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जॉन लॉक की जीवनी एवं विचार/Biography and Thoughts of John Locke

जॉन लॉक (John Locke)


प्रस्तुत संदर्भ में 17वीं शताब्दी का दूसरा महत्त्वपूर्ण अंग्रेज दार्शनिक लॉक है लॉक, हॉब्स की तरह सीचा, साफ और स्पष्ट नहीं है और उसका उद्देश्य भी भिन्न हॉब्स ने 1649 की खूती क्रांति के बाद राज्य के विवेकसम्मत आधार की स्थापना के लिए सामाजिक समझौते का सिद्धांत स्थापित किया था जबकि लॉक 1688 की उस गौरवपूर्ण क्रांति (Glorious (Revolution) के समय में लिख रहा था जो उदारवादी सांविधानिक, लोकतांत्रिक राजनीतिक परंपरा के पक्ष में थी। इसी कारण प्राकृतिक अवस्था और प्राकृतिक नियमों के विषय में लॉक के विचार हॉब्स से भिन्न हैं। जॉन लॉक के मुख्य विचार उसकी पुस्तक सेकंड ट्रीटाइज (Second Treatise, 1690) में मिलते हैं।

मानव स्वभाव-लॉक के अनुसार मनुष्य तृष्णा पूर्ति का ही नहीं, बल्कि विवेक तथा ईश्वर के बताए हुए न्याय का पुतला भी है। लॉक के संस्कार परंपरागत ईसाई संस्कार थे इसलिए उसका प्राकृतिक मनुष्य भी एक पढ़ा-लिखा संपत्तिशाली ईसाई नज़र आता है। यह व्यक्ति अपने जीवन का निर्देश देवी कानून तथा प्राकृतिक कानून से लेता है। विवेकशील प्राणी के नाते यह इन दोनों को समझ सकता है, उसके अनुसार जीने की योग्यता भी रखता है। प्राकृतिक कानून के अनुसार आत्म संरक्षण (self preservation) उचित है। आत्म-संरक्षण जीवन, स्वतंत्रता तथा संपत्ति के अधिकारों की मांग करता है। सुरक्षा जितनी प्राकृतिक है, सुरक्षा के साधन भी उतने ही प्राकृतिक हैं। लॉक के अनुसार श्रम करके आजीविका पैदा करना विधि के विधान के अनुरूप है। श्रम से संपत्ति उत्पन्न होती है और संपत्ति से सभ्य जीवन । प्राकृतिक अवस्था यदि हम यह कल्पना करने की कोशिश करें कि राज्य के अभाव में व्यक्ति कैसे जीएगा तो लॉक का विचार है कि शांतिपूर्ण ढंग से प्राकृतिक अधिकारों का उपभोग करता हुआ, प्राकृतिक कानूनों के अनुसार जीता हुआ मनुष्य शांतिपूर्वक जीता है क्योंकि कानून शांति, सह-अस्तित्व तथा न्याय के कानून है। इस कृतिक अवस्था परस्पर युद्ध की अवस्था नहीं है।

इस तरह लॉक प्राकृतिक अवस्था को अशांति और संघर्ष की स्थिति नहीं मानता। उसके विचार से यह वस्तुतः.. सद्भावना, आपसी सहयोग, शांति और सुरक्षा की अवस्था है। परंतु लॉक के अनुसार इस अवस्था में कुछ असुविधाएँ भी हैं। पहली, इस अवस्था में एक स्वायी तथा सुनिश्चित विधि का अभाव रहता है। दूसरे, प्राकृतिक अवस्था में एक निश्चित एवं व्यक्ति विधि की व्याख्या तथा झगड़ों को निपटाने पाली न्यायपालिका का भी अभाव रहता है। तीसरे, इसमें विधि के सफल कार्यान्वयन के लिए कोई व्यवस्था नहीं होती। इसके लिए एक कार्यकारिणी होनी चाहिए जो प्राकृतिक अवस्था में नहीं पाई जाती। दूसरे शब्दों में, प्राकृतिक अधिकारों को सामाजिक जीवन में उतारने और लागू करने के लिए एक निष्पक्ष सत्ता की आवश्यकता होती है। इसे प्राप्त करने के लिए ही जनता को प्राकृतिक अवस्था का परित्याग करना पड़ता है। अतः जनता समझौते के द्वारा समाज तथा राज्य की स्थापना को तत्पर रहती है। सामाजिक समझौते-समझौते के बारे में लॉक के विचार बहुत स्पष्ट नहीं हैं। इस अस्पष्टता के कारण लॉक के समझौते के संबंध में लेखकों में दो मत प्रचलित हैं। कुछ लेखकों के अनुसार लॉक की विचारधारा में दो समझौते पाए जाते हैं। पहला समझौता राज्य का आधार है और दूसरा सरकार का अन्य लेखकों के अनुसार लॉक केवल एक समझौते की बात करता है। कुछ भी हो, लॉक के अनुसार इसमें व्यक्तिों ने राज्य को सारी शक्तियों सौंपी बल्कि अपने प्राकृतिक अधिकार अपने पास रखे है। अतः सरकार की शक्ति सहमत पर आधारित है और इसलिए सीमित है। समझौते की शर्तों से बंधी होने कारण सरकार मनमाने तरीके से कार्य नहीं कर सकती। इस प्रकार लॉक ने अपने दर्शन में सांविधानिक राज्य बहुमत के शासन और प्रतिनिधि सरकार के उदारवादी विचार दिए हैं। उसने जीवन, स्वतंत्रता तथा संपत्ति के तीन अधिकारों को प्राकृतिक बताया जिनकी अवहेलना किसी भी राज्य द्वारा नहीं की जा सकती। लौक के अनुसार सरकार द्वारा इन अधिकारों की अवहेलना होने पर व्यक्ति सरकार के विरुद्ध विद्रोह करने का अधिकार रखता है।

प्रभुसत्ता की प्रकृति-लॉक के अनुसार शक्ति उन उद्देश्यों पर आश्रित है जिनकी पूर्ति के लिए राज्य का निर्माण किया गया अर्थात् व्यक्ति की आत्मसुरक्षा तथा उसके साधन-जीवन, स्वतंत्रता और संपत्ति के अधिकार की रक्षा के लिए राज्य सत्ता के संगठन के बारे में लॉक का विचार है कि कार्यकारिणी की शक्ति विधानमंडल के अधीन होनी चाहिए। कार्यकारिणी सेवक है, विधानमंडल स्वामी है। विधानमंडल की इच्छा के विना कार्यकारिणी न तो कोई कर लगता सकती है न ही कोई खर्चा सकती है। प्रतिनिधित्व नहीं तो कर नहीं (no taxation without representation) यह प्रसिद्ध नारा लॉक के सिद्धांत से प्रेरित है। उसका मत है कि अगर कार्यकारिणी विधानमंडल की अवज्ञा करती है तो सरकार को भंग हुआ समझ जाना चाहिए। व्यक्ति और राज्य-लॉक व्यक्ति के अधिकारों को प्राकृतिक मानता है, राज्य-प्रदत नहीं। इन अधिकारों की रक्षा ही वास्तव में राज्य  के अस्तित्व का औचित्य है।