हॉब्स
विख्यात अंग्रेज विचारक टॉमस हॉब्स (1588-1679) अपने जन्म के विषय में कहता है कि "मैं और मेरा भय जुड़वां भाई" हैं" अव्यवस्था का भय हॉब्स के सिद्धांत की आधारशिला है। हालांकि हॉब्स को उदारवादी कहना मुश्किल है, फिर भी उसके सिद्धांत में उदारवाद के दार्शनिक तत्त्व पूरी तरह मौजूद हैं। सामाजिक समझौते से संबंधित विचार उनकी पुस्तक लेवायवन (Leviathan, 1651) में दिए गए हैं जो संक्षेप में निम्नलिखित हैं:
मानव स्वभाव-हॉब्स के अनुसार मनुष्य तृष्णा का दास है। तृष्णाएँ असीम हैं जबकि उनकी तृप्ति के साधन सीमित होते हैं। इसलिए इन साधनों की प्राप्ति में जुटा मनुष्य दूसरे मनुष्य का प्रतिद्वंदी बन जाता है। प्रतिस्पर्धा से अविश्वास पैदा होता है और अविश्वास से दूसरे की सफलता का भय स्पर्धा का आधार इसके अलावा भी है। यदि भौतिक तृष्णा की तृप्ति के साधन असीम भी होते तो भी मनुष्य एक-दूसरे को नीचा दिखाने के लिए एक-दूसरे के प्रतिद्वंद्वी रहते जिसके परिणामस्वरूप अविश्वास अवश्य पैदा होता।
प्राकृतिक अवस्था हॉब्स के सिद्धांत में प्राकृतिक अवस्था वह काल्पनिक अवस्था है जिसमें व्यवस्था का अभाव रहता है, अर्थात् कानून का अभाव, दंड का अभाव तथा दंडघर यानी प्रभुसत्ताधारी का अभाव। इसका अर्थ यह भी है कि मनुष्य का कर्तव्य केवल अपनी तृष्णा को शांत करना है, इसके अलावा उस पर कोई रोक-टोक नहीं। स्वाभाविक है कि अपने तृष्णा-संसार का बंदी मनुष्य, जो कि सब और प्रतिद्वंदिता से घिरा हुआ है, ऐसी अवस्था में अपनी तृष्णा पूर्ति के लिए हर संभव साधन अपनाएगा यदि उसका काम गुड़ खिलाने से बनता है तो ठीक, नहीं तो यह जहर भी देगा। इसलिए हॉब्स के अनुसार प्राकृतिक अवस्था परस्पर युद्ध की अवस्था है। परस्पर युद्ध का अभिप्राय यह नहीं कि मनुष्य एक-दूसरे का गला काटते-फिरते हैं। इसका अभिप्राय यह है कि आवश्यकता पड़ने पर वे किसी का गन्न भी काट सकते हैं। ऐसी अवस्था में अक्लमंदी यहीं है कि दूसरे को गला काटने देने से पहले आप उसका गला काट दें। जो यह नहीं करता वह नादान है और दूसरों का शिकार। अव्यवस्था की अवस्था का अभिप्राय यह भी है कि यहाँ न तो कोई स्थायी स्वामित्व होता है, न कुछ गलत या ठीक होता है, न ही कुछ उचित अथवा अनुचित या न्यायपूर्ण तथ अन्यायपूर्ण हॉब्स के अनुसार न्याय और अन्याय सभ्य व्यवस्था की बातें हैं और व्यवस्था का अभाव इनका भी अभाव है। जाहिर है कि हॉब्स की नजर में नैतिक बंधन कच्चे धागे हैं और कानूनी वचन ही केवल भरोसे योग्य हैं। ऐसी अवस्था में श्रम का फल प्राप्त करने का कोई आश्वासन नहीं होता। यदि मेहनत का फिल नहीं तो मेहनत नहीं, यदि मेहनत नहीं, तो कोई कृषि, उद्योग-धन्चे नहीं, कोई यातायात के साधन नहीं, कोई संस्कृति नहीं अर्थात् मनुष्य की जिंदगी अकेली, असहाय, पाशविक और क्षणिक होती है और फिर, ऐसी अवस्था में मनुष्य की जान जाने का भय भी निरंतर बना रहता है।
हॉब्स के अनुसार यह अवस्था निरर्थक है। इसलिए सभ्य जीवन की मांग है कि मनुष्य अपनी तृष्णा की पूर्ति के लिए राज्य की व्यवस्था करे और उसकी आज्ञा के अनुसार अपनी तृष्णा की पूर्ति करे। परंतु यह कैसे संभव हो ? सामाजिक समझोता-हॉब्स के अनुसार यह सामाजिक समझौते द्वारा संभव हो सकता है। सामाजिक समझौता, हॉब्स के अनुसार एक धारणा है, कोई घटना नहीं इस धारणा के अनुसार सभ्य जीवन का इच्छुक मनुष्य दूसरे मनुष्यों से यह समझौता करता है कि तृष्णा पूर्ति की चेष्टा में वह अपनी मनमानी नहीं करेगा। शर्त यह है कि दूसरे भी अपनी मनमानी करना छोड़ दें और अपनी तृष्णा की पूर्ति करते समय राज्य के नियमों से बंधे रहें। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रत्येक व्यक्ति समझौते के सुनय एक-दूसरे से यह कहता है कि "में इस व्यक्ति या व्यक्तियों की इस सभा को अपने अधिकार और सत्ता इस शर्त पर सौंपता हूं कि तुम भी उसे इसी तरह अपने अधिकार और सत्ता सौंप दो तथा इसके सब कार्यों को इसी रूप में अधिकृत करो।" ह्यूग्स के विचार में यह समझौता जनता और किसी प्रभुसत्ताधारी में नहीं हुआ बल्कि हर व्यक्ति का हर व्यक्ति या सारे व्यक्तियों के साथ हुआ है। दूसरे शब्दों में, चूंकि प्रभुसत्ताधारी इस समझौते में कोई पक्ष नहीं है, इसलिए उसकी प्रभुसत्ता पर कोई अंकुश इस आधार पर नहीं हो सकता कि वह समझीत द्वारा बाध्य है। न्य तथा प्रभुसत्ता-हाँस के समझौते के परिणामस्वरूप जो राज्य तथा प्रभुसत्ता स्थापित हुई उसकी शक्ति असीमित और निरंकुश होना अनिवार्य है। प्रभुसत्ता का अभाव फिर वही अवस्था पैदा करता है, जिसमें से युद्ध अनिवार्य है। प्रभुसत्ता का अभाव फिर वही अवस्था पैदा करता है जिसमें से युद्ध जन्म लेता है। एक बार समझौता हो जाने के बाद व्यक्ति प्रभुसत्ताधारी, तथा राज्य के विरुद्ध नहीं जा सकता और न राज्य से बाहर उसके कोई अपने अधिकार होते हैं। इस प्रकार हॉब्स प्राकृतिक अधिकार के सिद्धांत को नहीं मानता। पर चूंकि राज्य और प्रभुसत्ता स्वयं व्यक्तियों द्वारा अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति तथा व्यक्ति के अस्तित्व की रक्षा के लिए खड़ी की गई है, इसलिए सुरक्षा उनका अधिकार है। इन सिद्धांतों के आधार पर हॉब्स आधुनिक उदारवाद का प्रवर्तक बन जाता है। अतः यह कहा जा सकता है कि उसके समझौते में उदारवादी व्यक्तिवादी तथा साविधानिक सहमति के तत्व विद्यमान है जिनसे बाद में व्यक्तिवादी विचारधारा का सूत्रपात हुआ।
हॉब्स के अनुसार प्रभुसत्ता, अविभाज्य, असीम, सर्वव्यापक तथा अहस्तांतरणीय है। इस प्रभुसत्ता के पात्र राजतंत्र में राजा, कुलीनतंत्र में बलीनों का समूह तथा लोकतंत्र में नागरिक समूह होते हैं। हॉब्स के अनुसार सरकार के तीन ही रूप हो सकते है, यानी राजतंत्र, कुलीतंत्र तथा लोकतंत्र हॉब्स स्वयं राजतंत्र का उपासक था। राज्य और व्यक्ति-हॉब्स के अनुसार राज्य व्यक्ति की तृष्णा की पूर्ति का साधन है। राज्य अपने आप में साध्य नहीं है। हॉस इस साधन को निरंकुश सत्ता प्रदान करना आवश्यक समझता है क्योंकि निरंकुश से कम सत्ता कोई सत्ता नहीं शांति ऐसी शक्ति की मांग करती है जो सभी अन्य शक्तियों से श्रेष्ठ और उच्च हो
इस शक्ति के समक्ष व्यक्ति क्या है? हॉस के अनुसार व्यक्ति राज्य व्यवस्था के निर्माता है। स्वार्थी व्यक्ति स्वभावतः वही कार्य करेंगे जो उनके स्वार्थ के अनुकूल होगा। इसलिए उनके किसी भी कार्य से यह नहीं समझा जा सकता कि उन्होंने अपनी तृष्णा पूर्ति का दामन छोड़ दिया है। हॉब्स के अनुसार तृष्णा पूर्ति ही जिंदगी है। इसलिए समझौते से कभी यह नहीं माना जा सकता कि व्यक्ति को किसी को भी यह अधिकार दे दे कि वह दूसरे व्यक्ति को बंदी बना सके, उस पर प्रहार कर सके, उसे दुःख दे सके या उसकी जान ले सके।
समझौते का उद्देश्य व्यवस्था स्थापित करना है। व्यवस्था प्रभुसत्ता की मांग करती है, प्रभुसत्ता कानून द्वारा अभिव्यक्त होती है और कानून का पालन करना व्यक्ति के लिए अनिवार्य है। जहाँ कानून का कोई आदेश नहीं ह यहाँ व्यक्ति अपनी तृष्णा और समझ के अनुसार कार्य करने के लिए स्वतंत्र है। कानून ऐसी कड़ियाँ हैं जो एक तरफ प्रभुसत्ताधारी की जुबान के साथ बंधी है और दूसरी तरफ व्यक्ति के हाथ से जहाँ कानून चुप है, वहाँ व्यक्ति की स्वतंत्रता है। सैद्धांतिक दृष्टिकोण से हॉटस भले ही असीमित प्रभुसत्ता के पक्ष में था परंतु उसके सिद्धांत के अनुसार व्यक्ति की खुशी की मांग है कि यह सत्ता जीवन पर हावी न हो। चूंकि सुरक्षा के उद्देश्य से ही सत्ता को मान्यता दी गई है, इसलिए यह इतनी शक्तिशाली अवश्य होनी चाहिए कि दूसरों के आक्रमण से व्यक्ति की रक्षा कर सके। यदि इस बात का निर्णय व्यक्ति पर छोड़ दिया जाए कि कब सरकार उसको आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर रही और फलतः उसका समर्थन नहीं करना चाहिए, तो सरकार के लिए आवश्यक शक्ति जुटाना कठिन हो जाएगा। लेकिन साथ ही यदि सरकार व्यक्ति के जीवन की रक्षा का कार्य नहीं कर सकती तो इसकी आज्ञापालन करने का कोई तर्क नहीं रह जाता। इसलिए हॉब्स के अनुसार यदि समर्पण उचित है तो स्वाभाविक रूप से यह संपूर्ण समर्पण होना चाहिए। इस प्रकार हॉब्स इस प्रश्न का उत्तर देता है कि सरकार का कार्य क्या है और इसे पूर्ण समर्थन देना क्यों आवश्यक है। परंतु यह स्पष्ट है कि हॉब्स जोर-जुल्म की सरकार का समर्थन नहीं करता। लेवायवन के तीसवें अध्याय में हॉब्स ने प्रभुसत्ताधारी के कार्यों का उल्लेख किया है। उसके अनुसार सत्ता का उद्देश्य लोगों के जीवन की सुरक्षा है। जीवन की सुरक्षा से अभिप्राय केवल यह नहीं कि आदमी की सांस चलती रहे, बल्कि इसमें ऐसी सब प्रकार की संतुष्टियाँ शामिल हैं, जिन्हें कानूनी जीवन जीता हुआ मनुष्य अपने राज्य को हानि पहुंचाए बिना, अपने श्रम से अपने लिए अर्जित करता है। हॉब्स इसके तरीकों का भी विस्तृत वर्णन देता है। परंतु यह हमारे अध्ययन से बाहर का विषय है।
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