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मानवेन्द्र नाथ रॉय की जीवनी एवं विचार/Biography and Thoughts of Manvendra Nath Roy

मानवेन्द्र नाथ रॉय

मानवेन्द्र नाथ रॉय का भारत के समाजवादी चिन्तकों में सर्वप्रमुख स्थान है। वे भारत में न केवल समाजवाद के सैद्धान्तिक व्याख्याकार के रूप में जाने जाते हैं अपितु साम्यवाद के प्रचार और प्रसार की दृष्टि से भी उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। जहाँ एक ओर जिस प्रबलता से उन्होंने साम्यवाद का समर्थन किया उतनी ही प्रथलता से उन्होंने अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में उसका विरोध भी किया। राव ने भौतिकवाद की भी नई व्याख्या की और इसे एक नैतिक पुट प्रदान किया। व्यक्ति की स्वतन्त्रता और समानता का जयघोष करके उन्होंने व्यक्ति की गरिमा को आगे बढ़ाया।

रॉय की रचनाएँ तथा विचारधारा

एम.एन रॉय न केवल एक राजनीतिक कार्यकर्ता थे अपितु एक विचारक एवं लेखक भी थे। उन्होंने कई पुस्तकें लिखीं। 1922 में रॉय ने अपनी पुस्तक 'इण्डिया इन ट्रांजीशन' में समकालीन भारत का समाजशास्त्रीय अध्ययन प्रस्तुत किया। माण्टेग्यू दृष्टिकोण के समर्थक भारत के लिए उत्तरदायी शासन के मन्द तथा क्रमिक विकास में विश्वास करते थे। भारतीय उदारवादियों को ब्रिटिश न्यायप्रियता में विश्वास था और तीसरा गुट अतिवादियों तथा राष्ट्रवादियों का था। उन्होंने भविष्यवाणी की कि भविष्य में भारतीय राष्ट्र भारतीय समाज में निहित प्रगतिशील शक्तियों के अपरिवर्तनशील विकास के द्वारा निर्मित होगा। रॉय ने अपनी पुस्तक में तीन विषयों की विवेचना की। भारतीय पूँजीपति वर्ग का उदय, कृषक जनता का दरिद्रीकरण तथा नगरीय सर्वहारा की निर्धनता राय ने बताया कि बृहद उद्योग ही भारत के भविष्य का निर्धारण करेगा। औद्योगिक विकास से मजदूरों की संख्या तथा शक्ति में अनिवार्यतः वृद्धि होगी।

1922 के अन्त में राव ने 'इण्डियाज प्राब्लम्स एण्ड देयर सोल्यूशन नामक पुस्तक प्रकाशित की राय ने बताया कि असहयोग आन्दोलन मध्यम वर्ग की विचारधारा से अनुप्रेरित है और उसमें कोई क्रान्तिकारी कार्यक्रम नहीं है। 1923 में रॉय ने 'वन इयर ऑफ नान को ऑपरेशन नामक पुस्तक प्रकाशित की। इसमें उन्होंने महात्मा गांधी को ऋषि तुल्य व्यक्तित्व मानते हुए उनकी तुलना सन्त थॉमस एक्वीनास से की। उन्होंने गांधीजी के 4 रचनात्मक योगदान स्वीकार किए (1) राजनीतिक लक्ष्यों के लिए सामूहिक कार्यवाही का प्रयोग, (2) राजनीतिक कार्यवाही में धार्मिक सिद्धान्तों को समाविष्ट करना, (5) चरखे का प्रतिक्रियावादी अर्थशास्त्र, आदि। उनके शब्दों में गांधीवाद, क्रान्तिवाद नहीं है बल्कि निस्तेज सुधारवाद है।

1926 में रॉय ने 'दि फ्यूचर ऑफ इण्डियन पॉलिटिक्स' नामक पुस्तक लिखी जिसमें उन्होंने एक जनवादी पार्टी का महत्त्व प्रतिपादित किया। साम्यवादी होने के नाते राय सर्वहारा को राष्ट्रीय मुक्ति की शक्तियों का अग्रदल मानते थे किन्तु उनका कहना था कि भारत में अन्य ऐसे सामाजिक वर्ग हैं जो संख्या की दृष्टि से विशाल है अतः उनका भी ध्यान रखना आवश्यक है। इसलिए वे चाहते थे कि जमींदारों तथा पूंजीपतियों को छोड़कर जन समुदाय को राष्ट्रवाद का आधार बनाना चाहिए। इसके अतिरिक्त अपनी पुस्तक 'प्लटी और पावर्टी में उन्होंने नियोजित आर्थिक विकास की योजना का समर्थन किया रॉय की अन्य प्रमुख रचनाएँ हैं-न्यू ट्यूमनिज्म, मेटरियालिज्म, साइंटीफिक पॉलीटिक्स, नेशनलिज्म एण्ड डेमोक्रेसी, व्हाट इज मासिज्म, फासीज्म आदि।

एम. एन. रॉय के राजनीतिक विचार


रॉय का राजनीतिक दर्शन दो भागों में विभाजित किया जा सकता है- पहला भाग उनके उन विचारों से संबंधित है जब वे कट्टर मार्क्सवादी थे तथा दूसरा भाग उन विचारों से सम्बन्ध रखता है जब वे मार्क्सवाद के विरोधी बन गए और उन्होंने नव-मानवतावाद की स्थापना की।

एम.एन. रॉय के प्रमुख राजनीतिक विचार निम्न प्रकार हैं

1. वैज्ञानिक राजनीति एम. एन. रॉय का राजनीतिक दर्शन पूर्णतया वैज्ञानिक चिन्तन पर आधारित है। उन्होंने आध्यात्मवाद के स्थान पर भीतिकवाद तथा समाजवाद को विशेष महत्व दिया। रॉय के अनुसार धर्म ने एक लम्बे समय तक मानव मस्तिष्क को नियंत्रित किया तथा धार्मिक आडम्बरों में उसे फंसाये रखा। यद्यपि उन्होंने बौद्ध, ईसाई तथा इस्लाम धर्म को सामाजिक क्रान्ति लाने के प्रयासों का श्रेय दिया फिर भी वे यह मानते हैं कि इन धर्मों के प्रवर्तकों के बाद उनके अनुयायियों ने भक्तों के धार्मिक विश्वास, अज्ञानता तथा निर्धनता का लाभ उठाकर उनका शोषण किया। इन सम्प्रदायों के पास अत्यधिक मात्रा में जमीन तथा धन-सम्पदा उपलब्ध होने के कारण वे वैभवशाली बन गए। उनके आर्थिक वैभव के सामने साधारण मानव को झुकना पड़ा। किन्तु रॉय के अनुसार भौतिकवाद के बढ़ते हुए प्रभाव ने इस धार्मिक एकाधिकार को चुनौती दी और उसे सीमित किया। मानववाद के उदय ने ईश्वर को चुनौती दी और उसे सीमित किया। मानववाद के उदय ने ईश्वर को चुनौती दी तथा पुनर्जागरण और सुधार युग ने धार्मिक विश्वास को झकझोर दिया। धर्म का व्यक्ति पर नियन्त्रण शिथिल हो गया। सामाजिक व्यवहार में परिवर्तन आया तथा आध्यात्मवाद द्वारा उत्पन्न निराशावाद एवं तर्कहीनता समाप्त होने लगी।

संक्षेप में, रॉय वैज्ञानिक राजनीति की सम्भावनाओं की स्वीकार करते थे। वे यह भी चाहते थे कि राजनीति एक जीवन दर्शन द्वारा निर्दिष्ट होनी चाहिए। किन्तु उनकी कल्पना की वैज्ञानिक राजनीति का अर्थ हॉब्स अथवा स्पिनोजा की वैज्ञानिक राजनीति से भिन्न था। इन दोनों पाश्चात्य विचारकों ने वैज्ञानिक पद्धति पर अधिक बल दिया है। स्पिनोजा मानव के मनोवेगों के नियमों के अध्ययन में रेखिकी की पद्धति को समाविष्ट करने के पक्ष में था। इस प्रकार हॉब्स तथा स्पिनोजा के अनुसार वैज्ञानिक राजनीति को रेखीय विज्ञान के आदर्श पर आधारित करके निर्मित किया जा सकता है। वैज्ञानिक राजनीति से उनका अभिप्राय राजनीतिक प्रस्थापनाओं की उस व्यवस्था से है जो परस्पर विरोधी विचारधाराओं का अनुसरण करने वालों की वर्ग प्रकृति की स्वीकृति पर आधारित हो। अतः उनकी भावना थी कि वैज्ञानिक राजनीति भौतिकवादी ब्रह्माण्डशास्त्र के आधार पर ही निर्मित की जा सकती है। 
2. भौतिकवाद - रॉय भौतिकवादी थे। उनकी दृष्टि में भौतिकवाद प्रकृति के यथार्थ ज्ञान का प्रतिनिधित्व करता है तथा प्रकृति से मानव का तादात्म्य स्थापित करता है। लेनिन की भांति रॉय का भी विश्वास था कि विज्ञान तथा दर्शन की प्रगति ने भौतिकवादी सिद्धान्त की पुष्टि की है। नील बोहर का परमाणु सिद्धान्त, ओ.डी. ब्रोग्ली का प्रकाश सिद्धान्त भौतिकवाद की मूल प्रस्तावनाओं का खण्डल नहीं करते। किन्तु भौतिकवादी होते हुए भी रॉय द्वन्द्ववाद के आलोचक थे। चूँकि भौतिकवाद के साथ अनेक भ्रान्तियों का सहयोग है इसलिए रॉय उसे भौतिकीय यथार्थवाद का नाम देना चाहते थे। वे राजनीति में नैतिकता को कोई स्थान नहीं देना चाहते थे, फिर भी उन्हें मैकियावली का अनुयायी नहीं कह सकते।

रॉय का रोमांटिक क्रान्तिवाद

अपने चिन्तन के प्रारंभिक काल में एम.एन. राय एक रोमांटिक क्रान्तिकारी कहे जा सकते हैं। उन पर आनन्दमठ और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का विशेष प्रभाव पड़ा तथा अन्य आतंकवादियों के समान वे भी यह विश्वास करने लगे कि आतंकवादी उपायों से अंग्रेजों को भारतीयों के हाथों में सत्ता सौंपने के लिए बाध्य किया जा सकता है। रॉय का विचार था कि इन बातों के लिए भगवत गीता अनुमति देती है। महाभारत में कृष्ण ने अर्जुन को सलाह दी कि अपने भाइयों और सम्बन्धियों के विरुद्ध हथियार उठाने में उसे कोई हिचक नहीं करनी चाहिए और नैतिकता के परम्परागत नियमों को तिलांजलि दे देनी चाहिए। तत्कालीन आतंकवादी रॉय के इन विचारों से प्रभावित हुए तथापि यह क्रान्तिकारी आन्दोलन बुद्धिजीवियों को प्रभावित न कर सका क्योंकि इस आन्दोलन में सामाजिक-आर्थिक कार्यक्रम का अभाव था। यह सिद्धान्त में केवल रोमांटिक था और व्यवहार में केवल चन्द्र आभा 

रॉय द्वारा मार्क्सवाद की आलोचना

एम.एन. रॉय ने अपने जीवन के कई वर्ष एक कट्टर मार्क्सवादी के रूप में बिताये। प्रारम्भ में उन्होंने मार्क्स के व्यक्तित्व की भूरि-भूरि प्रशंसा की।

रॉय का मार्क्सवादी स्वरूप सदा एक सा नहीं रहा बल्कि समय के साथ उसमें परिवर्तन आए गए। जब वे अमरीका में थे तो मार्क्सवाद के प्रति उनका आकर्षण बढ़ने लगा। जब अमरीका से उन्होंने मैक्सिको से पलायन किया तो बिना किसी हिचक के उन्होंने रूढ़िवादी मार्क्सवाद को स्वीकार कर लिया। किंतु 1928 में तृतीय साम्यवादी इंटरनेशनल में उन्होंने न केवल रूसी एकाधिकार का विरोध किया अपितु मार्क्सवाद की अपनी दृष्टि से व्याख्या प्रस्तुत की। राय ने सैद्धान्तिक तथा व्यावहारिक दोनों ही दृष्टियों से मार्क्सवाद की आलोचना की है। राय की आलोचना इस प्रकार है
  1. रॉय के अनुसार, मार्क्सवादी का भौतिकवाद अवैज्ञानिक तथा कट्टरपंथी हैं। रॉय ने मार्क्स की इसलिए आलोचना की है कि उसने मानव प्राणी की स्वायत्तता को स्वीकार कर लिया।
  2. रॉय ने मार्क्स के द्वन्द्वात्मक दर्शन का पूरी तरह विरोध किया और इसे मानव प्रगति के मार्ग में बाधक माना। रॉय के अनुसार द्वन्दात्मक प्रगति ने मार्क्सवाद में प्रत्ययवादी तत्त्व समाविष्ट कर दिए हैं। याद तथा प्रतिवाद के द्वारा आगे बढ़ना तार्किक विवाद का लक्षण है। रॉय के शब्दों में, "भार्क्स का द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद केवल नाम के लिए भौतिकवादी है। चूँकि उसका मूल तत्त्व द्वन्द्ववाद है, इसलिए तत्वतः वह एक प्रत्ययवादी दर्शन है।" 
  3. राय के अनुसार इतिहास की मार्क्सवादी व्याख्या इसलिए दोषपूर्ण है कि वह सामाजिक प्रक्रिया में मानसिक क्रिया को बहुत कम स्थान देती है। इतिहास की व्याख्या केवल भौतिकवादी वस्तुवाद के आधार पर नहीं की जा सकती। राय के अनुसार इतिहास का केवल आर्थिक आधार ही नहीं होता, उसके पीछे सामाजिक तथा विचारात्मक दृष्टिकोण भी होते हैं। फिर किसी भी प्रकार का दर्शन आर्थिक आधार पर ही खड़ा नहीं होता।
  4. रॉय के अनुसार मार्क्स का यह कथन असत्य है कि मध्यम वर्ग का अन्त हो जाएगा और समाज केवल दो वर्गों अर्थात् पूंजीपतियों तथा निर्धन वर्ग में विभाजित हो जाएगा।
  5. रॉय को मार्क्स द्वारा प्रतिपादित वर्ग संघर्ष की धारणा भी त्रुटिपूर्ण प्रतीत होती है इतिहास में विभिन्न सामाजिक वर्ग रहे हैं, इसमें सन्देह नहीं किन्तु सामाजिक विद्वेष तथा संघर्ष की शक्तियों के अतिरिक्त सामाजिक सहयोग के बन्धन भी क्रियाशील रहे हैं। 
  6. रॉय ने मार्क्स द्वारा प्रतिपादित सर्वहारा वर्ग के अधिनायकतन्त्र की भी आलोचना की है। वे सर्वहारा क्रान्ति को अपूर्ण मानते हैं। कतिपय मुट्ठी भर व्यक्ति जो कि सर्वहारा का प्रतिनिधित्व करने का दम भरते हैं कोई क्रान्ति नहीं ला सकते।
  7. मार्क्सवाद के विरुद्ध रॉय की एक गम्भीर आपत्ति यह रही कि उसमें नैतिक नियमों के चलने के लिए कोई स्थान नहीं है। मार्क्सवादी दर्शन व्यक्ति को अपेक्षित स्वतंत्रता प्रदान नहीं करता। मार्क्स ने मानव की उपेक्षा करके इतिहास के क्रम को माँग तथा पूर्ति के आर्थिक नियम से बाँधने का प्रयास किया है। यह दर्शन व्यक्ति को केवल इस बात की स्वतन्त्रता देता है कि वह ऐतिहासिक आवश्यकता को समझने और स्वयं को उसके समक्ष प्रसन्नतापूर्वक समर्पित कर दे। "मार्क्सवादी आचार नीति के विरुद्ध राय ने ऐसी मानवतावादी आचार नीति का प्रतिपादन किया जो मनुष्य की सर्वोपरिता को महत्त्व देती है और स्वतन्त्रता तथा न्याय के मूल्यों में विश्वास करती है। रॉय ने मार्क्स की आचार नीति को, जो वर्ग संघर्ष को नैतिक आचरण की कसौटी मानती है।
  8. रॉय सामाजिक स्थिति में परिवर्तन लाने के पक्षपाती हैं, किन्तु उनके द्वारा सुझाया गया परिवर्तन का मार्ग हिंसा पर आधारित नहीं है। उनका यह विश्वास है कि मार्क्स द्वारा प्रदर्शित हिंसात्मक तरीका ही शासन परिवर्तन के लिए एकमात्र उपाय नहीं है।
रॉय ने मार्क्सवाद की आलोचनाओं द्वारा अपने साम्यवादी सहयोगियों को क्रुद्ध कर दिया और साम्यवादी जगत में रॉय के लिए कोई स्थान नहीं रहा। वस्तुतः 'नव-मानववाद का विकास करते समय रॉय ने एक प्रकार से मार्क्सवाद का परित्याग ही कर दिया।

रॉय का नव-मानवतावाद

रॉय के राजनीतिक विचारों में नव-मानवतावाद का विशेष महत्त्व है। कामिण्टर्न से निष्कासित होने पर भारतीय राजनीति में सक्रिय रूप से प्रवेश करने के बाद रॉय धीरे-धीरे मॉर्क्सवाद से हटते गए। काँग्रेस का परित्याग करके दिसम्बर, 1940 में उन्होंने रेडिकल डेमोक्रेटिक पार्टी का गठन किया। 1916 के निर्वाचनों में इस पार्टी को कोई सफलता प्राप्त नहीं हो सकी। अपने जीवन के अन्तिम 7 वर्षों में अर्थात् 1947 से 1954 की अवधि में वे भारत में ही नहीं वरन् विदेशों में भी 'नव-मानवतावाद" के जनक के रूप में विख्यात हुए। उन्होंने 'न्यू यूनिज्म' नामक ग्रन्थ की रचना की। अप्रैल, 1931 में आपने 'स्वतन्त्र भारत' नामक साप्ताहिक पत्र की स्थापना की और बाद में 1949 में उसका संशोधित नाम 'रेडिकल ह्यूमनिस्ट' रखा। 
एम. एन. रॉय की नव-मानववादी विचारधारा को समझने के लिए यह आवश्यक है कि पहले यह जान लिया जाए कि मानववाद क्या है? मानववादी तत्त्व पाश्चात्य दर्शन के अनेक सम्प्रदायों तथा युगों में देखने को मिलते हैं। इस विचारधारा के अनुसार मनुष्य की सब कार्यों का केन्द्र बिन्दु है। भारत में चाक और बौद्ध दर्शन में मानववाद के स्पष्ट लक्षण मिलते हैं। यूरोप में पुनर्जागरण के बाद मानववादी चिन्तन ने वैज्ञानिकता ग्रहण की है जिससे ईश्वर की सत्ता के स्थान पर मानव की सत्ता स्थापित हुई है।

फिर भी पूर्ववर्ती मानवतावादी व्यक्ति को किसी अतिमानवीय और अति प्राकृतिक सत्ता के अधीन करने की इच्छा की धारणा से नहीं बच पाए थे। नवीन मानववाद भौतिक विज्ञानों, समाजशास्त्र, कार्यविज्ञान तथा ज्ञान की अन्य शाखाओं में किए अनुसन्धानों पर आधारित है। उसका दार्शनिक आधार भौतिकवाद है पद्धति यान्त्रिक है।
रॉय को प्राचीन मानववाद की धर्म प्रधानता स्वीकार नहीं थी। उन्होंने इस विचार का खण्डन किया कि मनुष्य बाह्य, रहस्यमय और अति प्राकृतिक सत्ता के अधीन है।
नव-मानववाद नैतिक तथा आध्यात्मिक स्वतन्त्रता, विवेक तथा अचार नीति के मूल शास्त्रीय महत्त्व को स्वीकार करता है। रॉय के अनुसार मनुष्य स्वयं अपने भाग्य का निर्माता है और उसमें इतनी क्षमता है कि वह संसार को आज के बजाय अधिक श्रेष्ठ और सुन्दर बना दे।
रॉय अपने मानवतावादी दर्शन में हचिन्सन, बेन्थम तथा शैफ्ट्सबरी से प्रभावित थे। रॉय का मानवतावाद विवेक और लौकिक आत्मा पर आधारित था।
रॉय ने मनुष्य की बौद्धिक और क्रियात्मक शक्ति की उत्कृष्टता में विश्वास व्यक्त किया। उनकी दृष्टि में आध्यात्मवाद तो अन्धविश्वास था क्योंकि इसमें तर्क का अभाव पाया जाता है। रॉय का कहना था कि, "व्यक्ति के जीवन और उसके व्यक्तित्व में तर्क और विवेक सार्वभौमिक समन्वय की प्रतिध्वनि है।"
रॉय ने जिस नैतिकता का प्रतिपादन किया उसका आधार आध्यात्मवाद नहीं था इसलिए उनका कहना था कि नैतिकता कोई अति मानवीय तथा बाह्य वस्तु न होकर एक आन्तरिक शक्ति है जिसका पालन मनुष्य को ईश्वरीय अथवा प्राकृतिक भय से नहीं अपितु समाज कल्याण की भावना से करना चाहिए। रॉय ने नैतिकता के आधार पर राजनीति की वकालत की।
रॉय का आग्रह था कि हमारा उद्देश्य समाज को एक नैतिक आधार पर संगठित करना होना चाहिए क्योंकि समाज का आधार जितना अधिक नैतिकतावादी और बुद्धिवादी होगा व्यक्तित्व के विकास पर लगे हुए प्रतिबन्ध उतने ही अधिक शिथिल हो जाएंगे और उसे उतनी ही अधिक स्वतंत्रता प्राप्त हो सकेगी।
रॉय के अनुसार हमें एक स्पष्ट और बुद्धिवादी दृष्टिकोण विकसित करना चाहिए ताकि अपनी समस्याओं का समुचित निराकरण कर सकें और एक स्वतंत्र और उन्मुक्त वातावरण में मानव सभ्यता का विकास कर सकें।
रॉय ने व्यक्ति को समाज का मूल आदर्श बतलाया। उनके अनुसार व्यक्ति प्रधान तत्त्व है और समाज व्यक्ति की सृष्टि है। व्यक्तियों ने ही अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए समाज को बनाया है। वैयक्तिक स्वतन्त्रता को उन्होंने मानववाद का आचार माना और स्पष्ट रूप से कहा कि राज्य को व्यक्ति की स्वतंत्रता सीमित करने वाला कोई कार्य नहीं करना चाहिए। रॉय ने स्वतन्त्रता के तीन आधार स्तम्भ बतलाए। मानववाद, व्यक्तिवाद और विवेकवाद। चूँकि मनुष्य एक विवेकशील प्राणी है, अतः वह स्वतन्त्रता की कामना करता है। यह राष्ट्रीय प्रश्नों को अछूता छोड़ देती है। टैगोर, गांधी तथा अरविन्द की भांति रॉय भी विश्वबन्धुत्व में विश्वास करते थे। उन्होंने लोगों को प्रेम और विश्वास के राष्ट्रमण्डल का सदस्य बनाना चाहा जिसे भौगोलिक सीमाओं ने दूषित न किया हो रॉय ने विश्व संघ का उत्साह के साथ समर्थन किया रॉव के शब्दों में नवीन मानववाद विश्व-राज्यवादी है।
रॉय ने नव-मानववाद तथा मार्क्सवाद में पर्याप्त अन्तर है। नव-मानववाद में व्यक्ति को प्रमुखता दी गई है। जबकि मार्क्सवाद में स्थिति इसके विपरीत है। वस्तुतः रॉय मार्क्सवाद के विपरीत साधन तथा साध्य की नैतिकता के औचित्य पर बल देते हुए दोनों के समन्वय के पक्षपाती हैं।

रॉय के व्यक्ति एवं स्वतंत्रता सम्बन्धी विचार

रॉय के राजनीतिक विचारों में व्यक्ति को अत्यधिक महत्त्व दिया गया है। उनकी यह धारणा थी कि एक अच्छा व्यक्ति ही एक अच्छे समाज की रचना कर सकता है। वे व्यक्ति को ही समाज का आधार मानते थे।
रॉय ने व्यक्ति की स्वतंत्रता प्राप्ति की लालसा को चिरन्तन माना है। स्वतन्त्रता की अनुभूति ही उसका जीवन है, किन्तु रॉय के अनुसार स्वतन्त्रता का यह तात्पर्य नहीं है कि व्यक्ति सब कुछ करने की स्वतंत्रता रखता है। रॉय ने राज्य को केवल एक साध्य माना, साधन नहीं ये राज्य को न तो एक आवश्यक बुराई ही मानते थे तथा न मार्क्स के समान राज्य के तिरोहित होने में ही उनका विश्वास था।

रॉय के राष्ट्रवाद सम्बन्धी विचार

रॉय ने राष्ट्रवाद को एक प्रतिक्रियावादी प्रवृत्ति बताते हुए प्रत्येक समाज और प्रत्येक देश को इससे बचने का सन्देश दिया। रॉय का विचार था कि राष्ट्रवाद भावुकता पर आधारित होने के कारण किस भी राजनैतिक चिन्तन का आधार नहीं बन सकता। ये राष्ट्रवाद के सिद्धान्त को निरर्थक समझते थे और उसे पूँजीवादी शोषण तथा औपनिवेशिक विस्तारवाद का प्रतीक मानते थे।

रॉय तथा मौलिक लोकतन्त्र

एम. एन. रॉय जहाँ एक ओर साम्यवादी लोकतन्त्र की आलोचना करते हैं वहीं दूसरी ओर पूँजीवादी लोकतंत्र के भी विरुद्ध थे क्योंकि इन दोनों के द्वारा व्यक्ति की स्वतंत्रता का हास होता है। रॉय ने उदारवादी लोकतन्त्र को एक ऐसा दिखावे का लोकतंत्र माना जिसमें समूची शक्तियों का केन्द्रीकरण हो गया है और सत्ता कतिपय राजनीतिक दलों के हाथ में सिमट कर रह गई है।

रॉय ने सच्चे लोकतन्त्र की स्थापना के लिए राजनीतिक दलों की कार्यपद्धति को ठुकरा दिया उन्होंने नैतिक पतन का मूल कारण दल प्रणाली को बतलाया और दल प्रणाली को समाप्त करने की पुरजोर वकालत की। रॉय ने कहा कि सच्चे लोकतन्त्र की स्थापना के लिए उसे दल रहित बनाना होगा और सार्वजनिक मामलों के प्रशासन में जनसाधारण को अधिकाधिक भाग लेना होगा। रॉय ने इस प्रकार के लोकतन्त्र को 'संगठित-लोकतन्त्र' कहा रॉय के संगठित लोकतन्त्र में सर्वोच्च शिखर पर बैठा हुआ कोई शक्ति सम्पन्न व्यक्ति आदेश नहीं देगा बल्कि शक्ति जनता की स्थानीय समितियों के हाथों में होगी। रॉय के अनुसार संगठित लोकतन्त्र में हमें कुछ समूहों को संगठित कर लेना चाहिए और प्रत्येक समूह को अपने कार्य के लिए कोई क्षेत्र चुन लेना चाहिए। रॉय ने कहा कि इस प्रकार की शिक्षा के प्रसार से एक श्रेष्ठ और नैतिक वातावरण विकसित हो जाएगा जिसमें लोक स्वप्रेरणा से अपनी जनसमितियों का निर्माण करेंगे और जिन पर स्थानीय मामलों के प्रबन्ध का अधिकाधिक भार डाला जा सकेगा। ये जनसमितियों विभिन्न क्षेत्रों में उच्चतर स्तर पर समितियों का निर्माण करेंगी और उन पर आवश्यक अंकुश भी रखेंगी।
रॉय ने आर्थिक क्षेत्र में भी विकेन्द्रीकरण का विचार प्रस्तुत किया। आर्थिक विषमता को दूर करने के लिए रॉय के अनुसार नियोजित अर्थ-व्यवस्था का मार्ग अपनाना होगा।

रॉय के आर्थिक विचार

रॉय ने आर्थिक शोषण के प्रत्येक रूप का विरोध किया। वे आर्थिक नियोजन के पक्ष में है, किन्तु नियोजन की समाजवादी एवं पूँजीवादी पद्धति को अमान्य ठहराते हैं। रॉय स्वभाव से ही मनुष्य को सहयोगी प्राणी के रूप में देखते हैं, इसी कारण से उत्पादन के साधनों का नियन्त्रण जनता में निहित करना उचित मानते हैं। वे सम्पत्ति के राष्ट्रीयकरण के पक्ष में नहीं हैं क्योंकि यह व्यवस्था राज्य को मानवीय स्वतन्त्रता समाप्त करने का अधिकार देकर एक सर्वाधिकार राज्य की स्थापना करती है।

भारत की आर्थिक दशा सुधारने की दृष्टि से रॉय के विचार काफी मौलिक हैं। ये कृषि के विकास को अत्यधिक महत्व देते हैं ताकि खेतिहर, किसान की क्रय शक्ति में वृद्धि हो वे कृषि के यन्त्रीकरण के पक्ष में न थे क्योंकि इससे ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोजगारी बढ़ेगी। यदि कोयला अच्छी मात्रा में ग्रामीण क्षेत्रों में उपलब्ध कराया जा सके तो गोबर का उपयोग ईंधन के रूप में नहीं होगा। उन्होंने बड़ी-बड़ी सिंचाई योजनाओं के स्थान पर छोटी सिंचाई योजनाओं को लाभकारी बतलाया। कृषि सम्बन्धी समस्याओं के समाधान के लिए सहकारिता पर बल देते थे। रॉय तथा अन्तर्राष्ट्रवाद-रॉय अन्तर्राष्ट्रवाद, विश्व-वन्धुत्व तथा विश्व एकता के समर्थक थे। उनका विश्वास था कि विश्व संघ अवश्य स्थापित होगा। विश्व संघ की स्थापना से आर्थिक प्रतिस्पर्द्धा, गरीबी और बेकारी की समस्याओं का समाधान होगा। उनका अन्तर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण वंश, रंग, राष्ट्रीयता तथा अन्य किसी भी तत्त्व से सीमित नहीं था।