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गांधी की जीवनी एवं विचार/गांधीवाद (Gandhism)/ आधुनिक भारतीय विचारक /Biography and Thoughts of Mahatama Gandhi

 गांधीवाद (Gandhism)/ आधुनिक भारतीय विचारक /Deep study on Mahatama Gandhi


गांधीवाद (Gandhism)

बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में भारतीय राजनीतिक आन्दोलन में एक ऐसे व्यक्ति का प्रवेश हुआ जिसने पूरी भारतीय राजनीति को अपनी छवि से ढक लिया। यदि कहा जाए कि सम्पूर्ण भारतीय जनता को एक सूत्र में बाँधने का श्रेय गांधी जी को जाता है तो यह अतिश्योक्ति न होगी। गांधी एक ऐसे विचारक हैं जिन्होंने स्वयं अपने दर्शन का निर्माण नहीं किया, बल्कि पूर्व के दार्शनिक विचारों को अपने जीवन के व्यवहार में लाने का प्रयत्न किया। वह स्वयं कहा करते थे कि मैं किसी नवीन विचारधारा का प्रतिपादन नहीं कर रहा हूँ अपितु जो कुछ अच्छा है उसे में भारत की परिस्थिति के अनुसार व्यवहार में लाना चाहता हूँ सत्य और अहिंसा के विचार उतने ही पुराने हैं जितनी पुरानी पहाड़ियाँ हैं। श्री पटाभिसीता रमेया ने लिखा है कि "सिद्धान्तों का, मतों का, नियमों का, विनियमों का और प्रदेशों का समूह नहीं है प्रत्युत वह एक जीवन शैली या जीवन दर्शन है। यह शैली एक नई दिशा की ओर संकेत रकती है अथवा मनुष्य जीवन की समस्याओं के विषय में पुरानी दशा की पुनः स्थापना करती है और वर्तमान समस्याओं कि लिए प्राचीन समाधान प्रस्तुत करती है।" गांधी जी ने जिस विचारधारा को प्रतिपादित किया वह उनके द्वारा राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक तथा धार्मिक विषयों पर व्यक्त विचारों पर आधारित है।

2 अक्टूबर 1869 को जन्मे मोहनदास करमचन्द गांधी का जन्म पोरबन्दर, गुजरात में हुआ 30 जनवरी, 1948 को एक, हिन्दूवादी अंधविश्वासी द्वारा उनकी हत्या कर दी गई। 1947 को अपने जन्मदिन के अवसर पर एक पत्रकार को उत्तर देते हुए उन्हों कहा था कि उनकी लम्बे समय तक जीवित रहने की इच्छा नहीं है तथा वह उस सर्वशक्तिमान ईश्वर से यह प्रार्थना करेंगे, कि वह इससे पहले कि वह मुझे असहाय बना दे उन लोगों की सहायता करने जो कसाइयों की तरह लोगों को मार रहे हैं जो बड़ा भयंकर है, जो अपने आपको मुस्लिम या हिन्दू या और कुछ कहने का साहस करते हैं, उससे पहले वह मुझे इनसे दूर से जाए।" इस प्रकार गांधी वलिदान भारत की एकता का प्रतीक बन गया, इसीलिए आज तक वह पूजनीय है। उनके असहयोग आन्दोलन (1920), सविनय अवज्ञा आन्दोलन (1930) तथा भारत छोड़ो आन्दोलन (1942) ने पूरे राष्ट्र का नेतृत्व किया था।

गांधीजी पर धर्मों का प्रभाव

जैन धर्म-अहिंसा का सिद्धान्त (टॉलस्टॉय से गांधीजी ने अहिंसा सम्बन्धी विचार ग्रहण किया है। पादरी व लेखक जेजेडॉक ने टॉलस्टॉय को गांधीजी का गुरु बताया है। 
ईसाई धर्म-पर्वत प्रवचन जिसमें बुराई से जीतने की बात की।
थारो- सविनय अवज्ञा का सिद्धान्त। 
रस्किन गांधीजी ने अंग्रेजी साहित्यकार रस्किन की रचना 'Upto this Last' से तीन शिक्षाएं ग्रहण की है। एक व्यक्ति का हिन सब व्यक्यिों के हित में सम्मिलित है। 2. शारीरिक श्रम करने वाले का जीवन उत्तम है। 3. वकील कार्य का महत्व है, जो नाई के कार्य का है।

गांधीवाद के सिद्धान्त

गांधीवाद से तात्पर्य है महात्मा गांधीजी के सिद्धान्तों, विचारों और मन्तव्यों का समूहीकरण है। महात्मा गांधी एक राजनीतिज्ञ, समाज सुधारक, महान देशभक्त थे, लेकिन उनका कोई सुस्पष्ट राजनीतिक दर्शन या या नहीं था इस बारे में लोगों को सह है। महात्मा गांधी हॉथ्स, लाँक या रूसो की भांति ऐसे राजनीतिक दार्शनिक नहीं थे जिन्होंने अपना कोई सुसम्बद्ध राजनीतिक दर्शन का निर्माण किया हो। उनका वास्तविक उद्देश्य भारत का और फिर सारे विश्व का सत्य और अहिंसा के आदर्शों पर नए सिरे से निर्माण करना जो भारत की स्वतंत्रता इस लक्ष्य को प्राप्त करने का एक साधन मात्र थी। ऐसी स्थिति मे गांधीजी ने समय-समय पर अपने लेखों, भाषणों और पत्रों में भावी समाज व्यवस्था के बारे में अपने विचार प्रकट किए थे, जिनके अनुशीलन से यह भली प्रकार ज्ञात हो जाता है कि गांधीजी ने एक नूतन राजनीतिक दर्शन की प्रतिष्ठा की है। गांधीजी की शिक्षाओं को अवसर 'गांधीवाद' के नाम से संबोधित किया है, पर इस शब्द पर उन्हें स्वयं आपत्ति थी।

गांधीजी के विचारों को 'गांधी मार्ग' कहा जा सकता है। यह पद्धति और दृष्टिकोण इतिहास में सर्वथा नयी चीज थी। गांधीजी ने इतिहास में पहली बार सत्य, अहिंसा और प्रेम के आध्यात्मिक सिद्धान्तों का राजनीति के क्षेत्र में इतने विशाल पैमाने पर प्रयोग किया और इसमें सफलता प्राप्त की।

'गांधीवाद' शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग करांची में गांधी-इर्विन समझौते के बाद एक सार्वजनिक सभा में गांधीजी ने अपने एक महत्त्वपूर्ण वाक्य में किया था, जब उन्होंने कहा था-"गांधी मर सकता है पर गांधीवाद सदा जीवित रहेगा। निम्नलिखित दो कारणों से गांधीजी द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों को 'गांधीवाद' का नाम दिया जाता है 
  • पहला, गांधीजी ने प्राचीन सिद्धान्तों का प्रयोग वर्तमान युग की आवश्यकताओं के अनुसार नए ढंग से और नए रूप में किया है।
  • दूसरा, कारण यह था कि गांधीजी ने सत्य, अहिंसा, आदि के पुराने सिद्धान्तों के प्रयोग के क्षेत्र में एक बड़ी काति की। उनसे पहले इनका सर्वप्रथम प्रयोग वैयक्तिक और पारिवारिक जीवन तक ही सीमित था, उन्होंने सर्वप्रथम इनको सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्रों में प्रयुक्त किया।
गांधीजी द्वारा लिखी हुई सामग्री एक जगह संकलित न होकर यत्र-तत्र बिखरी हुई है और मार्क्सवाद-लेनिनवाद की तरह गांधीवाद नहीं है तथापि एक जीवन मार्ग के रूप में गांधीवाद में ये समस्त विशिष्टताएं हैं जो एक 'वाद' के लिए आवश्यक होती हैं। एक जीवन मार्ग के रूप में, "दर्शन" कहलाने के सभी गुण इसमें विद्यमान हैं। अपने इस अर्थ में गांधीवाद का न केवल अस्तित्व है बल्कि उसका भविष्य भी बड़ा देदीप्यमान है और यह एक ऐसी विचारधारा है जो मानवता को उस विनाश से बचा सकती है जिससे आज यह भयत्रस्त है।

गांधीजी की प्रसिद्ध कृतियां

'हिन्द स्वराज्य' (Hind Swaraj), 'मेरे सत्य के प्रयोग' (My Experiments with Truth), शान्ति और युद्ध में अहिंसा (Non-Violence in Peace and War), नैतिक धर्म (Ethical Religion), सत्याग्रह (Satyagarah), 'सत्य ही ईश्वर है' (Truth is God), सर्वोदय (Sarvodaya), आदि।

इसके अतिरिक्त गांधीजी ने दक्षिणी अफ्रीका में 'इण्डियन ओपीनियन' (Indian Opinion) नामक साप्ताहिक पत्र का, भारत में यंग इण्डिया (Young India), हरिजन (Harijan), नवजीवन, हरिजन सेवक, हरिजन बन्धु, आदि पत्रों का संपादन करते हुए अपने विचारों का प्रतिपादन किया। 

गांधीवाद दर्शन के तात्विक आधार

गांधीजी और धर्म

गांधीजी के पूर्व धर्म पर बहुत अधिक विचार हो चुका था, किन्तु तत्कालीन इतिहास और समाज में धर्म के विकृत रूप का दर्शन करने के कारण और संघर्ष, शोषण, अनैतिकता, पाखण्ड, अंधविश्वास, आदि दोषों से धर्म को आच्छादित देखने के कारण उन्हें इसी समस्या पर पुनः विचार करना पड़ा। गांधीजी ने विश्व के विभिन्न प्रमुख धर्मों का सूक्ष्म अध्ययन किया और उन्हें यह बोध हुआ कि सर्वसाधारण में धर्म की जो अवधारणा प्रचलित है वह नितान्त भ्रामक है। 
गांधीजी ने धर्म को जीवन और समाज का आधारभूत तत्त्व स्वीकार किया जिसे निकाल देने से व्यक्ति और समाज दोनों निष्प्राण और शून्य हो जाते।
धर्म होने हर काम में समाया हुआ होना चाहि। यहां धर्म का अर्थ संप्रदायवाद नहीं है। 
गांधी धर्म मूलतः मानवतावादी है। उसका चरम लक्ष्स मानव सेवा है। गांधी धर्म के प्रमुख तत्त्व हैं तत्त्व हैं सत्य और प्रेम अथवा अहिंसा उनकी निष्ठा धर्मानुप्राप्ति व्यक्तित्व में है।
     गांधीजी ने अपने धर्म को वैज्ञानिक स्वरूप से युक्त बनाया विज्ञान सृष्टि के रहस्यों को समझता है और प्रयोग तथा प्रमाण से जो कुछ सत्य होता है उसे क्रमबद्ध ज्ञान के रूप में प्रस्तुत करता है। विज्ञान रूढ़ि, अंधविश्वास, आदि को महत्व नहीं देता और गांधीजी का धर्म भी रूढ़ि तथा अंधविश्वास का घोर विरोधी है। गांधीजी ने धर्म और संस्कृति को संयुक्त किया है। उन्होंने आदर्श सांस्कृतिक प्रतिमानों की जो रूपरेखा प्रस्तुत की है उसकी मूल भावना आध्यात्मिक कही जा सकती है। ये मानवता की प्रगति के लिए ईश्वर और धर्म में आस्था रखना अपरिहार्य समझते हैं। सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अस्तेय और अपरिग्रह ये पांच बातें धर्म पालन के लिए आवश्यक हैं। गांधीजी का कहना है कि संस्कृति के विभिन्न प्रतिमान इन्हीं मूल्यों पर आधारित होने चाहिए।

गांधीजी का धर्म सह-अस्तित्व का धर्म है, सहिष्णुता का धर्म है। गांधीजी सभी धर्मों की समानता में विश्वास करते थे। उनका कहना था कि कोई भी धर्म दूसरे धर्मों से श्रेष्ठतर होने का दावा नहीं कर सकता है अतः सभी धर्म समान हैं। एक ही लक्ष्य पर पहुंचने के विभिन्न मार्ग हैं।

धर्म और राजनीति

    राज्य को धर्मरहित बनाने में 15वीं शताब्दी के इटली के मैकियावली का बड़ा योग रहा। उसने यह प्रतिपादित किया कि राजनीतिक सफलता के लिए नीति और धर्म को राजनीति से पूर्णतः पृथक् रखना चाहिए। मध्ययुग में तथाकथित धर्म ने राजनीति पर नियन्त्रण करके समाज का बहुत अहित किया था। अतः प्रतिक्रियास्वरूप धर्मनिरपेक्ष राजनीति को समर्थन मिला, किन्तु धर्मनिरपेक्ष होकर राजनीति पूर्णतः स्वच्छन्द और कुपथगामिनी हो गयी, धूर्ततता का पर्याय बन गयी, मानवता के विनाश का एक कारण हो गयी।

महात्मा गांधी का उद्भव भी इसी मैकियाविलीय राजनीति के युग में हुआ, किन्तु इस धार्मिक और आध्यात्मिक संत ने राजनीति के विकृत रूप को स्वीकार नहीं किया। गांधीजी ने स्पष्ट घोषणा की कि धर्म के बिना राजनीति पाप है। महात्मा गांधी ने राजनीति का आध्यात्मीकरण किया। उनका विश्वास था कि यदि राजनीति को मानव समाज के लिए वरदान होना है तो उसे उच्चतम नैतिक और आध्यात्मिक सिद्धान्तों पर आधारति होना चाएिह। उन्होंने राजनीति को उच्च नैतिकता और धार्मिक भावना से ओत-प्रोत किया। वे धर्म औरी राजनीति को पृथक् नहीं मानते हैं।

गांधीजी मूलतः धार्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति थे और जिस प्रकार उन्होंने अपने जीवन में धर्म का निर्वाह किया, उस आधार पर उन्हें भारतीय परम्परा का एक महान् संत कहा जा सकता है। एक धार्मिक नेता होते हुए भी गांधीजी धार्मिक रूढ़िवादिता और धर्मान्धता के समर्थक नहीं थे तथा धर्म के सम्बन्ध में उनका दृष्टिकोण लौकिक तथा मानवतावादी था। इसी प्रकार वे राजनीति शब्द में 'नीति' अर्थात् धर्म और मानवता को प्राथमिकता देते थे, 'राज' अर्थात् सत्ता को नहीं धर्म के सम्बन्ध में अपने इस लौकिक दृष्टिकोण के कारण ही गांधीजी ने राजनीति में प्रवेश कर राजनीति में नीति के महत्त्व का प्रतिपादन किया। उन्होंने राजनीति में प्रवेश इसलिए किया, क्योंकि राजनीति धर्म विहीन होती जा रही थी और उसमें धर्म की पुनर्स्थापना करना वे अपना कर्त्तव्य समझते थे। इस कथन से यह स्पष्ट होता है कि राजनीतिक क्षेत्र में जो भी कार्य गांधीजी कर रहे थे वे धार्मिक कार्य ही थे। वे उनेस अलग नहीं रह सकते थे, क्योंकि उनका उनके जीवन से अविभाज्य सम्बन्ध था। एक बार पोलक से चर्चा करते हुए उन्होंने कहा भी था, “अधिकतर धार्मिक मनुष्य जिनसे में मिला हूं, वे छिपे तौर से राजनीतिज्ञ हैं, किन्तु मे राजनीतिज्ञ का जामा पहने हुए, हृदय से एक धार्मिक मनुष्य हूँ।"

गांधीजी एक महान् कर्मयोगी थे जो जीवन को एक ऐसी अविभाज्य इकाई समझते थे जिसकी विभिन्न क्रियाओं का एक दूसरे से पृथक् नहीं किया जा सकता और इसलिए वे यह मानते थे कि उन्होंने अपने धार्मिक कर्तव्यों के एक अंग के रूप में ही राजनीति में भाग लिया है। उनका यह विश्वास था कि यदि जीवन के लौकिक तथा धार्मिक पक्षों के मध्य पार्थक्य की एक दीवार खड़ी कर दी गयी तो न केवल धर्म का प्रतिष्ठित स्थान जाता रहेगा बल्कि वह अपने उस वास्तविक कार्य को करना भी बन्द कर देगा जिसके लिए उसका अस्तित्व है।

गांधीजी के अनुसार राजनीति देश-धर्म है, उससे अलग होकर व्यक्ति आत्मघात करता है, लेकिन उनकी धार्मिकता का अर्थ रूढ़िवादी धर्म से नहीं था, क्योंकि धार्मिक पाखण्ड ओर आडम्बरयुक्त मूर्ति पूजा के वह विरोधी थे। एक राजनीतिज्ञ जो इन उपदेशों की प्राप्ति के लिए काम करता है धार्मिक हुए बिना नहीं रह सकता।

राजनीति को धर्मानुमोदित मानने से गांधीजी का यह अभिप्राय नहीं है राजसत्ता धर्माधिकारियों के हाथों में सौंपी जानी चाहिए अथवा राज्य को किसी धर्म विशेष या संप्रदाय विशेष का प्रचारक बनना चाहिए। राज्य का अपना कोई विशेष धर्म या संप्रदाय न हो, किन्तु राज्य धर्म-रहित भी न हो, अर्थात् राज्यनीति धर्म के सार्वभौमिक नियमों-सत्य, अहिंगा, प्रेम, सेवा, आदि का पूर्ण पालन करे। गांधीजी ने कहा कि राजनीतिज्ञों को सब धर्मों के प्रति समान भाव रखना चाहिए और राजनीति या सार्वजनिक जीवन में नीति-धर्म के सार्वभौमिक मूल्यों पर अटल रहना चाहिए।

गांधीजी ने धर्म व राजनीति के एक होने का प्रमाण अपने कार्यों से दिया। उन्होंने विदेशी शासन से भारत की स्वतंत्रता आन्दोलन को एक साधु की तरह चलाया। उन्होंने झूठे कानूनों का शान्तिपूर्ण विरोध तथा झूठे कानूनों को बनाने वाले शासकों से शान्तिपूर्ण असहयोग का मार्ग निर्धारित किया। शक्तिशाली ब्रिटिश सरकार के अन्त अपने आपको उनके अहिंसात्मक विद्रोह के सामने असाहय अनुभव किया और वह जनता के प्रतिनिधियों को शासन सत्ता सौंपकर बुद्धिमानीपूर्वक हट गयी। गांधीजी नैतिकता और शुद्ध आचार-विचार को ही सच्चा धर्म मानते थे और उन्होंने राजनीति में भी नैतिक मूल्यों को महत्त्व दिया। उनकी दृष्टि में यह राजनीति हिंसक है जो जीवन के आधारभूत सत्यों को लेकर नहीं चलती। जब वे राजनीति का आध्यात्मीकरण करने को कहते हैं तो वे राजनीति से विग्रह, विघटन, विद्रोह और विनाश की प्रवृत्तियों का उन्मुलन करना चाहते हैं तथा सद्भावना, सहयोग, समन्वय तथा संगठन के तत्त्वों का अधिकतम समावेश चाहते हैं। सारांशतः उनकी राजनीति धर्म की पूरक है।

गांधीजी और ईश्वर

गांधीजी बहुत बड़े ईश्वर भक्त थे। वे संपूर्ण जगत की ईश्वरमय मानते थे संसार की समस्त गतिविधियों का संचालन करने वाली शक्ति का नाम ईश्वर है। इसकी सहायता के बिना न तो प्रगति संभव है और न ही जीवन का अस्तित्व। गांधीजी के मतानुसार ईश्वर सत्य है। इसलिए उसकी प्राप्ति जीवन का परम ध्येय है, परन्तु धर्म की भाँति उनकी ईश्वर की व्याख्या भी उदार है। गांधीजी का यह कथन कि "यदि में यह विश्वास कर पाता कि ईश्वर मुझे हिमालय की गुफा में मिलेगा तो में तुरन्त वहाँ पहुँचता पर मैं यह जानता हूँ कि मैं उसे मानवता से पृथक नहीं पा सकता," उनकी ईश्वर धारणा को सर्वव्यापक बनाते है। गांधीजी ने ईश्वर शब्द का अर्थ विस्तार किया था और उसे दरिद्र नारायण कहकर भी पुकारा था जिसका आशय है गरीबों का ईश्वर गांधीजी की ईश्वर सम्बन्धी मान्यता से स्पष्ट है कि उन्होंने स्वग्र के भगवान को धरती पर उतार दिया, उसे अलौकिक से लौकिक बना दिया, मनुष्यों में सम्पृक्त कर दिया।

सत्य की अवधारणा

गांधीजी के अनुसार, 'सत्य ही ईश्वर है। परन्तु प्रश्न उठता है कि वह सत्य जो ईश्वर है और जिसकी प्राप्ति जीवन का उद्देश्य है, क्या है?

गांधीजी के मतानुसार, 'सत्य' सत शब्द से निकला है, इसका अर्थ है अस्तित्व या होना सत्य को ईश्वर या ब्रह्म कहने का यह कारण है कि सत्य यही है जिसकी सत्ता होती है, जो सदा टिका रहता है। गांधीजी अपने जीवन का ध्येय सत्य की शोध करना समझते थे। उन्होंने अपनी आत्मकथा का नाम मेरे सत्य के प्रयोग रखा है।
सामान्यतः सत्य शब्द का अर्थ केवल सच बोलना ही समझा जाता है, लेकिन गांधीजी ने सत्य का व्यापकतम अर्थ लेते हुए बार-बार यह आग्रह किया है कि विचार में, वाणी में और आचार में सत्य का होना ही सत्य है। गांधीजी के अनुसार दैनिक जीवन में सत्य सापेक्ष है, किन्तु सापेक्ष सत्य के माध्यम से एक निरपेक्ष सत्य पर पहुँचा जा सकता है और यह निरपेक्ष सत्य ही जीवन का चरम लक्ष्य है, इसकी प्राप्ति ही मनुष्य का परम धर्म है। गांधीजी के सत्य के परिवेश में केवल व्यक्ति ही नहीं आता है, अपितु इसमें समूह और समाज का भी समावेश है।
राजनीति में सत्य के पूर्ण पालन का उनका नवीन प्रयोग तो विश्व इतिहास के लिए एक अविस्मरणीय घटना है।

गांधीजी की अहिंसा अवधारणा

प्राचीन काल से ही भारत में अहिंसा का अत्यधिक महत्त्व रहा है। योग दर्शनकार पातंजलि ने आत्मशुद्धि की साधना के पाँच यमों में अहिंसा को पहला स्थान दिया है। जैन धर्म में अहिंसा का अत्यधिक महत्व रहा है महात्मा गांधी पर इंग्लैण्ड से लौटने के बाद रामचन्द्र नामक जैन विद्वान का बड़ा प्रभाव पड़ा। अहिंसा का अर्थ-अहिंसा का शाब्दिक अर्थ है हिंसा या हत्या न करना। हिंसा का अर्थ किसी भी जीव को स्वार्थवश, क्रोधवश या दुख देने की इच्छा से कष्ट पहुँचाना या मारना है हिंसा के मूल में स्वार्थ, क्रोध या विद्वेष की भावना होती है।
गांधीजी के लिए अहिंसा का अर्थ अत्यन्त व्यापक है जिसमें कार्य ही नहीं, अपितु विचार में भी सावधान रहना आवश्यक है। किसी को न मारना अहिंसा का एक अंग अवश्य है, किन्तु अहिंसा में इसके अतिरिक्त और भी कुछ है। अहिंसा के दो पक्ष-अहिंसा के दो पक्ष है-नकारात्मक तथा सकारात्मक किसी प्राणी को काम, क्रोध तथा विद्वेष से वशीभूत होकर हिंसान पहुँचाना इसका नकारात्मक रूप है, किन्तु इससे अहिंसा का पूरा स्वरूप समझ में नहीं आता है। भावात्मक जयदा सकारात्मक स्वरूप वाली अहिंसा की सार्वभीम प्रेम और करुणा की भावना कहा जाता है। इसके चार मूल तत्त्व प्रेम, धैर्य, अन्याय का विरोध और वीरता है।

जिस प्रकार हिंसा का आधार विद्वेष होता है उसी प्रकार अहिंसा का आधार प्रेम है। अहिंसा का व्रत लेने वाला साधक अपने उग्रतम शत्रु से भी येता ही प्रेम रखता है जैसा पिता बुरा कार्य करने वाले अपने पुत्र से स्नेह करता है। वह स्वयं प्रसन्नतापूर्वक कष्ट सहन कर लेता है, किन्तु शत्रु को कष्ट नहीं पहुंचाता अहिंसा का दूसरा तत्त्व अनन्त धैर्य है। यदि अहिंसक को अपने प्रयत्न में जल्दी सफलता नहीं मिलती तो वह निराश नहीं होता। उसे दृढ विश्वास रहता है कि अहिंसा अचूक ब्रह्मास्त्र है, वह अन्त में अवश्य सफल होगी। अहिंसा का तीसरा तत्त्व अन्याय का प्रतिरोध करना है अहिंसा निष्क्रियता या उदासीनता नहीं है अपितु बुराई का तथा अन्याय का सतत् प्रतिकार करते रहना है। अहिंसक अन्यायी के अत्याचारों से घबराता नहीं है अपितु वीरतापूर्वक उनका सामना करता है, अतः अहिंसा का चौथा मूल तत्त्व वीरता है।

अन्धकार और प्रकाश की तरह कायरता और अहिंसा में विरोध है। अहिंसा के प्रयोग तभी महत्त्व रखते हैं जब हम बलवान होते हुए तथा पशुवत का पूरा सामर्थ्य रखते हुए भी इसका प्रयोग न करें। अहिंसक योद्धा का सबसे बड़ा गुण चीरता और निर्भयता है। ऐसा वीरतापूर्ण आत्मबल न होने की दशा में गांधीजी हिंसा और बल प्रयोग को अधिक श्रेष्ठ समझते थे।

अहिंसा का आधार-गांधीजी की अहिंसा का आधार अद्वैत की भावना है। उनका विश्वास था कि सृष्टि की सभी वस्तुओं में एक ही चेतन सत्ता या ब्रह्म ओत-प्रोत है। सभी में भगवान का दिव्य अंश है। जब सब कुछ भगवान का रूप है और में भी वास्तव में उसी का रूप हूँ तो मैं किसी से कैसे द्वेष कर सकता हूँ। अहिंसा की तीन अवस्थाएँ-गांधीजी ने अहिंसा की निम्नलिखित तीन अवस्थाएँ बताई हैं

1. जाग्रत अहिंसा-इसे वीर पुरुषों की अहिंसा भी कहते हैं। यह वह अहिंसा है जो किसी दुखपूर्ण आवश्यकता से पैदा न होकर अन्तरात्मा की स्वाभाविक पुकार से जन्म लेती है। इसको अपनाने वाले अहिंसा को बोझ समझ कर स्वीकार नहीं करते वरन् आन्तरिक विचारों की उत्कृष्टता या नैतिकता के कारण स्वीकार करते हैं। अहिंसा के इस रूप में असम्भव को सम्भव में बदलने और पहाड़ों को हिला देने की अपार शक्ति निहित है।
2. औचित्यपूर्ण अहिंसा-इस प्रकार की अहिंसा वह है जो जीवन के किसी क्षेत्र में विशेष आवश्यकता के पड़ने पर औचित्यानुसार एक नीति के रूप में अपनाई जाती है। यह अहिंसा निर्बल व्यक्तियों की अहिंसा है या असहाय व्यक्तियों का निष्क्रिय प्रतिरोध। इसमें नैतिक विश्वास के कारण नहीं वरन् निर्बलता के कारण ही अहिंसा का प्रयोग किया जाता है। यद्यपि वह अहिंसा जाग्रत अहिंसा की भांति प्रभावशाली नहीं है फिर भी यदि इसका पालन ईमानदारी, सच्चाई और दृढ़ता से किया जाए तो इससे कुछ सीमा तक वांछित लक्ष्य की प्राप्ति की जा सकती है। 3. कायरों की अहिंसा कई बार डरपोक तथा कायर लोग भी अहिंसा का दम्भ भरते हैं। गांधीजी ऐसे लोगों की अहिंसा को अहिंसा न मानकर निष्क्रिय हिंसा मानते हैं। उनका विश्वास था कि 'कायरता और अहिंसा पानी और आग की भांति एक साथ नहीं रह सकते। अहिंसा वीरों का धर्म है और अपनी कायरता को अहिंसा की ओट में छिपाना निन्दनीय तथा घृणित है। यदि कायरता और हिंसा में से किसी एक का चुनाव करना हो तो गांधीजी हिंसा को स्वीकार करते हैं।

अहिंसा की श्रेष्ठता-गांधीजी इतिहास के आधार पर अहिंसा की श्रेष्ठता का प्रतिपादन करते हैं। द्वन्द्वात्मक संघर्ष में विश्वास रखने वाले कार्ल मार्क्स से सर्वथा विपरीत ये मानव समाज के इतिहास को उसकी अहिंसा का निरन्तर अग्रगामी विकास मानते हैं। आदिम जातियों के बारे में कहा जाता है कि वे नर मांस-भक्षी थीं, किन्तु बाद में मनुष्यों ने मनुष्य का मांस खाना अनुचित समझा, शिकार द्वारा पशुओं के मांस से उदर पूर्ति करने लगीं। कुछ समय बाद मानव ने आखेट द्वारा आहार प्राप्त करने की पद्धति का परित्याग किया क्योंकि निरन्तर भटकते रहने वाले शिकारी जीवन से वह ऊब गया था। अब उसने पशुओं को मारने के स्थान पर उनका पालन करना तथा खेती करना शुरू कर दिया। यदि ऐसा न होता, हिंसा बढ़ती चली जाती और अहिंसा की मात्रा घटती जाती, तो मानव जाति बहुत पहले ही नष्ट हो जाती। 
ऐतिहासिक विकास के अतिरिक्त अहिंसा अन्य कई कारणों से भी श्रेष्ठ हैं

पहला कारण यह है कि यह आत्मिक शक्ति है जो छोटे से छोटे तथा कमजोर से कमजोर बच्चों और बूढ़ों में भी पाई जा सकती है।
दूसरा कारण अहिंसा का सतत् एवं स्वतः क्रियाशील होना है। इसके प्रयोग के लिए हमें शारीरिक शक्ति का सहारा नहीं लेना पड़ता। शारीरिक शक्ति का प्रयोग करने वाले को किसी न किसी प्रकार के विश्राम की आवश्यकता पड़ती है, किन्तु अहिंसा व्रतधारी के लिए विश्राम आवश्यक नहीं है। डालता है और यह शस्त्र
तीसरा कारण यह है कि अहिंसा का आत्मबल शत्रु पर अचेतन अज्ञात एवं अप्रत्यक्ष रूप से प्रभाव बल की अपेक्षा अधिक प्रभावशाली होता है। शस्त्र बल रखने वाले की कार्यवाही तात्कालिक एवं क्षणिक प्रभाव डालने वाली होती है।
चीथा कारण, हिंसा की विफलता और अहिंसा की निश्चित सफलता है। अहिंसा और प्रेम कुछ समय के लिए विफल हो सकते हैं, किन्तु उनकी अन्तिम सफलता निश्चित है। गांधीजी की अहिंसा की विशेषताएँ-गांधीजी की अहिंसा की दो बड़ी विशेषताएँ हैं पहली विशेषता इसका सूक्ष्म और विस्तृत विवेचन है तथा दूसरी इसके क्षेत्र का विस्तार करके इसे नई गति तथा नया विस्तार प्रदान करना है।

पहली विशेषता-गांधीजी से पहले अहिंसा का सामान्य अर्थ किसी जीव का प्राण न लेना तथा इसे खान-पान के विषय तक सीमित रखना था। गांधीजी ने इसका विस्तृत विवेचन करते हुए कहा कि यह खायाखाय के विषय से परे है। एक व्यापारी झूठ बोलता है, ग्राहकों को उगता है, कम तोलता है, किन्तु यह व्यापारी चींटी को आटा डालता है, फलाहार करता है। फिर भी यह व्यापारी उस मांसाहारी व्यापारी की अपेक्षा अधिक हिंसक है, जो मांसाहार करते हुए भी ईमानदार है और किसी को धोखा नहीं देता।
दूसरी विशेषता, अहिंसा के कार्यक्षेत्र का विस्तार है। गांधीजी ने अहिंसा को व्यक्तिगत और पारिवारिक क्षेत्र की संकीर्ण परिधि से निकालकर इसे सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्रों में सभी प्रकार के अन्यायों का प्रतिकार करने का शस्त्र बनाया। इसे ऋषि-मुनियों तक मर्यादित न रखकर सार्वजनिक और सार्वभीम बनाया। हरिजन सेवक में उन्होंने लिखा था, "हमें सत्य और अहिंसा को केवल व्यक्तियों की वस्तु नहीं बनाना है, बल्कि ऐसी वस्तु बनाना है जिस पर समूह, जातियों और राष्ट्र (अमल कर सकें।" अहिंसा के विषय में गांधीजी की यह सबसे बड़ी मीलिक देन थी। भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए राजनीतिक क्षेत्र में अहिंसा के सफल प्रयोग से उन्होंने अपने उपर्युक्त दावे को सत्य सिद्ध किया।

गांधीजी की अहिंसा धारणा की व्यावहारिकता-गांधीजी की अहिंसा धारणा के निवेदन से यह प्रश्न उठता है कि क्या मनसा, बाचा, कर्मणापूर्ण अहिंसा का आदर्श व्यावहारिक है? क्या कोई व्यक्ति गीता में वर्णित उस अवस्था तक पहुँच सकता है कि जहाँ पहुँचकर वह हर प्रकार की दुर्भावना से मुक्त हो जाए, सबके प्रति मैत्री और दया भाव से पूरित हो? इस सम्बन्ध में गांधीजी ने अपना स्पष्टीकरण दिया है। हिंसा और अहिंसा के सूक्ष्म अन्तर का बड़ा स्पष्ट दिग्दर्शन कराते हुए गांधीजी ने वे परिस्थितियाँ बताई है कि जिनमें मनुष्य को हिंसा करनी ही पड़ती है और वह उससे बच नहीं सकता, जैसे,

प्रथम, जीवन के भरण-पोषण के लिए जितनी हिंसा अनिवार्य होती है यह क्षम्य होती है। शरीर ईश्वर की धरोहर हैं जिसे नष्ट करने का व्यक्ति को कोई अधिकार नहीं है। यह मनुष्य की विवशता है। गांधीजी अहिंसा के सम्बन्ध में कल्पनावादी नहीं, व्यावहारिक थे। उन्होंने मनुष्यों या सम्पत्ति को हानि पहुँचाने वाले जीव-जन्तुओं को मारने की अनुमति दी है। यह हिंसा 'संकटकालीन कर्तव्य' कही जाती है और विहित है। यह उल्लेखनीय है कि यद्यपि गांधीजी हिंसक जीव-जन्तुओं की हत्या की अनुमति देते अवश्य हैं, लेकिन उनके हृदय का भाव यही है कि यदि मनुष्य अहिंसा का पालन यथोचित रूप से करे तो हिंसक जीव भी मनुष्य को हानि नहीं पहुँचाएंगे।

द्वितीय, शरणागत की रक्षा के लिए की गई हिंसा भी अनिन्दनीय है। यदि कोई आततायी हमारे आश्रितों के जीवन से खिलवाड़ करने के लिए आए तो उसका वध करना भी हिंसा नहीं होगी। तृतीय, जिस व्यक्ति या प्राणी की हिंसा की जाए, उसको दुखों से छुटकारा दिलाने के लिए यह आवश्यक हो तो ऐसी हिंसा अपराध नहीं है। उदाहरणार्थ, यदि किसी का रोग असाध्य हो जाए और चारों ओर निराशा हो तो उस व्यक्ति या प्राणी को मारना पाप या हिंसा नहीं। उन्होंने कहा था-"यदि मेरा पुत्र भी तड़प रहा हो और उसका कोई इलाज नहीं हो तो मुझे उसके जीवन को समाप्त करना अपना कर्तव्य समझना चाहिए।"

गांधीजी की कार्य पद्धति सत्याग्रह

गांधीजी ने अहिंसा के सिद्धान्त को मूर्त रूप देने के लिए राजनीतिक क्षेत्र में जिस कार्य पद्धति का प्रयोग किया वह सत्याग्रह है। वहाँ की गोरी सरकार भारतीयों के प्रति अन्यायपूर्ण कानून पास कर रही थी। इनसे वहाँ बसे भारतीयों में तीव्र रोप और असन्तोष था। उन्होंने गांधीजी के नेतृत्व में इस अन्याय का अहिंसात्मक प्रतिरोध करने का निश्चय किया। उस समय इस आन्दोलन को निष्क्रिय प्रतिरोध का नाम दिया गया, किन्तु गांधीजी को दो कारणों से यह शब्द पसन्द नहीं था पहला कारण तो इसका अंग्रेजी शब्द होना तथा भारतीयों को इसका पूरा अर्थ समझ में न आना था। दूसरा कारण यह कि इसमें गांधीजी द्वारा प्रतिपादित विचारों का पूरा समावेश नहीं होता था। सत्याग्रह से अभिप्राय-सत्याग्रह का शाब्दिक अर्थ है सत्य के लिए आग्रह करना इसका आधार है सत्य की अर्थात् सत्य से उत्पन्न होने वाले प्रेम तथा अहिंसा की शक्ति यह शारीरिक बल अथवा शस्त्रों की भौतिक शक्ति से सर्वथा भिन्न हैं यह आत्मा की शक्ति है।

सत्याग्रह का दार्शनिक आधार-सत्याग्रह का अर्थ है सत्य पर आग्रह करते हुए अत्याचारी का प्रतिरोध करना, उनके सामने सिर को न झुकाना ती उसकी बात को न मानना। जब उसे इस बात का निश्चय हो जाता है कि वह अपने प्रजाजनों को मार डालने पर भी अपनी इच्छा उनसे नहीं मनवा सकता तो वह प्रजा का दमन करना निरर्थक समझता है और इसे छोड़ देता है। इसके अतिरिक्त उसके हृदय पर सत्याग्रहियों द्वारा झेली जाने वाली कठोर यातनाओं और कष्टों का भी प्रभाव पड़ता है। सत्याग्रही द्वारा प्रसन्नतापूर्वक कष्ट झेलने से अत्याचारी में मनुष्यता की प्रसुप्त भावना जाग्रत हो उठती है। इसके परिणामस्वरूप अन्त में एक ऐसी स्थिति आ जाती है कि अत्याचारी की आँखें खुल जाती हैं, उसे अपने किए अत्याचारों पर पश्चाताप होने लगता है।

गांधीजी के अनुसार यह आत्मबल का शरीर बल अथवा पशु बल के साथ संघर्ष है इसमें पशु बल पर आत्मबल की विजय निश्चित है। इस संघर्ष में संख्या का महत्त्व नहीं है। एक भी सच्चरित्र और दृढ़ प्रतिज्ञ सत्याग्रही बड़े से बड़े साम्राज्य से टक्कर ले सकता है। स्वयं गांधीजी ने शक्तिशाली ब्रिटिश साम्राज्य से लोहा लिया था।

सत्याग्रही के गुण-'हिन्द स्वराज्य' में गांधीजी ने 1908 में सत्याग्रही के आवश्यक गुण सत्यनिष्ठा या ईमानदारी, निर्भयता, ब्रह्मचर्य, निर्धनता और अहिंसा बताए थे। सत्यनिष्ठा का अर्थ है कि सत्याग्रही कभी किसी छल, झूठ या चालाकी का आश्रय नहीं लेता है। ब्रह्मचर्य का अर्थ विषय-यासना के बन्धनों से मुक्त होना है। सत्याग्रही को निर्धनता का व्रत लेने की आवश्यकता है। अहिंसा सत्याग्रह का मूल है, इसका अर्थ है मन, वचन तथा कर्म से अहिंसा अर्थात्शत्रु को न तो मारना-पीटना, न तो कठोर वचन कहना और न मन से उसका बुरा सोचना हिन्द स्वराज्य में प्रतिपादित उपर्युक्त गुणों में गांधीजी ने कुछ अन्य गुणों की वृद्धि करके || गुणों का पालन और साधना आवश्यक बताई ये गुण निम्न हैं-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शरीर श्रम, अस्वाद, निर्भयता, सब धर्मों को समान दृष्टि से देखना, स्वदेशी तथा अस्पृश्यता निवारण
 सत्याग्रह के नियम- सत्याग्रह के शस्त्र का प्रयोग बड़ी सावधानी और बुद्धिमत्ता के साथ उस समय करना चाहिए, जब शान्तिपूर्ण रीति से अन्याय का प्रतिकार करने के अन्य साधनों का प्रयोग विफल हो चुका हो। इसमें अहिंसा का पालन पूर्ण रूप से आवश्यक है। इसका उद्देश्य विरोधी को हराना या नीचा दिखाना नहीं, किन्तु उसका हृदय परिवर्तन करके उसे अपने अनुकूल बनाना है। यह कार्य सत्याग्रही अपने ऊपर कष्ट झेल कर करता है।

सत्याग्रही के वैयक्तिक जीवन में गांधीजी ने प्रधान रूप से निम्नलिखित नियमों के पालन पर बल दिया था
(1) सत्याग्रही अपने मन में गुस्से को कोई स्थान नहीं देगा।
(2) वह विरोधियों के रोष को सहन करेगा।
(3) ऐसा करते हुए वह बदले की भावना से विरोधियों पर हाथ नहीं उठाएगा।
(4) जिस समय कोई अधिकारी सविनय आज्ञा भंग करने वाले को पकड़ने आएगा तो वह स्वयं गिरफ्तार हो जाएगा।
(5) यदि सत्याग्रही किसी सम्पत्ति का ट्रस्टी है तो वह इसे सरकार के कब्जे में देने से इनकार करेगा, भले ही उसके प्राण खतरे में पड़ जाएं।
(6) सविनय कानून भंग करने वाला विरोधियों का भी अपमान नहीं करेगा, ऐसा कोई नारा नहीं लगाएगा जो अहिंसा
के विरुद्ध हो।
(7) इस संघर्ष में यदि कोई किसी अधिकारी का अपमान करता है अथवा उस पर हमला करता है।

सत्याग्रह के विभिन्न रूप-गांधीजी ने भारत के राजनैतिक आन्दोलनों में सत्याग्रह का तीन रूपों में प्रयोग किया 
1. असहयोग आन्दोलन 
2. सविनय आज्ञा भंग 
3. व्यक्तिगत सत्याग्रह। 
सत्याग्रह के साधन-गांधीजी ने सामूहिक रूप से बड़े पैमाने पर सत्याग्रह के लिए निम्नलिखित साधनों के प्रयोग का परामर्श दिया है

1. असहयोग-किसी देश शासन उसकी सैनिक शक्ति पर नहीं अपितु जनता के सक्रिय सहयोग पर आधारित होता है। यदि जनता सरकार को यह सहयोग या समर्थन प्रदान न करे तो शासन सर्वथा निराधार होकर शीघ्र समाप्त हो जाएगा, किन्तु असहयोग के समय सत्याग्रही को सर्वथा अहिंसक होना चाहिए।
2. सविनय कानून भंग-दूसरा साधन सविनय कानून भंग करने का है। गांधीजी ने 1990 में सविनय अवज्ञा आन्दोलन चलाया था। इसके द्वारा अन्यायपूर्ण कानूनों की अवहेलना की जाती है।
3. उपवास-तीसरा साधन उपवास है। गांधीजी इसे सबसे अधिक प्रभावक अस्त्र मानते थे। उपवास के दो बड़े प्रयोजन आत्मशुद्धि तथा अन्याय व असल्य के विरुद्ध प्रतिकार है। गांधीजी ने अपने उपवासों से अस्पृश्यता की ओर हिन्दू-मुस्लिम एकता की समस्याओं का सराहनीय समाधान किया। 4. हिजरत या देश त्याग- वह बहुत पुराना साधन है। गांधीजी यह समझते थे कि जब किसी देश में शासक के अत्याचार असहय हो जाएँ, तो सत्याग्रही को वह स्थान छोड़कर चला जाना चाहिए।
5. धरना- धरना देकर बैठने का अर्थ है जब तक हमारी बात नहीं मानी जाएगी तब तक हम एक आसन पर स्थिर होकर बैठे रहेंगे। वे शान्तिपूर्ण रीति से धरना देने के पक्षपाती थे। 
6. हड़ताल- इसका आशय किसी अन्याय का प्रतिकार करने के लिए सारे व्यापार और कारोबार को तथा अन्य सभी दुकानों और कार्यालयों को बन्द रखना है।
7. सामाजिक बहिष्कार यदि कोई व्यक्ति समाज द्वारा जघन्य या बुरा समझे जाने वाले काम करता है तो उसकी जाति या बिरादरी उसके साथ सभी प्रकार का सामाजिक सम्पर्क रखना बन्द कर देती है, दूसरे शब्दों में इसे हुक्का - पानी बन्द करना कहते हैं। मनुष्य सामाजिक प्राणी है उस पर उसका प्रबल प्रभाव पड़ता है और वह समाज विरोधी कार्य छोड़ने के लिए बाध्य हो जाता है। डॉक्टर उसका इलाज करना बन्द कर दें तो गांधीजी की दृष्टि में ऐसा करना हिंसापूर्ण दबाव डालना है, किन्तु यदि ऐसे व्यक्ति को अपने सामाजिक समारोहों तथा पर्वो पर निमंत्रित न किया जाए तो ऐसा अहिंसक बहिष्कार सर्वथा न्यायोचित है।

सत्याग्रह तथा निष्क्रिय प्रतिरोध में अन्तर गांधीजी ने दक्षिण अफ्रीका में जब पहली बार सत्याग्रह का प्रयोग किया तो उसे निष्क्रिय प्रतिरोध का नाम दिया गया था, किन्तु सत्याग्रह और निष्क्रिय प्रतिरोध में अन्तर है और इसी कारण से आगे चलकर गांधीजी ने अपने आन्दोलनों के लिए सत्याग्रह शब्द ही उपयुक्त समझा।

सत्याग्रह और निष्क्रिय प्रतिरोध में निम्न अन्तर है

1. सत्याग्रही अहिंसा के सिद्धान्त को अपना मौलिक तत्त्व समझता है और किसी भी दशा में इसका परित्याग नहीं करता है, किन्तु निष्क्रिय प्रतिरोध में अपनी कमजोरी के कारण नीति के रूप में अहिंसा का पालन किया जाता है न कि मौलिक सिद्धान्त के रूप में।
2. निष्क्रिय प्रतिरोध में शत्रु को परेशान करने की भावना पर बल दिया जाता है, किन्तु सत्याग्रह में सत्याग्रही स्वयमेव अधिकतम कष्ट झेलता है।
3. निष्क्रिय प्रतिरोध निर्बलों का हथियार है और सत्याग्रह वीरों का।
4. निष्क्रिय प्रतिरोध द्वेषमूलक है, घृणा और अविश्वास पर टिका होता है, इसके विपरीत सत्याग्रह प्रेममूलक वह है शत्रु के प्रति प्रेम और उदारता के भाव रखता है। 
5. निष्क्रिय प्रतिरोध में रचनात्मक प्रवृत्ति या कार्यों के लिए कोई स्थान नहीं होता है जबकि सत्याग्रही अपने को सेव की भावना से प्रेरित होकर प्रीढ़ शिक्षा, मद्यपान निषेध ग्राम सेवा, राष्ट्र भाषा, प्रचार में लगा देता है।

गांधी विचारधारा : साधनों की श्रेष्ठता में विश्वास

गांधी विचारधारा नैतिक पवित्रता पर कितना वल देती है यह उनके धर्म, ईश्वर और सत्य की अवधारणा से एकदम स्पष्ट है। गांधीजी ने अपने जीवन में आध्यात्मिकता और नैतिकता को प्रधानता दी थी और वह प्रधानता उनके सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, आदि सभी प्रकार के विचारों में स्पष्ट झलकती है। गांधीजी का विचार था कि मनुष्य की सम्पूर्ण राजनीतिक आर्थिक एवं सामाजिक समस्याएँ अपने मूल रूप में नैतिक समस्याएँ हैं और इनका निराकरण तभी हो सकता है जब मनुष्य पवित्र आचरण एवं हृदय की शुद्धता पर अधिक बल दें। गांधीजी कहा करते थे कि साधन और साध्य एक दूसरे से चोली-दामन की तरह सम्बद्ध हैं और एक की अपवित्रता दूसरे को भी भ्रष्ट कर देती है। अतः यदि आपका साध्य उत्तम है तो उसे प्राप्त करने के साधन उतने ही उत्तम ढूँढे अन्यथा बुरे साधनों द्वारा प्राप्त हुए उसके अवगुण उसकी उत्तमता को फीका कर देंगे। उनकी दृष्टि में तो साधन ही साध्य का निर्माण करता है। जिस प्रकार वृक्ष और बीज में सम्बन्ध है उसी प्रकार साधन और साध्न में है।"
गांधीवाद का 'साधनों की पवित्रता' का यही विचार उसे मार्क्सवाद से भिन्न करता है।

गांधीजी के राजनीतिक विचार

गांधी, परम्परागत अर्थों में राजनीतिक दार्शनिक नहीं थे और न उन्होंने कभी ऐसा होने का दावा ही किया गांधीजी का राजनीतिक चिन्तन कर्म के दर्शन के माध्यम से, उद्देश्यों और साधनों का समन्वय स्थापित करने का प्रयत्न करता है। उनके प्रमुख राजनीतिक विचार इस प्रकार हैं

राज्य सम्बन्धी धारणा राज्य विहीन समाज

गांधीजी राज्य विरोधी थे। मार्क्सवादियों तथा अराजकतावादियों के समान वे एक राज्यविहीन समाज की स्थापना करना चाहते थे। वे दार्शनिक, नैतिक, ऐतिहासिक और आर्थिक कारणों के आधार पर राज्य का विरोध करते थे।
दार्शनिक आधार पर राज्य का विरोध करते हुए गांधीजी का विचार है कि राज्य व्यक्ति के नैतिक विकास का मार्ग प्रशस्त नहीं करता। व्यक्ति का नैतिक विकास उसकी आन्तरिक इच्छाओं और कामनाओं पर निर्भर है, लेकिन राज्य संगठन शक्ति पर आधारित होने के कारण व्यक्ति के केवल बाहरी कार्यों को ही प्रभावित कर सकता है।
राज्य के विरोध का एक कारण यह भी है कि वह हिंसा और पाशविक शक्ति पर आधारित है। राज्य कितना ही अधिक लोकतन्त्रात्मक क्यों न हो, उसका आधार सेना और पुलिस का पाश्विक बल है। राज्य के विरोध का तीसरा कारण इसके अधिकारों में निरन्तर वृद्धि होना है। इससे व्यक्ति के विकास में बड़ी बाधा पहुँच रही है।

गांधीजी : एक दार्शनिक अराजकतावादी

राज्य के सम्बन्ध में गांधीजी की विचारधारा अराजकतावादी दार्शनिक क्रोपाटकिन और विशेष रूप से दार्शनिक अराजकतावादी टॉलस्टॉय के विचारों से प्रभावित है। गांधीजी ने नैतिक, दार्शनिक और ऐतिहासिक तीनों दृष्टिकोणों के आधार पर राज्य की कटु आलोचना की है। गांधीजी राज्य को एक ऐसी हिंसक संस्था मानते हैं जिसका कार्य निर्धन वर्ग का शोषण करना है।
राज्य द्वारा नैतिकता का हनन किया जाता है, अतः या तो राज्य को समाप्त हो जाना चाहिए अन्यथा उसे व्यक्ति रूपी पुस्तक का अन्तिम अध्याय होना चाहिए।
गांधीजी के राज्यविहीन समाज में सभी व्यक्ति पूर्णतया अहिंसक होंगे। उनकी सभी आवश्यकताएँ पूरी होंगी-अतः अपराध नहीं होंगे। फिर पुलिस की आवश्यकता है ही नहीं। यदि कहीं छुट-पुट अपराध हुए तो उनका निर्णय ग्राम पंचायत कर लिया करेगी।
‘जीवन स्वच्छ, निर्मल और सादा होगा। न बड़े-बड़े नगर होंगे, न गन्दी बस्तियाँ न आधुनिक सभ्यता की तड़क-भड़क होगी और न उससे उत्पन्न रोग न बड़ी-बड़ी मशीनें होंगी और न ही मनुष्य का शोषण।"

सिद्धान्त रूप में राज्य के अस्तित्व के विरुद्ध होने पर भी गांधीजी वर्तमान परिस्थितियों में राज्य को समाप्त करने के पक्ष में नहीं थे। उनका विचार था कि वर्तमान समय में मानव जीवन इतना पूर्ण नहीं है कि वह स्वयं संचालित हो सके, इसीलिए समाज में राज्य और राजनीतिक शक्ति की आवश्यकता है, लेकिन इसके साथ-साथ ही उनका विचार है कि राज्य का कार्यक्षेत्र न्यूनतम होना चाहिए।

1. सत्ता का विकेन्द्रीकरण-गांधीजी के द्वारा सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण सुझाव राजनीतिक क्षेत्र में सत्ता के विकेन्द्रीकरण का दिया गया है। राजनीतिक क्षेत्र में सत्ता के विकेन्द्रीकरण से उनका अभिप्राय यह था कि ग्राम पंचायत को अपने गाँवों का प्रवन्ध और प्रशासन करने के सब अधिकार दे दिए जाएँ। इसके परिणामस्वरूप कुछ थोड़े से व्यक्ति राज्य की सत्ता पर एकाधिकार स्थापित कर लेते हैं और छल-कपट द्वारा उनके साधनों का प्रयोग अपनी स्वार्थ-सिद्धि के लिए करते हैं जिसे रोकने के उपाय सत्ता का विकेन्द्रीकरण ही हो सकता है।
2. प्रभुसत्ता का विरोध बहुलवादियों तथा अराजकतावादियों की भांति गांधीजी राज्य की ऐसी निरंकुश प्रभुसत्ता के विरोधी थे जिसके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति का प्रधान कर्तव्य आँख मूंदकर राज्य की आज्ञा का पालन करना है। इसके विपरीत गांधीजी विशुद्ध नैतिक सत्ता पर आधारित जनता की प्रभुसत्ता में विश्वास रखते थे। वे नैतिकता का विरोध करने वाले सभी कानूनों का प्रतिरोध करने का व्यक्ति को अधिकार ही नहीं प्रदान करते हैं, अपितु उसका यह कर्तव्य समझते हैं।
3. राज्य का न्यूनतम कार्यक्षेत्र-राज्यसत्ता की बुराइयों को दूर करने के लिए गांधीजी का सुझाव था कि राज्य का कार्यक्षेत्र न्यूनतम होना चाहिए। उसके द्वारा व्यक्ति के जीवन में कम-से-कम हस्तक्षेप होना चाहिए। उनका कहना था कि स्वराज्य का अर्थ यह है कि व्यक्ति की सरकार के नियंत्रण से स्वतंत्र होने का निरंतर प्रयत्न करना चाहिए चाहे वह सरकार विदेशी हो या राष्ट्रीय 

आदर्श राज्य: अहिंसात्मक राज्य

गांधीजी ने प्लेटो के समान ही दो आदर्शों का वर्णन किया है प्रथम, पूर्ण आदर्श, जिसे वे 'राम-राज्य' कहते हैं और द्वितीय, उप-आदर्श, जिसे वे अहिंसात्मक समाज कहकर पुकारते हैं। उनकी पूर्ण आदर्श सामाजिक व्यवस्था के अन्तर्गत राज्य के लिए। कोई स्थान नहीं। वे राज्यविहीन समाज की स्थापना करना चाहते थे। इसलिए उनके द्वारा व्यावहारिक दृष्टिकोण से उप-आदर्श की कल्पना की गई है। उनके उप-आदर्श राज्य (अहिंसात्मक राज्य) की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं
1. अहिंसात्मक समाज-गांधीजी अपने आदर्श राज्य को अहिंसात्मक समाज के नाम से भी पुकारते हैं। गांधीजी के  इस आदर्श समाज में राज्य संस्था का अस्तित्व रहेगा और पुलिस जेल, सेना तथा न्यायालय, आदि शासन की बाध्यकारी सत्ताएँ भी होंगी। फिर भी यह इस दृष्टि से अहिंसक समाज है कि इसमें इन सत्ताओं का प्रयोग जनता को आतंकित और उत्पीड़ित करने के लिए नहीं वरन् उसकी सेवा करने के लिए किया जाएगा।
2. शासन का लोकतांत्रिक स्वरूप-गांधीजी के आदर्श समाज में शासन का रूप पूर्णतया लोकतांत्रिक होगा। जनता को न केवल मत देने का अधिकार प्राप्त होगा वरन् जनता सक्रिय रूप से शासन के संचालन में भी भाग लेगी। 
3. विकेन्द्रीकृत सत्ता-गांधीजी के आदर्श राज्य का एक प्रमुख लक्षण विकेन्द्रीकृत सत्ता है। गांधीजी सम्पूर्ण भारत में प्राचीन ढंग से स्वतन्त्र और स्वावलम्बी ग्राम समाजों की स्थापना करना चाहते थे, जिसका आधार ग्राम पंचायतें होंगी। विकेन्द्रीकरण को और अधिक सफल बनाने के लिए गांधीजी का सुझाव था कि ग्राम पंचायतों का निर्वाचन तो प्रत्यक्ष रूप से हो, लेकिन ग्राम के ऊपर जो भी प्रशासनिक इकाइयाँ हों, जैसे प्रादेशिक सरकार, राष्ट्रीय सरकार, आदि के विधान मण्डलों का चुनाव अप्रत्यक्ष प्रणाली से हो जिससे सत्ता का समस्त केन्द्र ग्राम पंचायतें ही बनी रहें।
4. आर्थिक क्षेत्र में विकेन्द्रीकरण-गांधीजी के आदर्श राज्य में आर्थिक क्षेत्र में विकेन्द्रीकरण को अपनाने का सुझाव दिया गया है। विशाल तथा केन्द्रीयकृत उद्योग लगभग समाप्त कर दिए जाएंगे और उनके स्थान पर कुटीर उद्योग चलाए जाएँगे। हर गाँव अपनी आवश्यकता की वस्तुएँ स्वयं उत्पन्न करेगा और प्रत्येक व्यक्ति अपने उत्पादन के साधनों का स्वयं स्वामी होगा। इस प्रकार आर्थिक क्षेत्र में प्रतिस्पर्द्धा और शोषण का अन्त हो जाएगा।
5. ना गरिक अधिकारों पर आधारित गांधीजी का आदर्श समाज स्वतंत्रता, समानता तथा अन्य नागरिक अधिकारों पर आधारित होगा। इस समाज में प्रत्येक व्यक्ति को अपने विचार व्यक्त करने और समुदायों के निर्माण की स्वतंत्रता होगी। 
6. निजी सम्पत्ति का अस्तित्व इस आदर्श राज्य में निजी सम्पत्ति की प्रथा का अस्तित्व होगा, किन्तु सम्पत्ति के स्वामी अपनी सम्पत्ति का प्रयोग निजी स्वार्थ के लिए नहीं वरन् समस्त समाज के कल्याण के लिए करेंगे।
7. प्रत्येक व्यक्ति के लिए श्रम अनिवार्य-इस आदर्श समाज में प्रत्येक व्यक्ति के लिए अपने भरण-पोषण हेतु भ्रम करना अनिवार्य होगा। कोई भी मनुष्य अपने निर्वाह के लिए दूसरों की कमाई हड़पने का प्रयत्न नहीं करेगा और बौद्धिक श्रम करने वाले व्यक्तियों के लिए भी थोड़ा-बहुत शारीरिक श्रम करना अनिवार्य होगा।
8. वर्ण व्यवस्था-गांधीजी का आदर्श समाज वर्ण व्यवस्था पर आधारित होगा। प्राचीन काल की भांति समाज चार वर्गों में विभाजित होगा। प्राचीन काल की भांति समाज चार वर्गों में विभाजित होगा-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र
9. अस्पृश्यता का अन्त गांधीजी अस्पृश्यता को भारतीय समाज के लिए कलंक मानते थे और उनके आदर्श समाज में अस्पृश्यता के लिए कोई स्थान नहीं था।
10. धर्म निरपेक्ष समाज- इस समाज में किसी एक विशेष धर्म को राज्य का आश्रय प्राप्त नहीं होगा। राज्य की दृष्टि में सभी धर्म समान होंगे और सभी धर्मों के अनुयायियों को समान सुविधाएं प्राप्त होंगी। 
11. गौवध निषेध-गांधीजी भारत जैसे राज्य में धार्मिक तथा आर्थिक दोनों ही दृष्टि से गाय की रक्षा को बहुत अधिक आवश्यक मानते थे। इसलिए उनके द्वारा अपने आदर्श समाज में गौ-हत्या का निषेध किया गया है।
12. मय निषेध-गांधीजी का निश्चित विचार था कि मद्य और अन्य मादक पदार्थों का प्रयोग व्यक्तियों का चारित्रिक पतन करता है। अतः उनके आदर्श समाज में मादक पदार्थों का न तो उत्पादन होगा न उनकी विक्री। 
13.. निःशुल्क प्राथमिक शिक्षा-गांधीजी के आदर्श समाज में गाँव-गाँव में बुनियादी तालीम देने के लिए स्वावलम्बी पाठशालाएँ होंगी, जिससे प्रत्येक व्यक्ति को कम-से-कम प्राथमिक शिक्षा निःशुल्क प्रदान की जाएगी।
14. पुलिस और सेना-गांधीजी मानते थे कि सभी व्यक्ति अहिंसावादी नहीं हो सकते। समाज-विरोधी तत्त्वों का दमन करने के लिए पुलिस की आवश्यकता यदा-कदा पड़ती है, परन्तु आधुनिक पुलिस से उसका स्वरूप भिन्न होगा। आदर्श राज्य की पुलिस जनता की वास्तविक सहायता और सेवक होगी व्यक्ति नौकरी पाने के लिए नहीं अपितु जनता की सेवा की भावना से पुलिस में भर्ती होंगे। 

आदर्श राज्य में डॉक्टरों की लम्बी-चौड़ी फौज की आवश्यकता नहीं होगी कार्य करने की परिस्थितियाँ स्वस्थ होंगी। बड़े-बड़े नगर और मशीनें नहीं होंगी। रोग और गन्दगी का अभाव होगा। फिर भी यदि कुछ डॉक्टर हुए तो ये समाज सेवी होंगे, धन-लोलुप नहीं। 

गांधीजी के आदर्श राज्य की व्यावहारिकता 

गांधीजी का अहिंसक समाज क्या इस पृथ्वी पर सम्भव है? अथवा उनका चिन्तन प्लेटो की भांति कल्पना लोक का ही विषय है? गांधीजी स्वयं मानते थे कि उनके आदर्श समाज की स्थापना पूर्ण रूप से कभी सम्भव नहीं है।

व्यक्ति का साध्य तथा राज्य का साधन होना 

गांधीजी यह मानते थे कि राज्य अपने आप में कोई साध्य नहीं है, अपितु व्यक्तियों को जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अपनी परिस्थितियों को उत्कृष्ट बनाने में सहायता देने का साधन है। व्यक्ति राज्य के लिए नहीं अपितु राज्य व्यक्ति के लिए है।

संसदीय शासन, प्रतिनिधित्व और बहुमत शासन

गांधीजी ने ब्रिटिश संसद की आलोचना करते हुए इसकी तुलना 'बांझ और वेश्या' से की है। उनके अनुसार, "वह वेश्या इसलिए है कि जो मन्त्रिमण्डल वह बनाती है, उसके वश में रहती है। आज उसके स्वामी एस्क्विथ है, कल बालफोर तथा परसों कोई और.... । किन्तु इससे यह नहीं समझना चाहिए कि वे प्रतिनिधि संस्थाओं और चुनावों के विरोधी थे। गांधीजी ने चुनाव के लिए खड़े होने वाले उम्मीदवारों के लिए बड़ी कड़ी योग्यताएँ प्रस्तावित की हैं। उनके मतानुसार उन्हें स्वार्थरहित, योग्य तथा भ्रष्टाचार से मुक्त आत्म-विज्ञापन से दूर रहने वाला, पद-लोलुपता से रहित तथा छिद्रान्वेषण के दूषण से मुक्त होना चाहिए। वोट प्रचार द्वारा नहीं, बल्कि सेवा द्वारा प्राप्त किए जाने चाहिए।

लोकतंत्र की एक विशेषता बहुमत द्वारा शासन है, किन्तु गांधीजी के मतानुसार इसका यह अभिप्राय नहीं है कि बहुमत सदैव अन्य मत की अवहेलना करे। लोकतंत्र ऐसा शासन नहीं है कि जिसमें जनता भेड़-चाल का अनुसरण करे। गांधीजी इस बात पर भी बल देते थे कि बहुमत को अल्पसंख्यकों के प्रति उदार होना चाहिए और अल्पमत पर बहुमत का अत्याचार नहीं होना चाहिए।

अधिकार और कर्तव्य

गांधीवादी दर्शन में मानव अधिकार और कर्तव्य का भी प्रतिपादन किया गया है। उनका विचार था कि भारत के प्रत्येक व्यक्ति को विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता संगठन की स्वतंत्रता व धर्म और अन्तःकरण की स्वतंत्रता प्राप्त होनी चाहिए। अल्पमतों को अपनी संस्कृति, भाषा और लिपि का अधिकार प्राप्त होना चाहिए।
मानव अधिकारों की इस प्रकार की सूची को देखते हुए गांधीवादी दर्शन अधिकारों की अपेक्षा कर्तव्यों पर अधिक बल देता है। वास्तव में कर्तव्यपालन से ही अधिकारों की प्राप्ति होती है।

राष्ट्रवाद और अन्तर्राष्ट्रवाद

यद्यपि गांधीजी मानवतावादी विचारक थे और उनका दृष्टिकोण 'वसुधैव कुटुम्बकम्' का था, किन्तु इसके साथ ही वे राष्ट्र और राष्ट्रवाद के समर्थक थे। उनका कथन था कि मानव जाति के विकास में सार्वजनिक जीवन के अनेक स्तर देखने को मिलते हैं जैसे परिवार, जाति, गाँव, प्रदेश और राष्ट्र अतः व्यक्ति का सामाजिक कर्तव्य परिवार से आरम्भ होता है और मानवता की सेवा तक पहुंचता हैं पहले की सामाजिक इकाइयों के प्रति अपने कर्तव्य का पालन न कर मानवता की सेवा की बात करना अपने उत्तरदायित्व से विमुख होना है।

अपनी उपर्युक्त विचारधारा के आधार पर गांधीजी का कथन था कि प्रत्येक व्यक्ति के अपने देश के प्रति कुछ विशेष कर्तव्य होते हैं, जिन्हें उसके द्वारा आवश्यक रूप से पूरा किया जाना चाहिए। वे तो एक रचनात्मक और मानवतावादी राष्ट्रीयता के उपासक थे, जिसके आधार पर ही अन्तर्राष्ट्रीयवाद के लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है। गांधीजी राष्ट्रवाद को अन्तर्राष्ट्रवाद के मार्ग की एक बाधा नहीं समझते थे और उनका विचार था कि अन्तर्राष्ट्रवाद और विश्व बन्धुत्व के लिए राष्ट्रीयता आधार पर कार्य करती है।

भारत के स्वाधीनता संग्राम के नेतृत्व में भी राष्ट्रीयता और अन्तर्राष्ट्रीयता की यह अन्योन्याश्रितता ही महात्मा गांधी का मार्गदर्शक रही। उन्होंने राष्ट्रीयता को कभी भी संकीर्ण स्वार्थी और एकाकी अर्थों में ग्रहण नहीं किया और भारत के राष्ट्रीय संघर्ष में उन्होंने मानवता के व्यापक हितों की अवहेलना कभी नहीं की।

इसके अतिरिक्त गांधीजी स्वावलम्बी और स्वाधीन इकाइयों के समर्थक होते हुए भी अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में आत्मनिर्भरता को परम आवश्यक मानते थे और चाहते थे कि विश्व के राष्ट्र आत्मनिर्भरता की आत्मघातक नीति को छोड़कर अन्तर्निर्भर रहते हुए विश्य संघ की स्थापना करें।

गांधीजी के आर्थिक विचार

राजनीति के समान ही अर्थ व्यवस्था के सम्बन्ध में गांधीजी का विचार था कि सच्चा अर्थशास्त्र नैतिकता के महान नियमों के प्रतिकूल हो ही नहीं सकता है सच्चा अर्थशास्त्र सामाजिक न्याय चाहता है। वह प्रत्येक व्यक्ति का गांधीजी के प्रमुख आर्थिक विचार इस प्रकार है
(i) औद्योगीकरण का विरोध-गांधीजी के द्वारा औद्योगिक क्रान्ति और उसके परिणामस्वरूप उत्पन्न केन्द्रीकृत अर्थ-व्यवस्था का विरोध किया गया है। बड़े उद्योगों की स्थापना के लिए कच्चे माल और बहुत बड़ी मात्रा में निर्मित पदार्थों के विक्रय के लिए बड़े बाजारों की आवश्यकता होती है। गांधीजी बड़ी मशीनों को मानव जाति के लिए अभिशाप मानते थे और उनका विचार था कि समाज में घृणा, द्वेष और स्वार्थ में जो वृद्धि दिखाई देती है वह सब मशीनों का ही फल है।
(ii) कुटीर उद्योगों का समर्थन-गांधीजी के द्वारा औद्योगीकरण का विरोध करते हुए कुटीर उद्योग-धन्धों पर आधारित एक ऐसी विकेन्द्रित अर्थ व्यवस्था काक प्रतिपादन किया गया, जिसके अन्तर्गत प्रत्येक गाँव एक आर्थिक इकाई के रूप में कार्य करेगा। वे खादी को भारत की राजनीति एवं आर्थिक समस्याओं का अमोघ हल मानते थे और उनके द्वारा आर्थिक क्षेत्र में स्वदेशी के विचार का प्रतिपादन किया गया। 
(iii) अपरिग्रह का सिद्धान्त आर्थिक अन्याय और असमानता को दूर करने के लिए गांधीजी का एक अन्य विचार यह है कि जीवन में अपरिग्रह के सिद्धान्त को अपनाया जाना चाहिए। गांधी जी का मत था कि प्रकृति स्वयं उतना उत्पादन करती है, जितना सृष्टि के लिए आवश्यक है इसलिए वितरण का प्राकृतिक नियम यह है कि प्रत्येक केवल अपनी आवश्यकता भर के लिए प्राप्त करे और अनावश्यक संग्रह न करे।
(iv) वर्ग सहयोग की धारणा आर्थिक क्षेत्र में गांधीजी का एक अन्य विचार वर्ग सहयोग की धारणा है। गांधीवाद साम्यवादी दर्शन की वर्ग संघर्ष की धारणा में विश्वास नहीं करता। गांधीजी का विचार या कि श्रमिक और पूंजीपति के हित परस्पर विरोधी नहीं होते वरन् एक ही होते हैं और उनके द्वारा सामूहिक प्रयत्नों के आधार पर उद्योग के विकास का प्रयत्न किया जाना चाहिए। इस प्रकार आर्थिक क्षेत्र में गांधीवाद वर्ग सहयोग की धारणा का प्रतिपादन करता है।
(v) संरक्षकता का सिद्धान्त-महात्मा गांधी आर्थिक विषमताओं का अन्त करने के पक्ष में थे, लेकिन वे आर्थिक समानता स्थापित करने के साम्यवादी ढंग से सहमत नहीं थे, जिसके अन्तर्गत धनिकों से उनका धन बलपूर्वक छीनकर उसका सार्वजनिक हित में प्रयोग करने की बात कही जाती है। इस सम्बन्ध में गांधीजी का विचार था कि यदि सत्य और अहिंसा के आधार पर सार्वजनिक हित के लिए व्यक्तिगत सम्पत्ति ली जा सके तो ऐसा अवश्य ही किया जाना चाहिए।

इस सम्बन्ध में गांधीजी ने ट्रस्टीशिप के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। इसका यह मतलब है कि धनी व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं से अधिक जमीन, जायदाद, कारखाने तथा विविध प्रकार की सम्पत्ति का अपने को स्वामी न समझे अपितु इसे समाज की अमानत या धरोहर माने, उसका उपयोग अपने लाभ के लिए नहीं अपितु समाज के कल्याण के लिए करे। गांधीजी का यह सिद्धान्त अपरिग्रह के विचार पर आधारित है। संसार की सभी वस्तुओं पर ईश्वर का स्वामित्व है, मनुष्य को अपने परिश्रम और आवश्यकतानुसार इसमें से अपना हिस्सा लेने का अधिकार है। अतः वह किसी भी प्रकार की सम्पत्ति का स्वामी नहीं अपितु उसका संरक्षक मात्र है।

गांधीजी के ट्रस्टीशिप सिद्धान्त के अनुसार धनी लोगों को स्वेच्छापूर्वक यह समझना चाहिए कि उनके पास जो धन है, वह समाज की धरोहर है वे उसमें से केवल अपने निर्वाह के लिए आवश्यक धनराशि ले सकते हैं। शेष सारी धनराशि उन्हें समाज की दृष्टि से हितकर कार्यों में लगा देनी चाहिए। अतः धनिक वर्ग अपनी फालतू सम्पत्ति को ऐसे उद्योग-धन्धों में लगाए, जिनसे साधारण जनता को रोजगार मिल सके। उन्हें दूसरों को काम देकर तथा उत्पादन बढ़ाकर अपनी पूँजी का सदुपयोग सार्वजनिक हित के कल्याण एवं वृद्धि के लिए करना चाहिए। ये इसे तालाव, विद्यालय, चिकित्सालय आदि बनाने के जनकल्याणकारी कार्यों में भी लगा सकते हैं।

क्या गांधी अराजकतावादी थे?

गांधी को कभी-कभी अराजकतावादी माना गया है। अराजकतावादियों के समान गांधी राज्य की शक्ति में अत्यधिक वृद्धि को आशंका की दृष्टि से देखते थे और व्यक्ति की अधिक से अधिक स्वतंत्रता में उनकी आस्था थी, परन्तु व्यक्ति के सम्बन्ध में गांधी का दृष्टिकोण अराजकतावादी दृष्टिकोण से बिल्कुल भिन्न था गांधी व्यक्ति को मूलतः एक ऐसा सामाजिक प्राणी मानते थे जिसके सम्बन्ध राज्य के साथ न सही, समाज के साथ अविच्छिन्न और अटूट है। अराजकतावादियों की दृष्टि में व्यक्ति के अधिकार ही सबकुछ थे समाज के साथ किसी भी प्रकार के सम्बन्ध उनकी दृष्टि में हिंसा पर आधारित थे, जबकि अराजकतावादियों ने राज्य के द्वारा की जाने वाली हिंसा को गलत माना है, परन्तु राज्य को नष्ट करने के लिए हिंसा के प्रयोग में अपनी आस्था प्रकट की है, गांधी की दृष्टि में सभी प्रकार की हिंसा, चाहे वह राज्य के द्वारा काम में लाई गई हो अथवा व्यक्ति के द्वारा, अनुचित थी। दूसरे प्रकार के अराजकतावादियों और गांधी के दृष्टिकोण भी मूलतः नैतिक था, परन्तु गांधी ने राज्य की ऐसी कार्यवाही की, जो जनता के कल्याण के लिए की गई हो, तिरबकसार की दृष्टि से नहीं देखा, बल्कि उसका स्वागत किया।

गांधी ने न राज्य को अस्वीकार किया और न राजनीति को अराजकतावादियों का लक्ष्य राज्य को नष्ट करना था, उसका पुनर्निर्माण नहीं, गांधी का प्रमुख लक्ष्य हिंसा और शोषण के आधार पर स्थापित वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था को अहिंसात्मक साधनों के द्वारा, धीरे-धीरे तोड़ना और उसके स्थान पर एक ऐसी राजनीतिक व्यवस्था की स्थापना करना था जो समाज के प्रत्येक व्यक्ति के इच्छापूर्वक सहयोग पर आधारित हो और जिसका लक्ष्य प्रत्येक व्यक्ति का कल्याण हो

क्या गांधीजी एक व्यावहारिक दार्शनिक हैं?

कतिपय विचारक और आलोचक गांधीजी को आदर्शवादी तथा कल्पनालोक में विचरण करने वाला सन्त कहते हैं। उनके विचार कोरे, धोघे आदर्श हैं। सत्य, अहिंसा, सत्याग्रह का प्रयोग वर्तमान परिस्थितियों में असम्भव है। नैतिकता और धर्म का प्रयोग आज की शक्ति-राजनीति में असम्भव हैं।

यह तो स्वीकार करना ही पड़ेगा कि गांधीजी व्यावहारिक थे। उनका अहिंसा का सिद्धान्त बड़ा व्यावहारिक है और जैन दर्शन की भांति अव्यावहारिक नहीं है। कतिपय परिस्थितियों में उन्होंने हिंसा को अनिवार्य बताया। उनका सत्याग्रह का सिद्धान्त अव्यावहारिक कैसे हो सकता है? राजनीतिक और आर्थिक शक्तियों का विकेन्द्रीकरण आज एक आवश्यकता के रूप में सभी देश अपनाते जा रहे हैं। गांधीजी राज्य के विरोधी थे, किन्तु अहिंसात्मक समाज में राज्य के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं।

वर्तमान में गांधीवाद की संगति एवं देन

लार्ड बॉयड आर. के अनुसार, "मेरे विचार से अब वह समय आ गया है जब गांधीजी द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों को विश्वव्यापी स्तर पर व्यवहार में लाना चाहिए, इनका प्रयोग अवश्य करना चाहिए। इनका प्रयोग अवश्य किया जाएगा, क्योंकि जनता यह अनुभव करती है कि इसके सिवाय विनाश से परित्राण की कोई आशा नहीं है।" वर्तमान में गांधीवाद संगत है। युद्ध व संघर्ष से त्रस्त विश्व राजनीति को बचाने का यही एकमात्र उपाय है। वैचारिक संघर्ष में न पड़कर विश्व को सर्वोदय का सन्देश गांधीजी की महत्त्वपूर्ण देन है। स्वीडन के प्रसिद्ध अर्थशास्त्री गुन्नार मिर्डल के मत में भारत के उद्धार और आर्थिक प्रगति का एकमात्र मार्ग गांधीवाद है बेकारी की समस्या का निदान कुटीर उद्योगों की व्यवस्था से किया जा सकता है। संक्षेप में गांधीवाद असंगत नहीं है। यह एक शाश्वत दर्शन है और इसका व्यवहार में प्रयोगकिया जा सकता है।