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हॉब्स की जीवनी एवं विचार /Biography and Thoughts of hobbs

हॉब्स

विख्यात अंग्रेज विचारक टॉमस हॉब्स (1588-1679) अपने जन्म के विषय में कहता है कि "मैं और मेरा भय जुड़वां भाई" हैं" अव्यवस्था का भय हॉब्स के सिद्धांत की आधारशिला है। हालांकि हॉब्स को उदारवादी कहना मुश्किल है, फिर भी उसके सिद्धांत में उदारवाद के दार्शनिक तत्त्व पूरी तरह मौजूद हैं। सामाजिक समझौते से संबंधित विचार उनकी पुस्तक लेवायवन (Leviathan, 1651) में दिए गए हैं जो संक्षेप में निम्नलिखित हैं:
    मानव स्वभाव-हॉब्स के अनुसार मनुष्य तृष्णा का दास है। तृष्णाएँ असीम हैं जबकि उनकी तृप्ति के साधन सीमित होते हैं। इसलिए इन साधनों की प्राप्ति में जुटा मनुष्य दूसरे मनुष्य का प्रतिद्वंदी बन जाता है। प्रतिस्पर्धा से अविश्वास पैदा होता है और अविश्वास से दूसरे की सफलता का भय स्पर्धा का आधार इसके अलावा भी है। यदि भौतिक तृष्णा की तृप्ति के साधन असीम भी होते तो भी मनुष्य एक-दूसरे को नीचा दिखाने के लिए एक-दूसरे के प्रतिद्वंद्वी रहते जिसके परिणामस्वरूप अविश्वास अवश्य पैदा होता।

प्राकृतिक अवस्था हॉब्स के सिद्धांत में प्राकृतिक अवस्था वह काल्पनिक अवस्था है जिसमें व्यवस्था का अभाव रहता है, अर्थात् कानून का अभाव, दंड का अभाव तथा दंडघर यानी प्रभुसत्ताधारी का अभाव। इसका अर्थ यह भी है कि मनुष्य का कर्तव्य केवल अपनी तृष्णा को शांत करना है, इसके अलावा उस पर कोई रोक-टोक नहीं। स्वाभाविक है कि अपने तृष्णा-संसार का बंदी मनुष्य, जो कि सब और प्रतिद्वंदिता से घिरा हुआ है, ऐसी अवस्था में अपनी तृष्णा पूर्ति के लिए हर संभव साधन अपनाएगा यदि उसका काम गुड़ खिलाने से बनता है तो ठीक, नहीं तो यह जहर भी देगा। इसलिए हॉब्स के अनुसार प्राकृतिक अवस्था परस्पर युद्ध की अवस्था है। परस्पर युद्ध का अभिप्राय यह नहीं कि मनुष्य एक-दूसरे का गला काटते-फिरते हैं। इसका अभिप्राय यह है कि आवश्यकता पड़ने पर वे किसी का गन्न भी काट सकते हैं। ऐसी अवस्था में अक्लमंदी यहीं है कि दूसरे को गला काटने देने से पहले आप उसका गला काट दें। जो यह नहीं करता वह नादान है और दूसरों का शिकार। अव्यवस्था की अवस्था का अभिप्राय यह भी है कि यहाँ न तो कोई स्थायी स्वामित्व होता है, न कुछ गलत या ठीक होता है, न ही कुछ उचित अथवा अनुचित या न्यायपूर्ण तथ अन्यायपूर्ण हॉब्स के अनुसार न्याय और अन्याय सभ्य व्यवस्था की बातें हैं और व्यवस्था का अभाव इनका भी अभाव है। जाहिर है कि हॉब्स की नजर में नैतिक बंधन कच्चे धागे हैं और कानूनी वचन ही केवल भरोसे योग्य हैं। ऐसी अवस्था में श्रम का फल प्राप्त करने का कोई आश्वासन नहीं होता। यदि मेहनत का फिल नहीं तो मेहनत नहीं, यदि मेहनत नहीं, तो कोई कृषि, उद्योग-धन्चे नहीं, कोई यातायात के साधन नहीं, कोई संस्कृति नहीं अर्थात् मनुष्य की जिंदगी अकेली, असहाय, पाशविक और क्षणिक होती है और फिर, ऐसी अवस्था में मनुष्य की जान जाने का भय भी निरंतर बना रहता है।

हॉब्स के अनुसार यह अवस्था निरर्थक है। इसलिए सभ्य जीवन की मांग है कि मनुष्य अपनी तृष्णा की पूर्ति के लिए राज्य की व्यवस्था करे और उसकी आज्ञा के अनुसार अपनी तृष्णा की पूर्ति करे। परंतु यह कैसे संभव हो ? सामाजिक समझोता-हॉब्स के अनुसार यह सामाजिक समझौते द्वारा संभव हो सकता है। सामाजिक समझौता, हॉब्स के अनुसार एक धारणा है, कोई घटना नहीं इस धारणा के अनुसार सभ्य जीवन का इच्छुक मनुष्य दूसरे मनुष्यों से यह समझौता करता है कि तृष्णा पूर्ति की चेष्टा में वह अपनी मनमानी नहीं करेगा। शर्त यह है कि दूसरे भी अपनी मनमानी करना छोड़ दें और अपनी तृष्णा की पूर्ति करते समय राज्य के नियमों से बंधे रहें। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रत्येक व्यक्ति समझौते के सुनय एक-दूसरे से यह कहता है कि "में इस व्यक्ति या व्यक्तियों की इस सभा को अपने अधिकार और सत्ता इस शर्त पर सौंपता हूं कि तुम भी उसे इसी तरह अपने अधिकार और सत्ता सौंप दो तथा इसके सब कार्यों को इसी रूप में अधिकृत करो।" ह्यूग्स के विचार में यह समझौता जनता और किसी प्रभुसत्ताधारी में नहीं हुआ बल्कि हर व्यक्ति का हर व्यक्ति या सारे व्यक्तियों के साथ हुआ है। दूसरे शब्दों में, चूंकि प्रभुसत्ताधारी इस समझौते में कोई पक्ष नहीं है, इसलिए उसकी प्रभुसत्ता पर कोई अंकुश इस आधार पर नहीं हो सकता कि वह समझीत द्वारा बाध्य है। न्य तथा प्रभुसत्ता-हाँस के समझौते के परिणामस्वरूप जो राज्य तथा प्रभुसत्ता स्थापित हुई उसकी शक्ति असीमित और निरंकुश होना अनिवार्य है। प्रभुसत्ता का अभाव फिर वही अवस्था पैदा करता है, जिसमें से युद्ध अनिवार्य है। प्रभुसत्ता का अभाव फिर वही अवस्था पैदा करता है जिसमें से युद्ध जन्म लेता है। एक बार समझौता हो जाने के बाद व्यक्ति प्रभुसत्ताधारी, तथा राज्य के विरुद्ध नहीं जा सकता और न राज्य से बाहर उसके कोई अपने अधिकार होते हैं। इस प्रकार हॉब्स प्राकृतिक अधिकार के सिद्धांत को नहीं मानता। पर चूंकि राज्य और प्रभुसत्ता स्वयं व्यक्तियों द्वारा अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति तथा व्यक्ति के अस्तित्व की रक्षा के लिए खड़ी की गई है, इसलिए सुरक्षा उनका अधिकार है। इन सिद्धांतों के आधार पर हॉब्स आधुनिक उदारवाद का प्रवर्तक बन जाता है। अतः यह कहा जा सकता है कि उसके समझौते में उदारवादी व्यक्तिवादी तथा साविधानिक सहमति के तत्व विद्यमान है जिनसे बाद में व्यक्तिवादी विचारधारा का सूत्रपात हुआ।

 हॉब्स के अनुसार प्रभुसत्ता, अविभाज्य, असीम, सर्वव्यापक तथा अहस्तांतरणीय है। इस प्रभुसत्ता के पात्र राजतंत्र में राजा, कुलीनतंत्र में बलीनों का समूह तथा लोकतंत्र में नागरिक समूह होते हैं। हॉब्स के अनुसार सरकार के तीन ही रूप हो सकते है, यानी राजतंत्र, कुलीतंत्र तथा लोकतंत्र हॉब्स स्वयं राजतंत्र का उपासक था। राज्य और व्यक्ति-हॉब्स के अनुसार राज्य व्यक्ति की तृष्णा की पूर्ति का साधन है। राज्य अपने आप में साध्य नहीं है। हॉस इस साधन को निरंकुश सत्ता प्रदान करना आवश्यक समझता है क्योंकि निरंकुश से कम सत्ता कोई सत्ता नहीं शांति ऐसी शक्ति की मांग करती है जो सभी अन्य शक्तियों से श्रेष्ठ और उच्च हो

इस शक्ति के समक्ष व्यक्ति क्या है? हॉस के अनुसार व्यक्ति राज्य व्यवस्था के निर्माता है। स्वार्थी व्यक्ति स्वभावतः वही कार्य करेंगे जो उनके स्वार्थ के अनुकूल होगा। इसलिए उनके किसी भी कार्य से यह नहीं समझा जा सकता कि उन्होंने अपनी तृष्णा पूर्ति का दामन छोड़ दिया है। हॉब्स के अनुसार तृष्णा पूर्ति ही जिंदगी है। इसलिए समझौते से कभी यह नहीं माना जा सकता कि व्यक्ति को किसी को भी यह अधिकार दे दे कि वह दूसरे व्यक्ति को बंदी बना सके, उस पर प्रहार कर सके, उसे दुःख दे सके या उसकी जान ले सके।

समझौते का उद्देश्य व्यवस्था स्थापित करना है। व्यवस्था प्रभुसत्ता की मांग करती है, प्रभुसत्ता कानून द्वारा अभिव्यक्त होती है और कानून का पालन करना व्यक्ति के लिए अनिवार्य है। जहाँ कानून का कोई आदेश नहीं ह यहाँ व्यक्ति अपनी तृष्णा और समझ के अनुसार कार्य करने के लिए स्वतंत्र है। कानून ऐसी कड़ियाँ हैं जो एक तरफ प्रभुसत्ताधारी की जुबान के साथ बंधी है और दूसरी तरफ व्यक्ति के हाथ से जहाँ कानून चुप है, वहाँ व्यक्ति की स्वतंत्रता है। सैद्धांतिक दृष्टिकोण से हॉटस भले ही असीमित प्रभुसत्ता के पक्ष में था परंतु उसके सिद्धांत के अनुसार व्यक्ति की खुशी की मांग है कि यह सत्ता जीवन पर हावी न हो। चूंकि सुरक्षा के उद्देश्य से ही सत्ता को मान्यता दी गई है, इसलिए यह इतनी शक्तिशाली अवश्य होनी चाहिए कि दूसरों के आक्रमण से व्यक्ति की रक्षा कर सके। यदि इस बात का निर्णय व्यक्ति पर छोड़ दिया जाए कि कब सरकार उसको आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर रही और फलतः उसका समर्थन नहीं करना चाहिए, तो सरकार के लिए आवश्यक शक्ति जुटाना कठिन हो जाएगा। लेकिन साथ ही यदि सरकार व्यक्ति के जीवन की रक्षा का कार्य नहीं कर सकती तो इसकी आज्ञापालन करने का कोई तर्क नहीं रह जाता। इसलिए हॉब्स के अनुसार यदि समर्पण उचित है तो स्वाभाविक रूप से यह संपूर्ण समर्पण होना चाहिए। इस प्रकार हॉब्स इस प्रश्न का उत्तर देता है कि सरकार का कार्य क्या है और इसे पूर्ण समर्थन देना क्यों आवश्यक है। परंतु यह स्पष्ट है कि हॉब्स जोर-जुल्म की सरकार का समर्थन नहीं करता। लेवायवन के तीसवें अध्याय में हॉब्स ने प्रभुसत्ताधारी के कार्यों का उल्लेख किया है। उसके अनुसार सत्ता का उद्देश्य लोगों के जीवन की सुरक्षा है। जीवन की सुरक्षा से अभिप्राय केवल यह नहीं कि आदमी की सांस चलती रहे, बल्कि इसमें ऐसी सब प्रकार की संतुष्टियाँ शामिल हैं, जिन्हें कानूनी जीवन जीता हुआ मनुष्य अपने राज्य को हानि पहुंचाए बिना, अपने श्रम से अपने लिए अर्जित करता है। हॉब्स इसके तरीकों का भी विस्तृत वर्णन देता है। परंतु यह हमारे अध्ययन से बाहर का विषय है।



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  भारतीय संविधान सभा तथा संविधान निर्माण |Indian Constituent Assembly and Constitution making संविधान निर्माण की सर्वप्रथम मांग बाल गंगाधर तिलक द्वारा 1895 में "स्वराज विधेयक" द्वारा की गई। 1916 में होमरूल लीग आन्दोलन चलाया गया।जिसमें घरेलू शासन सचांलन की मांग अग्रेजो से की गई। 1922 में गांधी जी ने संविधान सभा और संविधान निर्माण की मांग प्रबलतम तरीके से की और कहा- कि जब भी भारत को स्वाधीनता मिलेगी भारतीय संविधान का निर्माण -भारतीय लोगों की इच्छाओं के अनुकुल किया जाएगा। अगस्त 1928 में नेहरू रिपोर्ट बनाई गई। जिसकी अध्यक्षता पं. मोतीलाल नेहरू ने की। इसका निर्माण बम्बई में किया गया। इसके अन्तर्गत ब्रिटीश भारत का पहला लिखित संविधान बनाया गया। जिसमें मौलिक अधिकारों अल्पसंख्यकों के अधिकारों तथा अखिल भारतीय संघ एवम् डोमिनियम स्टेट के प्रावधान रखे गए। इसका सबसे प्रबलतम विरोध मुस्लिम लीग और रियासतों के राजाओं द्वारा किया गया। 1929 में जवाहर लाला नेहरू की अध्यक्षता में कांग्रेस का लाहौर सम्मेलन हुआ। जिसमें पूर्ण स्वराज्य की मांग की गई। 1936 में कांग्रेस का फैजलपुर सम्मेलन आयोजित किया गय

भारतीय निर्वाचन आयोग और परिसीमन आयोग |Election Commission of India and Delimitation Commission

  भारतीय निर्वाचन आयोग और परिसीमन आयोग परिसीमन आयोग भारत के उच्चतम न्यायालय के अवकाश प्राप्त न्यायाधीश न्यायमूर्ति कुलदीप सिंह की अध्यक्षता में 12 जुलाई 2002 को परिसीमन आयोग का गठन किया गया। यह आयोग वर्ष 2001 की जनगणना के आधार पर निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन करेगा। दिसंबर 2007 में इस आयोग ने नये परिसीमन की संसुतिति भारत सरकार को सौंप दी। लेकिन सरकार ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया। इस पर उच्चतम न्यायलय ने, एक दाखिल की गई रिट याचिका पर केंद्र सरकार को नोटिस जारी की। फलस्वरूप कैविनेट की राजनीतिक समिति ने 4 जनवरी 2008 को इस आयोग की संस्तुतियों को लागु करने का निश्चय किया। 19 फरवरी 2008 को राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल ने इस परिसीमन आयोग को लागू करने की स्वीकृति प्रदान की। परिसीमन •    संविधान के अनुच्छेद 82 के अधीन, प्रत्येक जनगणना के पश्चात् कानून द्वारा संसद एक परिसीमन अधिनियम को अधिनियमित करती है. •    परिसीमन आयोग परिसीमन अधिनियम के उपबंधों के अनुसार संसदीय निर्वाचन क्षेत्रों के सीमाओं को सीमांकित करता है. •    निर्वाचन क्षेत्रों का वर्तमान परिसीमन 1971 के जनगणना आँकड़ों पर आधारित

विनायक दामोदर सावरकर की जीवनी एवं विचार/Biography and Thoughts of Vinayak Damodar Savarkar

   विनायक दामोदर सावरकर/Vinayak Damodar Savarkar विनायक दामोदर सावरकर विनायक दामोदर सावरकर का जन्म महाराष्ट्र (आधुनिक मुम्बई) प्रान्त के नासिक के निकट भागुर गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम दामोदर पन्त सावरकर एवं माता का नाम राधाबाई था। विनायक दामोदर सावरकर की पारिवारिक स्थिति आर्थिक क्षेत्र में ठीक नहीं थी। सावरकर ने पुणे से ही अपनी क्रान्तिकारी प्रवृत्ति की झलक दिखानी शुरू कर दी थी जिसमें 1908 ई. में स्थापित अभिनवभारत एक क्रान्तिकारी संगठन था। लन्दन में भी ये कई शिखर नेताओं (जिनमें लाला हरदयाल) से मिले और ब्रिटिश विरोधी गतिविधियों का संचालन करते रहे। सावरकर की इन्हीं गतिविधियों से रुष्ट होकर ब्रिटिश सरकार द्वारा उन्हें दो बार 24 दिसम्बर, 1910 को और 31 जनवरी, 1911 को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई जो विश्व के इतिहास की पहली एवं अनोखी सजा थी। विनायक दामोदर द्वारा लिखित पुस्तकें (1) माई ट्रांसपोर्टेशन फॉर लाइफ (ii) हिन्दू-पद पादशाही (iii) हिन्दुत्व (iv) द बार ऑफ इण्डियन इण्डिपेण्डेन्स ऑफ 1851 सावरकर के ऊपर कलेक्टर जैक्सन की हत्या का आरोप लगाया गया जिसे नासिक षड्यंत्र केस में नाम से जाना

भारतीय संविधान के भाग |Part of Indian Constitution

  भाग 1  संघ और उसके क्षेत्र- अनुच्छेद 1-4 भाग 2  नागरिकता- अनुच्छेद 5-11 भाग 3  मूलभूत अधिकार- अनुच्छेद 12 - 35 भाग 4  राज्य के नीति निदेशक तत्व- अनुच्छेद 36 - 51 भाग 4 A  मूल कर्तव्य- अनुच्छेद 51A भाग 5  संघ- अनुच्छेद 52-151 भाग 6  राज्य- अनुच्छेद 152 -237 भाग 7  संविधान (सातवाँ संशोधन) अधिनियम,- 1956 द्वारा निरसित भाग 8  संघ राज्य क्षेत्र- अनुच्छेद 239-242 भाग 9  पंचायत - अनुच्छेद 243- 243O भाग 9A  नगर्पालिकाएं- अनुच्छेद 243P - 243ZG भाग 10  अनुसूचित और जनजाति क्षेत्र- अनुच्छेद 244 - 244A भाग 11  संघ और राज्यों के बीच संबंध- अनुच्छेद 245 - 263 भाग 12  वित्त, संपत्ति, संविदाएं और वाद -अनुच्छेद 264 -300A भाग 13  भारत के राज्य क्षेत्र के भीतर व्यापार, वाणिज्य और समागम- अनुच्छेद 301 - 307 भाग 14  संघ और राज्यों के अधीन सेवाएं- अनुच्छेद 308 -323 भाग 14A  अधिकरण- अनुच्छेद 323A - 323B भाग 15 निर्वाचन- अनुच्छेद 324 -329A भाग 16  कुछ वर्गों के लिए विशेष उपबंध संबंध- अनुच्छेद 330- 342 भाग 17  राजभाषा- अनुच्छेद 343- 351 भाग 18  आपात उपबंध अनुच्छेद- 352 - 360 भाग 19  प्रकीर्ण- अनुच्छेद 361 -367

PREAMBLE of India

 PREAMBLE WE, THE PEOPLE OF INDIA, having solemnly resolved to constitute India into a SOVEREIGN SOCIALIST SECULAR DEMOCRATIC REPUBLIC and to secure to all its citizens: JUSTICE, social, economic and political, LIBERTY of thought, expression, belief, faith and worship, EQUALITY of status and of opportunity: and to promote among them all  FRATERNITY assuring the dignity of the individual and the unity and integrity of the Nation,  IN OUR CONSTITUENT ASSEMBLY this twenty-sixth day of November, 1949, do HEREBY ADOPT, ENACT AND GIVE TO OURSELVES THIS CONSTITUTION.

राज्य की नीति के निदेशक तत्त्व |Directive Principles of State Policy

  36. परिभाषा- इस भाग में, जब तक कि संदर्भ से अन्यथा अपेक्षित न हो, 'राज्य' का वही अर्थ है जो भाग 3 में है। 37. इस भाग में अंतर्विष्ट तत्त्वों का लागू होना- इस भाग में अंतर्विष्ट उपबंध किसी न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय नहीं होंगे किंतु फिर भी इनमें अधिकथित तत्त्व देश के शासन में मूलभूत हैं और विधि बनाने में इन तत्त्वों को लागू करना राज्य का कर्तव्य होगा। 38. राज्य लोक कल्याण की अभिवृद्धि के लिए सामाजिक व्यवस्था बनाएगा- राज्य ऐसी सामाजिक व्यवस्था की, जिसमें सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय राष्ट्रीय जीवन की सभी संस्थाओं को अनुप्राणित करे, भरसक प्रभावी रूंप में स्थापना और संरक्षण करके लोक कल्याण की अभिवृद्धि का प्रयास करेगा। राज्य, विशिष्टतया, आय की असमानताओं को कम करने का प्रयास करेगा और न केवल व्यष्टियों के बीच बल्कि विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले और विभिन्न व्यवसायों में लगे हुए लोगों के समूहों के बीच भी प्रतिष्ठा, सुविधाओं और अवसरों की असमानता समाप्त करने का प्रयास करेगा। 39. राज्य द्वारा अनुसरणीय कुछ नीति तत्त्व- राज्य अपनी नीति का, विशिष्टतया, इस प्रकार संचालन करेगा कि सुनि

राजव्यवस्था के अति महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर/very important question and answer of polity

 राजव्यवस्था के अति महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर प्रश्‍न – किस संविधान संशोधन अधिनियम ने राज्‍य के नीति निर्देशक तत्‍वों को मौलिक अधिकारों की अपेक्षा अधिक प्रभावशाली बनाया?  उत्‍तर – 42वें संविधान संशोधन अधिनियम (1976) ने प्रश्‍न – भारत के कौन से राष्‍ट्रपति ‘द्वितीय पसंद'(Second Preference) के मतों की गणना के फलस्‍वरूप अपना निश्चित कोटा प्राप्‍त कर निर्वाचित हुए?  उत्‍तर – वी. वी. गिरि प्रश्‍न – संविधान के किस अनुच्‍छेद के अंतर्गत वित्‍तीय आपातकाल की व्‍यवस्‍था है?  उत्‍तर – अनुच्‍छेद 360 प्रश्‍न – भारतीय संविधान कौन सी नागरिकता प्रदान करता है?  उत्‍तर – एकल नागरिकता प्रश्‍न – प्रथम पंचायती राज व्‍यवस्‍था का उद्घाटन पं. जवाहरलाल नेहरू ने 2 अक्‍टूबर, 1959 को किस स्‍थान पर किया था ? उत्‍तर – नागौर (राजस्‍थान) प्रश्‍न – लोकसभा का कोरम कुल सदस्‍य संख्‍या का कितना होता है?  उत्‍तर – 1/10 प्रश्‍न – पंचवर्षीय योजना का अनुमोदन तथा पुनर्निरीक्षण किसके द्वारा किया जाताहै? उत्‍तर – राष्‍ट्रीय विकास परिषद प्रश्‍न – राज्‍य स्‍तर पर मंत्रियों की नियुक्ति कौन करता है?  उत्‍तर – राज्‍यपाल प्रश्‍न – नए

केन्द्र-राज्य सम्बन्ध और अंतर्राज्य परिषद | Center-State Relations and Inter-State Council

  केन्द्र-राज्य सम्बन्ध और अंतर्राज्य परिषद केन्द्र-राज्य सम्बन्ध- सांविधानिक प्रावधान अनुच्छेद 246:- संसद को सातवीं अनुसूची की सूची 1 में प्रगणित विषयों पर विधि बनाने की शक्ति। अनुच्छेद 248:- अवशिष्ट शक्तियां संसद के पास अनुच्छेद 249:-राज्य सूची के विषय के सम्बन्ध में राष्ट्रीय हित में विधि बनाने की शक्ति संसद के पास अनुच्छेद 250:- यदि आपातकाल की उद्घोषणा प्रवर्तन में हो तो राज्य सूची के विषय के सम्बन्ध में विधि बनाने की संसद की शक्ति अनुच्छेद 252:- दो या अधिक राज्यों के लिए उनकी सहमति से विधि बनाने की संसद की शक्ति अनुच्छेद 257:- संघ की कार्यपालिका किसी राज्य को निदेश दे सकती है अनुच्छेद 257 क:- संघ के सशस्त्र बलों या अन्य बलों के अभिनियोजन द्वारा राज्यों की सहायता अनुच्छेद 263:- अन्तर्राज्य परिषद का प्रावधान भारत के संविधान ने केन्द्र-राज्य सम्बन्ध के बीच शक्तियों के वितरण की निश्चित और सुस्पष्ट योजना अपनायी है। संविधान के आधार पर संघ तथा राज्यों के सम्बन्धों को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है: 1. केन्द्र तथा राज्यों के बीच विधायी सम्बन्ध। 2. केन्द्र तथा राज्यों के बीच प्रशासन