व्यावहारिक प्रश्न यह है कि किसी निश्चित उद्देश्य की पूर्ति व्यक्तियों द्वारा स्वयं कार्य करने से कितनी अच्छी होती है और किन परिस्थितियों में ये उद्देश्य राज्य के हस्तक्षेप से अच्छी तरह पूरे किए जा सकते हैं। राष्ट्रीय धन में वृद्धि की दृष्टि से या जीवन-यापन और आनंद के साधनों में वृद्धि की दृष्टि से साधारण नियम यह है कि राज्य या सरकार के द्वारा कोई काम नहीं किया जान चाहिए। राज्य या सरकार के लिए केवल एक ही मूल-मंत्र है-चुप रहो।" इस चुप्पी के पक्ष में बयम में दो दलीलें दी (1) किसी भी प्रकार के हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है। समुदाय की संपत्ति समाज में रहने वाले व्यक्तियों की व्यक्तिगत संपत्ति का योग होती है और अपनी व्यक्तिगत संपत्ति में वृद्धि करने की चिंता और प्रयास सबसे अच्छे तरीके से केवल व्यक्ति स्वयं ही कर सकता है। कोई भी व्यक्ति अपने हितों की पूर्ति के लिए लगन और मेहनत करना चाहता है; (ii) सरकार द्वारा हस्तक्षेप व्यक्ति की उद्देश्य पूर्ति में बाधक भी हो सकता है। प्रत्येक व्यक्ति अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए और धन में वृद्धि के लिए जितना अधिक समय दे सकता है उतना समय सरकार नहीं दे सकती। अतः व्यक्ति द्वारा किया जाने वाला कार्य अधिक लाभप्रद होगा। वैसे भी व्यक्ति की स्वतंत्रता के ऊपर किसी प्रकार की रोक लगाना हानिकारक है। अतः अधिकतम सुख की प्राप्ति कुछ-एक अपवादों को छोड़कर, प्रत्येक व्यक्ति जो उसके साधनों के अनुपात में अकेला छोड़कर ही की जा सकती है। सरकार के केवल दो कार्य हैं: (i) सुरक्षा और (ii) उद्योग के लिए वे सभी स्वतंत्रताएँ जुटाना जिनकी आवश्यकता है।

राज्य के प्रति गहरा अविश्वास 18वीं शताब्दी और 19वीं शताब्दी के पूर्वार्थ की मुख्य विशेषता रही। सुधारवादियों का कार्य राज्य के कार्यक्षेत्र को सीमित करना और राज्य का शासन चलाने वालों को व्यक्ति के निजी कार्यों में शक्ति का प्रयोग करने से रोकना चाहा। जैसा कि जेम्स मिल ने लिखा, "सरकार का सबसे कठिन कार्य उन व्यक्तियों पर नियंत्रण लगाने के उपाय खोजना है जिनक हाथों में लोगों की सुरक्षा की आवश्यक शक्ति सौंपी गई है ताकि वे शक्ति का दुरुपयोग न करें "

संक्षेप में, नकारात्मक सिद्धांत के अनुसार राज्य के कार्यों को न्यूनतम सीमा में रखने के तीन कारण बताए गए हैं। नैतिक आधार पर यह मानकर चला गया कि राज्य द्वार कार्य किए जाने से व्यक्ति की आत्मनिर्भरता परनिर्भरता में बदल जाती है। व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास के लिए नागरिक और व्यक्तिगत स्वतंत्रता आवश्यक है। स्वतंत्रता व्यक्ति के जीवन को आनंद प्रदान करती है और अपनी इच्छानुसार जीवन के आदर्शों की सिद्धि के अवसर प्रदान करती है। व्यक्ति का विकास तभी संभव है जब उसे आत्मनिर्भर बनने का अवसर दिया जाए। आर्थिक आधार पर यह तर्क दिया गया कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी स्वार्थ सिद्धि में लगा हुआ व्यक्ति है और अपने हित को सबसे अच्छी तरह पहचानता है। अतः यदि प्रत्येक व्यक्ति को अकेला छोड़ दिया जाए तो वह अपने अवसरों का सबसे अधिक लाभ उठा पाएगा और परोक्ष रूप से समाज का भी भला करेगा। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से हस्तक्षेप के सिद्धांत के समर्थकों ने उस प्राकृतिक कानून को मानव समाज पर लागू करने की मांग की जिसके द्वारा जीव-जंतुओं का विकास होता है, अर्थात् 'जीवन के लिए संघर्ष का सिद्धांत' (Survival of the Fittest)। इनके अनुसार उन्नति का प्राकृतिक सिद्धांत यह मांग करता है कि गरीब, कमजोर और अकुशल व्यक्ति को जीने का कोई अधिकार नहीं है। यद्यपि यह सिद्धांत समाज के कुछ व्यक्तियों के साथ अन्याय करता है तथापि नकारात्मक, उदारवाद की दृष्टि में समाज का हित इसी कानून का पालन करने में है।