रूसो (Rousseau)/मानव स्वभाव/प्राकृतिक अवस्था/सामाजिक समझौता/प्रभुसत्ता |
रूसो (Rousseau)
सामाजिक समझौते के प्रवर्तकों ने तीसरा नाम फ्रांसीसी दार्शनिक रूसो (1712-1778) का है। रूसो का समय संघर्षमय तथा गतिशील था। संदेहवाद, भौतिवाद, विज्ञान के चमत्कारों की आशिक अनुभूति, राजनीतिक उत्पीड़न तथा आर्थिक शोषण, राजनीतिक दासता से मुक्ति पाने के लिए मध्यमवर्ग की आकुलता, लोक जीवन में स्वार्थपरता, आडवर इत्यादि 18वीं शताब्दी के फ्रांसीसी जीवन के प्रधान लक्षण थे और इन परिस्थितियों में रूसो की समस्या थी स्वतंत्रता तथा अनुशासन की आवश्यकताओं के मध्य संबंध स्थापना अथवा समन्वय की इस संबंध में हॉब्स ने एक सुदृढ तथा शक्तिशाली एकतंत्र तथा लोक ने मर्यादित राजतंत्र के रूप में दो समाधान प्रस्तुत किए थे। परंतु शायद रूसो को यह प्रतीत हुआ कि हॉब्स ने अनुशासन की वेदी पर स्वतंत्रता की बलि चढ़ा दी और तौक एक सुस्थिर, सामाजिक-राजनीतिक अनुशासन के अभाव में ही स्वतंत्रता की कल्पना करता है। इसलिए रूसो सामान्य इच्छा (general will) की अपनी धारणा से स्थायी समाधान प्रस्तुत करने का प्रयत्न करता है। रूसो के इस दृष्टिकोण का एक प्रमुख कारण यह भी है कि वह दो विचार-युगों के संधि-स्थल पर खड़ा है। अपने बौद्धिक जीवन के शैशव में वह 18वीं शताब्दी के व्यक्तिवादी आदर्श से प्रभावित है। परंतु यह प्रभाव स्थायी नहीं रहता और हम उसे भावी आदर्शवाद के सूत्रधार के रूप में भी पाते हैं।
मानव स्वभाव
रूसों की रचनाओं में मनुष्य का चित्रण एक ऐसे तनावग्रस्त व्यक्ति के रूप में है, जिसका तनावरहित अतीत एक तनावमुक्त भविष्य का निर्माण करने की प्रेरणा देता है। इस तनावग्रस्त व्यक्ति की दो वृतियाँ है स्वार्थ और परमार्थ (self love and Sympathy) जो आपसी कशमकश में रहती हैं। इस तनाव में से चेतना (conscience) का जन्म होता है। रूसो के अनुसार चेतना एक नेत्रहीन इच्छा है जो शुभकर्म करना तो चाहती है परंतु यह नहीं जानती कि शुभकर्म क्या है। इसलिए मनुष्य की आत्मसिद्धि के लिए रूसो विवेक (reason) का सहारा लेता है। विवेक अच्छाई और बुराई में अंतर स्पष्ट करता है। इन तत्त्वों के आधार पर रूसो दो प्रकार के व्यक्ति का चित्र प्रस्तुत करता है: (i) अप्राकृतिक व्यक्ति जिसमें स्वार्थ और परमार्थ युद्धरत हैं, जिसकी चेतना अंधी है और विवेक पथभ्रष्ट है। ऐसा व्यक्ति लगातार भटकता रहता है और (1) इसके विपरीत प्राकृतिक मनुष्य वह है जिसमें या तो तनाव पैदा ही न हुआ हो या जिसने शक्तिशाली विवेक और अडिग चेतना के द्वारा आत्महित और परमार्थ में सामंजस्य बिठा लिया हो। रूसो के अनुसार आदिम मनुष्य एक ऐसा व्यक्ति था जिसमें यह तनाव पैदा ही नहीं हुआ था। यह प्रसन्न और संतुष्ट था। पेड़-पौधों और पशु-पक्षियों की तरह वह पैदा होकर प्राकृतिक रूप से ही समाप्त हो जाता था सभ्यता के उदय तथा विकास के साथ-साथ मनुष्य की तनावग्रस्तता बढ़ती गई। रूसो के विचार में समकालीन सभ्यता एक तनावग्रस्त सभ्यता है। यह मनुष्य को प्रफुल्लित रखने वाला बाग नहीं, बल्कि एक कैद है। इसलिए मनुष्य की इच्छा है कि वह एक ऐसी सभ्यता का निर्माण करे जो प्राकृतिक मनुष्य की सभ्यता हो और जहाँ उसके स्वार्थ और परमार्थ में चेतना और विवेक के अनुसार समन्वय हो सके।
प्राकृतिक अवस्था
रूसो के अनुसार, प्राकृतिक अवस्था में मनुष्य सामान्य रूप से सुखी, स्वावलंबी और संतुष्ट था। उसने प्राकृतिक मनुष्य को 'उदात्त वनचर' (noble savage) की संज्ञा दी है। इस मनुष्य का जीवन सरल था, उसकी मांगे सीमित थीं जिनकी पूर्ति सहज ही हो जाती थी। परंतु सभ्यता के प्रारंभ के साथ-साथ कला और शिल्प का विकास हुआ, श्रम का विभाजन शुरू हुआ और लोगों के पास निजी संपत्ति एकत्र होने लगी। निजी संपत्ति और आर्थिक विषमताओं के कारण ऐसी औचित्वपूर्ण सत्ता की स्थापना आवश्यक हो गई जो एक वर्ग को दूसरे वर्ग के आक्रमण से सुरक्षा प्रदान कर सके। दूसरे शब्दों में, व्यक्तिगत संपत्ति ने प्राकृतिक अवस्था की शांति भंग करके एक ऐसे सभ्य कहे जाने वाले समाज को जन्म दिया जिसने मनुष्य से उसकी सादगी, ईमानदारी, समानता, परमार्थ की भावना छीनकर उसे मानवता का दुश्मन, संपत्ति का भूखा, स्वार्थी और घमंडी बना दिया। समकालीन सभ्यता के विरुद्ध रूसो का गिला था कि यहाँ हर कोई काम के आदमी की तलाश में है, अच्छे आदमी की तलाश में नहीं।
सामाजिक समझौता
रूसो के अनुसार सभ्य कहलाने वाले इस समाज की कष्टदायी स्थिति से छुटकारा पाने के दो तरीक थे। पहला यह कि संपत्तिविहीन, सभ्यताहीन, आदिम व्यवस्था को दुबारा लाया जाए। दूसरा यह कि नए आधार पर समझौते के द्वारा एक समाज स्थापित किया जाए। पहला तरीका संभव नहीं था, अतः रूसो दूसरे तरीके से भविष्य में एक सामाजिक समझौता करवाना चाहता है जिससे एक नए स्वतंत्र एवं समानतावादी समाज का जन्म हो सके। रूसो का यह समझौता हॉब्स की तरह ही व्यक्तियों में आपसी समझौता है। परंतु यहाँ किसी व्यक्ति अथवा व्यक्तियों के किसी समुदाय को नहीं सौंपी गई बल्कि यह समाज के तमाम लोगों की सामान्य इच्छा को सौंपी गई सामान्य इच्छा रूसो के अनुसार व्यक्तियों की परमार्थ वाली इच्छाओं का योग है। समझौते के अनुसार हर व्यक्ति ने अपने आप को पूर्ण रूप से समाज को सौंप दिया तथा बदले में समाज के ही एक भाग के रूप में स्वयं को प्राप्त कर लिया। दूसरे शब्दों में प्रत्येक व्यक्ति ने अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता को सामूहिक स्वतंत्रता में बदल दिया।
प्रभुसत्ता
सामान्य इच्छा को रूसो वे सभी विशेषताएँ प्रदान करता है जो हॉब्स के अंतर्गत प्रभुसत्ताधारी को दी गई है। अर्थात् सामान्य इच्छा अविभाज्य, निरंकुश, सर्वव्यापक, असीमित और अहस्तांतरणीय है इस सामान्य इच्छा से रूसों का तात्पर्य जनता के ऐसे संकल्प से भी है जिसका उद्देश्य समाज के समान्य हित की सिद्धि करना है। दूसरे शब्दों में, सरकार सामान्य इच्छा द्वारा नियुक्त जन-हित का साधन है। यहाँ यह स्पष्ट करना भी अनिवार्य है कि रूसो की सामान्य इच्छा एक नैतिक संकल्पना है। इसलिए यह आवश्यक नहीं कि यह बहुमत की अथवा संपूर्ण समाज की इच्छा हो।
राज्य और व्यक्ति
रूसो के सिद्धांत में परंपरागत उदारवादी व्यक्ति अनुपस्थित है। उसका आदर्श व्यक्ति एक बड़े सागर में बूंद के समान है जिससे वह भिन्न भी है और नहीं भी स्वाभाविक है कि सामूहिक सत्ता के सामने ऐसे व्यक्ति में कोई खास वजन नहीं होगा। इसलिए रूसो के सिद्धांत में यह भी संभव है कि किसी व्यक्ति को स्वतंत्र होने के लिए विवश किया जा सके। विवशता पर आधारित यह स्वतंत्रता रूसो के विचार की वह किरण है जो बाद में समाजवाद की चमक बन गई। व्यक्ति और राज्य के इस संबंध को पूरी तरह जानने-समझने के लिए हमें समाजवाद को समझना पड़ेगा।
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