अरबिन्द घोष/Aurobindo Ghosh |
अरबिन्द घोष
अरविन्द घोष को रोमा रोलां भारतीय दार्शनिकों में सम्राट एवं एशिया और यूरोप की प्रतिभा का समन्वया कहकर सम्बोधित किया। डॉ. फ्रेडरिक स्पजलबर्ग ने तो उन्हें 'हमारे युग का पैगम्बर तक कह डाला है। अरबिन्द घोष की रचनाओं से हमें भारत की नवीन तथा उदीयमान आत्मा का घनीभूत सार देखने को प्राप्त होता है। अरविन्द घोष प्रथम भारतीय राष्ट्रवादी थे जिन्होंने पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्ति को भारत के राष्ट्रीय एवं राजनीतिक संघर्ष का उद्देश्य माना था अरविन्द द्वारा दिया गया आध्यात्मिक राजनीति या राजनीति का आध्यात्मीकरण भारतीय चिन्तन को अनुपम देन है।
अरबिन्द की रचनाएँ
रामकृष्ण और विवेकानन्द के वेदान्तिक समन्वय का अरबिन्द पर विशेष प्रभाव पड़ा। अरविन्द ने निम्नलिखित ग्रन्थों की रचना की- (1) द लाइफ डिवाइन, (2) एसेज आन द गीता, (3) द सिन्थेसिस ऑफ योग, (4) सावित्री, (5) द ह्यूमन साइकल, (6) द आइडियल ऑफ ह्यूमन यूनिटी आदि ।
अरबिन्द के राजनीतिक दर्शन के आध्यात्मिक आधार
अरविन्द ने एक राजनीतिक दार्शनिक के रूप में आध्यात्मिक नियतिवाद के सिद्धान्त को स्वीकार किया था। उनका मानना था कि इतिहास के ऊपर से निष्प्रयोजन और प्रायः परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाली घटनाओं के मूल में ईश्वर की शक्तियाँ काम कर रही हैं। इतिहास तो ब्रह्मा की क्रमिक पुनराभिव्यक्ति है। अरविन्द काली को परमात्मा की नियामक शक्ति के प्रतीक रूप में स्थापित करते हैं। उनके अनुसार काली का गतिशील क्रियाकलाप ही इतिहास है।
विपिनचन्द्र पाल के भांति ही अरविन्द भी भारतीय पुनरुत्थान के मूल में ईश्वर की इच्छा को स्थापित करते हैं। एक रहस्यवादी की भांति उन्होंने घोषणा की है कि भारतीय राष्ट्रवाद के मूल में ईश्वर है और वही आन्दोलन का वास्तविक नेता है। उन्होंने बताया कि ब्रिटिश अधिकारी भारतीय जनता का जो दमन, उत्पीड़न और अपमान कर रहे हैं वह भी ईश्वरीय योजना का ही अंग है। ईश्वर भारतीयों को आत्म निग्रह की शिक्षा देने के लिए स्वयं पर इन तरीकों का प्रयोग कर रहा है। उनके अनुसार फ्रांस की क्रांति भी ईश्वर की इच्छा का ही परिणाम थी। जब तक इस क्रान्ति के नेताओं ने अपने कार्यकलापों के दुर्गा स्वरूप काली की इच्छा (युग की आत्मा) के रूप में व्यक्त किया तब तक उसने उन्हें कार्य करने दिया किन्तु जैसे ही अहंकार से प्रेरित होकर अपनी महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति में लग गए वैसे ही शक्ति रूपी काली ने उन्हें मंत्र से उठा कर मंत्र से फेंक दिया। इन नेताओं में प्रमुख थे-मिरावो, दांते, रोबिसपियर, नेपोलियन आदि। इस प्रकार देवी न्यायवाद (देवी न्याय का सिद्धान्त) भगवत गीता के विचारों तथा जर्मन प्रत्ययवाद के समन्वय का प्रतीक है। इसी को हीगल ने इतिहास का औचित्य कहा है।
अरविन्द की राजनीति एक योगी की राजनीति थी। उनके राजनीतिक चिन्तन का सुदृढ़ आधार उनके गहरे आध्यात्मिक विश्वासों में अंतर्निहित था। अरबिन्द को यह अनुभूति हो चुकी थी कि आध्यात्मिक शक्ति और योग साधना द्वारा एक ऐसे आध्यात्मिक वातावरण का निर्माण सम्भव है जिसके द्वारा भारत अपने अभीष्ट लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। अरबिन्द के लिए भारत की स्वाधीनता का अभिप्राय कोरी राजनीतिक स्वाधीनता नहीं था वरन् यह था कि भारत का लक्ष्य मानव जाति का आध्यात्मिक नेतृत्व प्रदान करना है और चूँकि एक पराधीन भारत विश्व को आध्यात्मिकता का सन्देश देने तथा मानव जाति का पथ प्रदर्शक बनने में सहायक नहीं है।
अरविन्द का विश्वास था कि भारत में सदैव आध्यात्मिक विचारों और क्रियाओं की एक दीर्घ और गहन परम्परा रही है।
अरविन्द भारत की राष्ट्रीय स्वतन्त्रता की कामना केवल भारत के हित की दृष्टि से नहीं करते थे। मानतवा के आध्यात्मिक विकास का पथ प्रशस्त कर सकता है। अरविन्द ने राष्ट्रीय आन्दोलन की ज्वाला से निकालकर भारत के स्वाधीनता संग्राम से मुख नहीं मोड़ा। वस्तुतः भारत
के लक्ष्यों को भौतिक साधनों द्वारा प्राप्त करने का भार उन्होंने राष्ट्रीय आन्दोलन के अन्य नेताओं पर छोड़ दिया था और अपने पर आध्यात्मिक साधनों द्वारा उन लक्ष्यों को पूरा करने का बोझा वहन किया था।
अरविन्द ने आध्यात्मिक चिन्तन के क्षेत्र में एक नए सिद्धान्त को विकसित किया जिसके द्वारा उन्होंने जीवन के प्रति आशावादी दृष्टिकोण पर बल दिया। उनकी मान्यता थी कि ईश्वर में विश्वास का अभिप्राय यह नहीं है कि मनुष्य अपने जीवन के प्रति निराश और उदासीन हो जाए।
अरविन्द का राजनीतिक दर्शन
अरविन्द के राजनीतिक विचारों का मूल आधार उनकी आध्यात्मिक आस्था है। राजनीति के आध्यात्मीकरण का उनका प्रयास उनकी अन्तःकरण की प्रेरणा से उत्पन्न हुआ। उनके विचारों को विवेक के माध्यम से अथवा वैज्ञानिक कसौटी से नहीं परखा जा सकता। इसके लिए आस्था एवं श्रद्धा की आवश्यकता है। वे यूरोप की बौद्धिक प्रगति को भारत की आध्यात्मिक चेतना में सम्मिलित करना चाहते हैं।
अरविन्द के राजनीतिक चिन्तन को निम्नलिखित शीर्ष विन्दुओं के आधार पर समझा जा सकता है
1. उग्रवादी विचारक एवं निष्क्रिय प्रतिरोध के समर्थक
अरबिन्द उग्रवादी विचारक थे। भारतीय स्वाधीनता संग्राम में उन्हें उदारवादियों की प्रार्थना एवं याचिका की नीति पसन्द नहीं थी। वे भारत की स्वाधीनता के प्रबल पक्षधर थे। इससे कम राजनीतिक लक्ष्य को भारत की महानता के विपरीत मानते थे। उनके अनुसार प्रत्येक राष्ट्र को स्वाधीन रहने का अधिकार है। उन्होंने भारतीयों के अंग्रेजों के साथ सम्बन्धों को ईश्वरीय वरदान नहीं माना था ये तो उनसे पूर्ण मुक्ति चाहते थे उदारवादियों की ब्रिटिश न्यायप्रियता में निष्ठा उन्हें पसन्द नहीं थी। वे निष्क्रिय प्रतिरोध की पद्धति द्वारा भारत की स्वाधीनता का उपदेश दे रहे थे। उनकी दृष्टि में राष्ट्र अपनी स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए हिंसा का मार्ग भी अपना सकता है। स्पष्ट है कि गांधीजी की नैतिक धारणा में उनका विश्वास नहीं था। वे राष्ट्र की स्वतंत्रता को सर्वोपरि मानते थे। वे इसके लिए गीता के क्षात्रधर्म का अनुसरण ही उचित मानते थे। वे साधु वृत्ति एवं नैतिकता पर राजनीति को आधारित करना कायरता का चिह्न मानते थे। सशस्त विद्रोह एवं असहयोग को वे सर्वाधिक उपयुक्त राजनीतिक पद्धति मानते थे।
अरविन्द ने देशवासियों को काँग्रेस के नरम नेतृत्व को अस्वीकार करके निष्क्रिय प्रतिरोध की पद्धति का अनुसरण करने का आमंत्रण दिया। निष्क्रिय प्रतिरोध के सिद्धान्त का विश्लेषण करते हुए अरविन्द ने इसमें निम्नलिखित बातें सम्मिलित की-(1) स्वदेशी का प्रसार और माल का बहिष्कार (2) राष्ट्रीय शिक्षा का प्रसार, राष्ट्रीय शिक्षण संस्थानों की स्थापना, (3) सरकारी अदालतों तथा न्यायालयों का बहिष्कार, (4) जनता द्वारा सरकार से कोई सहयोग न करना, एवं (5) सामाजिक बहिष्कार जिसका कि उन लोगों के प्रति दण्ड के रूप में प्रयोग किया जाए जो निष्क्रिय प्रतिरोध के विपरीत आचरण करते हुए सरकार को सहयोग दें।
अरविन्द के अनुसार ब्रिटिश आर्थिक शोषण का निराकरण तभी सम्भव था जबकि भारतीय ब्रिटिश माल का शिकार करें और स्वदेशी को अपनाएँ। अतः ऐसी शिक्षा पद्धति का बहिष्कार करके राष्ट्रीय शिक्षा का प्रसार आवश्यक था। अरविन्द ने सरकारी अदालतों के बहिष्कार को इसलिए आवश्यक बताया कि ये ब्रिटिश शासन के प्रति निष्ठा उत्पन्न करने में सहयोगी थीं और भारतीयों में परावलम्बन की भावना का विकास करती थीं। कर न देने का अर्थ था कानून की सीधी अवज्ञा, अतः सरकार ऐसे आन्दोलन को निर्ममतापूर्वक कुचलकर जनता के जोश को ठण्डा कर सकती थी। इसके विपरीत सरकारी स्कूलों के बहिष्कार, न्यायालयों के बहिष्कार, स्वदेशी के प्रयोग आदि से कानून की कोई अवज्ञा नहीं होती थी। यह भी ध्यान देने योग्य है कि अरविन्द गांधी के समान अहिंसावादी नहीं थे, अतः उन्होंने निष्क्रिय प्रतिरोध आन्दोलन को हर स्थिति में अहिंसाबादी बनाने की चेष्टा नहीं की। अरविन्द ने निष्क्रिय प्रतिरोध और आक्रामक प्रतिरोध के बीच अन्तर किया है। उन्होंने कहा कि शासन का संगठित प्रतिरोध या तो निष्क्रिय हो सकता है या आक्रामक निष्क्रिय प्रतिरोध भारत जैसे देश के लिए सर्वाधिक अनुकूल है जहाँ कि सरकार अपने कार्य-कलापों के लिए शासितों के स्वेच्छापूर्ण सहयोग पर निर्भर करती है। अरविन्द के शब्दों में, "यदि सहायता और मौन स्वीकृति क्रमशः सारे राष्ट्र में वापस ले ली जाए तो भारत में अंग्रेज सत्ता का कायम रहना बहुत कठिन हो जाएगा।
2. आध्यात्मिक राष्ट्रवाद
अरविन्द ने समय की आवश्यकताओं के अनुरूप राष्ट्रवाद को एक शुद्ध धर्म के रूप में प्रतिष्ठित करने का प्रयत्न किया। यहूदी धर्म के नेताओं तथा शिक्षकों की भांति अरविन्द ने बंगालियों अथवा भारतीयों को 'चुनी हुई जाति बतलाया और कहा कि उनका उद्देश्य भारत की राजनीतिक मुक्ति के ईश्वरीय आदर्श को प्राप्त करना है। अरविन्द के विचारों का राष्ट्रबाद वस्तुतः ऋग्वेद एवं उपनिषदों के उपदेशों पर आधारित है। वे सनातन धर्म को राष्ट्रवाद ही मानते हैं। उनका कहना था कि हिन्दू राष्ट्र सनातन धर्म के साथ उत्पन्न हुआ था और उसी के साथ वह चलायमान और विकसित है। राष्ट्र के रूप में भगवान का अवतार होता है। राष्ट्र अमर है। भारत के 30 करोड़ निवासी ईश्वर है। अरबिन्द ने राष्ट्रवाद को एक धर्म बताया जो ईश्वर के पास से आया है और जिसे लेकर हमें जीवित रहना है।
होगल के प्रभाव में अरबिन्द ने राष्ट्र की आत्मा का आदर्श प्रस्तुत करते हुए उसकी स्पन्दनशीलता एवं मानवीय आत्मा से उनका तादात्म्य स्थापित किया। अरविन्द राष्ट्र तथा राज्य को पृथक-पृथक रखने में विश्वास करते थे। राष्ट्र को आध्यात्मिकता का अर्द्ध-पूर्णांक मानते थे। अरबिन्द ने दासता की बेड़ियों में जकड़ी तिरस्कृत भारत माँ को स्वाधीन करने की माँग की। उन्होंने कहा कि, माँ
को बेड़ियों से मुक्त करने के लिए हर सम्भव उपाय करना बेटों का कर्तव्य है। अरविन्द ने भारत को अपने आध्यात्मिक अतीत का ज्ञान कराना चाहा और उन्हें देखकर सन्तोष भी हुआ कि देशवासियों में अतीत के गौरव के प्रति आस्था जागृत होने लगी। राष्ट्रवाद को ईश्वरीय आदेश और प्रेरणा बतलाकर अरविन्द ने राष्ट्रीय जीवन में एक नवीन चेतना भी दी।
अरबिन्द का विचार या कि मानव जाति के आध्यात्मिक जागरण में भारत को अनिवार्य भूमिका निभानी है, उसे समस्त भूखण्ड को एक दिव्य सन्देश देना है। ये तभी हो सकता है जब भारत स्वाधीन हो। उनकी रचनाओं से पहली बात तो यह मालूम पड़ती है कि अपने आदर्शवादी और आध्यात्मिक दृष्टिकोण के अनुसार वे मातृभूमि को देवी माता समझते थे और उसकी मुक्ति के लिए शक्ति भर संघर्ष करना और उसकी सन्तानों का परम कर्तव्य मानते थे। दूसरा, उनका विचार था कि भारत का स्वतन्त्र होना केवल उसी के हित में नहीं, बल्कि सम्पूर्ण मानव जाति के हित में था।
अरबिन्द राष्ट्रवाद को देशभक्ति से अधिक व्यापक अवधारणा के रूप में मानते रहे। उनका दृष्टिकोण केवल राजनीतिक न होकर आध्यात्मिक था, किन्तु राष्ट्रवाद का धर्म के साथ संयोजन अथवा आध्यात्मिक राष्ट्रवाद का विचार संकीर्ण पुनर्जागरणवादी विचार नहीं था। वे अन्ततोगत्वा विश्व राज्य की स्थापना करना चाहते थे। उस विश्व राज्य का सर्वोत्तम रूप स्वतन्त्र राष्ट्रों का ऐसा संघ होगा जिसके अन्तर्गत हर प्रकार की पराधीनता, बल पर आधारित असमानता तथा दासता का विल भारतीय राष्ट्र के उन्नयन में हिन्दू धर्म तथा इस्लाम दोनों को राजनीतिक जीवन के लिए जागृत करना चाहते थे। जाएगा। वे
संक्षेप में अरविन्द ने अपने राष्ट्रवाद के आध्यात्मिक स्वरूप को भारत की प्राचीन संस्कृति के स्रोतों पर तो आधारित किया ही, किन्तु साथ ही इसे मानवतावादी रूप भी दे दिया।
3. व्यक्तिगत स्वतन्त्रता सम्बन्धी विचार
अरविन्द व्यक्ति की स्वतन्त्रता और उनके अधिकारों को अत्यधिक महत्त्व देते हैं। उन्होंने राष्ट्रीय विकास के लिए व्यक्तिगत स्वतंत्रता को अति आवश्यक बताया है। उनके अनुसार स्वतन्त्रता तीन प्रकार की होती है
1. राष्ट्रीय स्वतन्त्रता, 2. आन्तरिक स्वतन्त्रता, 3. व्यक्तिगत स्वतन्त्रता ।
राष्ट्रीय स्वतन्त्रता विदेशी नियन्त्रण से मुक्ति है। आन्तरिक स्वतन्त्रता से अभिप्राय किसी वर्ग या वर्गों के सामूहिक नियन्त्रण से मुक्त होकर स्वशासन प्राप्त करना है। उनका मानना था कि शासन चाहे राजतन्त्रात्मक हो अथवा लोकतन्त्रात्मक, अभिजाततन्त्रीय हो या नौकरशाही का हो व्यक्ति स्वतन्त्रता की रक्षा होनी आवश्यक है।
यद्यपि अरविन्द लोकतन्त्र की धारणा का भी व्यक्तिवाद का प्रतिफल मानते हैं क्योंकि लोकतन्त्र में व्यक्ति के आर्थिक एवं राजनीतिक हितों का संरक्षण होता है तथापि उन्होंने लोकतन्त्र को व्यक्ति स्वतन्त्रता का पोषक नहीं माना है। उनका कहना है कि व्यक्ति का समष्टीकरण उसकी स्वतन्त्रता को दबा देता है। जिसमें प्रतिनिधित्व के नाम पर केवल कुछ व्यावसायिक हितों एवं समूहों का हित संरक्षित किया जाता है। ये लोकतन्त्र की केन्द्रीकरण की प्रवृत्ति के विरोधी थे और लोकतन्त्र की व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के साथ पटरी बिछाने के लिए उन्होंने लोकतान्त्रिक विकेन्द्रीकरण का पक्ष लिया।
अधिकार सम्बन्धी विचार
महर्षि अरविन्द ने कहा है कि स्वतन्त्र राष्ट्र में नागरिकों के लिए तीन प्रकार के अधिकार मिलने चाहिए। ये तीन अधिकार नागरिक जीवन के लिए अति आवश्यक है।
(अ) स्वतन्त्र अभिव्यक्ति का अधिकार
स्वतन्त्र अभिव्यक्ति के अधिकार को स्पष्ट करते हुए उन्होंने हावड़ा नागरिक संगठन के 1909 ई. के सम्मेलन में कहा है। कि "स्वतन्त्र अभिव्यक्ति के अधिकार का अर्थ है कि इसे प्राप्त करके मनुष्य आत्मविश्वास के लिए सबसे अधिक अवसर प्राप्त करता है। दर्शन के अनुसार विचार ही सम्पूर्ण विश्व का आधार है। यह विचार ही है जोकि भौतिक संस्थाओं को निर्मित करता है। इस विचार का ही महत्त्व है जोकि किसी भी प्रशासन अथवा सरकार को गियता और बनाता है। अतः विचार ही सबसे अधिक सुदृढ शक्ति का प्रतीक है। यह अधिकार राष्ट्र को वह शक्ति देता है जोकि उसके भावी विकास को आश्वस्त करती है, जो उसे किसी भी राष्ट्रीय जीवन के संघर्ष में सफलता का आश्वासन देती है। महर्षि अरविन्द ने स्वतन्त्र अभिव्यक्ति तथा प्रेस के अधिकार पर अत्यधिक महत्व दिया है तथा अन्य दो अधिकारों को इस अधिकार के आधार पर खड़ा किया है। इस प्रकार स्पष्ट है कि राष्ट्र व नागरिक विकास के लिए स्वतंत्र प्रेस तथा अभिव्यक्ति के अधिकार की सर्वप्रथम आवश्यकता है।
(ब) स्वतन्त्र सार्वजनिक सभा करने का अधिकार
महर्षि अरविन्द ने स्वतन्त्र प्रेस तथा अभिव्यक्ति के अधिकार के पश्चात् स्वतन्त्र सार्वजनिक सभा करने के अधिकार पर गौर दिया है। एक सबल राष्ट्र के लिए स्वतन्त्र अभिव्यक्ति के अधिकार के साथ-ही-साथ स्वतन्त्रतापूर्वक नागरिकों को सभा करने का अधिकार भी होना चाहिए।
(स) संगठन निर्मित करने का अधिकार
एक स्वतन्त्र राष्ट्र के नागरिकों के लिए एक अन्य आवश्यक अधिकार दिए जाने के लिए महर्षि अरविन्द ने जोर दिया है वह है-संगठन निर्मित करने का अधिकार स्वतन्त्र अभिव्यक्ति स्वतन्त्र प्रेस तथा स्वतन्त्र रूप से सार्वजनिक सभा करने के अधिकार के साथ ही कड़ी में स्वतन्त्रतापूर्वक संगठन निर्मित करने के अधिकार पर भी जोर दिया है। व्यक्ति स्वयं विकास नहीं करता उसे अपने समूह के अन्तर्गत विकास करना है।
अरविन्द के राष्ट्रवाद सम्बन्धी विचार
श्री अरविन्द राष्ट्रवाद के मसीहा थे। वे राष्ट्र तथा राज्य को पृथक-पृथक रखने में विश्वास करते थे। वे राष्ट्र के सांस्कृतिक, बौद्धिक और सामाजिक विकास में शासकीय हस्तक्षेप को उचित नहीं मानते थे। उनके राष्ट्रवादी विचारों पर हीगल, रेनान, फिक्टे तथा बर्क जैसे पाश्चात्य विचारकों का भी प्रभाव पड़ा है। महर्षि अरविन्द के राष्ट्रवादी विचारों को विवेचन की सुविधा के लिए निम्नलिखित विन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट किया जा सकता है।
राष्ट्रवाद का मानवतावादी स्वरूप
अरविन्द ने एक तरफ तो अपने राष्ट्रवाद को आध्यात्मिक आधार पर खड़ा किया और उसे भारत की प्राचीन संस्कृति के स्रोतों से पुष्ट किया तो दूसरी तरफ उन्होंने इसे मानवतावादी रूप भी दिया। अरविन्द ने वन्देमातरम् में प्रकाशित अपने एक लेख में राष्ट्रवाद सम्बन्धी अपने विचारों को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि "राष्ट्रबाद राष्ट्र में निहित देवी एकता का साक्षात्कार करने की उत्कृट अभिलाषा है।
भारतीय तथा पाश्चात्य राष्ट्रवादी विचारों का समन्वय
अरविन्द ने अपने राष्ट्रवाद में भारतीय तथा पाश्चात्य विचारों का समन्वय करने का प्रयत्न किया। उनके राष्ट्रवादी विचारों पर अनेक पाश्चात्य विचारकों का प्रभाव पड़ा है। डॉ. पुरुषोत्तम नागर ने इसको स्पष्ट करते हुए कहा है कि 'हीगल के प्रभाव में श्री अरविन्द ने राष्ट्र की आत्मा का आदर्श प्रस्तुत करते हुए स्पन्दनशीलता एवं मानवीय आत्मा से उसका प्रत्यक्ष तादात्म्य स्थापित किया।
अरविन्द के राष्ट्रवाद का धार्मिक एवं आध्यात्मिक रूप
अरविन्द के समकालीन उदारवादी नेताओं का राष्ट्रबाद अरविन्द द्वारा प्रतिपादित राष्ट्रवाद से बहुत निम्न स्तर का था। उदारवादी नेताओं को भारत से प्रेम था और भारत के हित के लिए ये कष्ट भी सह रहे थे किन्तु उनकी इच्छा यूरोपीय शिक्षा, यूरोपीय संगठन और सामग्री को लेकर भारत को एक छोटा-सा इंग्लैंड बना देने की थी। इसके विपरीत अरविन्द के राष्ट्रवाद ने धार्मिक एवं आध्यात्मिक स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहा था कि राष्ट्रीयता क्या है?
विस्तृत व्यापक और महासांधिक राष्ट्रवाद
अरविन्द के राष्ट्रवाद का स्वरूप संकीर्णता एवं कट्टरता लिए हुए नहीं है बल्कि उसका स्वरूप व्यापक एवं महासायिक है। यह एक विश्वसंघ के अनन्तर मानव एकता की कामना करते थे और इस विश्वसंघीय राष्ट्रवाद के लिए यह आवश्यक था कि उसका आधार आध्यात्मिक हो, उसमें आन्तरिक एकता हो।
मानव एकता या विश्व एकता सम्बन्धी विचार
प्रथम महायुद्ध से उत्पन्न संकटों और परिस्थितियों में विश्व के दार्शनिकों का ध्यान एक ऐसे विश्व संघ की धारणा की ओर आकृष्ट हुआ जो सम्पूर्ण मानव जाति को एकाकार कर ले।
मानव एकता का आदर्श प्रकृति की योजना का अंग है
अरविन्द ने मानव के आदर्श को प्रकृति की योजना का अंग बताया और कहा कि यह स्वप्न भविष्य में एक दिन अवश्य पूरा होगा। उन्होंने इसे प्रकृति की योजना का अंग इसलिए बताया क्योंकि उनकी मान्यता थी कि हम सब एक दूसरे के घटक हैं और एक यान्त्रिक तथा बाह्य आवश्यकता हमें एक-दूसरे के प्रति इतनी आकर्षित करती हैं कि हम स्वयं को क्रमशः परिवार, कबीले और ग्राम जैसे उत्तरोत्तर समूहों से संगठित करने को बाध्य हो जाते हैं।
सम्पूर्ण मानव जाति एक इकाई है
अरविन्द का मत है कि यदि मानव का चरम विकास करना है तो हमें राज्यों के विचार का अतिक्रमण करके यह स्वीकार करना होगा कि सम्पूर्ण मानव जाति एक इकाई है।
स्वतन्त्र विश्व संघ की अवधारणा
अरविन्द ने कहा कि मानव एकता के महान आदर्श को हम विश्व राज्य के निर्माण के द्वारा प्राप्त कर सकते हैं अथवा राष्ट्र राज्यों को एक प्रकार के संघ में संगठित करके हम इस आदर्श को साकार बना सकते हैं। महर्षि अरविन्द ने इस सम्बन्ध में एक कल्पना यह भी की है कि भविष्य में एक ऐसा समय आएगा जब हम एक संयुक्त राज्य यूरोप, एक संयुक्त राज्य एशिया और एक संयुक्त राज्य अफ्रीका के दर्शन करेंगे अन्ततः इन सब राज्यों को संयुक्त करके एक संघ बना लेंगे। यह स्वयं आत्मनिर्णय के सिद्धान्त पर आधारित विविधताओं पर आधारित होगा। जिसमें सामंजस्यपूर्ण जीवन के नियम को सर्वोच्चता मिलेगी ताकि मानव जाति आदर्श एकता के स्वप्न को पूरा कर सके।
स्वतन्त्र और स्वाभाविक समूहों का सिद्धान्त
अरविन्द ने कहा है कि संघ की इस व्यवस्था में मनुष्यों का स्थान, जाति, संस्कृति, आर्थिक सुविधा आदि के अनुसार अपने समूह बनाने का अधिकार होगा जो स्वतन्त्र रहते हुए अपने हितों की पूर्ति करने के साथ-साथ सम्पूर्ण मानव जाति को ध्यान में रखते हुए कार्य करेंगे। तब हमारे मानवीय सम्बन्ध मानवीय आधार पर पुष्ट होंगे और वर्तमान कटुता का वातावरण समाप्त हो जाएगा।
राज्य की अतिवादी धारणा के प्रति चेतना
अरविन्द ने स्वतन्त्र विश्व संघ के मार्ग में आने वाली सबसे बड़ी बाधा राष्ट्र संघ की अतिवादी धारणा को बताया।
अरविन्दो के समाजवाद सम्बन्धी विचार
समाजवाद को व्यक्तिवाद, राष्ट्रवाद तथा विश्ववन्धुत्व का प्रतीक मानते हैं। शोषित श्रमिकों को नवजीवन प्रदान करने में समाजवाद का जो महत्त्व रहा है उसे श्री अरविन्द ने सराहा है किन्तु वे समाजवादी विचारधारा में सन्निहित राज्यशक्ति के केन्द्रीकरण के पक्ष में नहीं हैं।
उनका मत है कि समाज के राजनैतिक एवं सामाजिक पक्ष एकीकृत नहीं किए जाने चाहिए। सर्वाधिकारवादी सामाजिक एवं राजनीतिक क्रियाकलापों में राजकीय हस्तक्षेप का मार्ग प्रशस्त करता है जिसे श्री अरविन्द उचित नहीं मानते। ये समाजवाद के साम्राज्यवाद में परिवर्तित होने की सम्भावना के प्रति भी समान रूप से चिन्तित हैं।
अरविन्द ने श्रमिक वर्ग के महत्त्व को समझा और बताया कि इस वर्ग में महान शक्ति की अन्तर्सम्भावनाएँ निहित हैं लेकिन चेतना के अभाव में यह सुषुप्तावस्था में है। उन्होंने उनके नैतिक उत्थान की बात कही। लेकिन यह भविष्यवाणी अवश्य की कि जागरूक श्रमिक भविष्य का स्वामी होगा।
अरविन्दो के राज्य सम्बन्धी विचार
अरविन्द की राज्य सम्बन्धी विचारधारा विकासवादी है। वे राज्य को अधिक महत्त्व नहीं देते थे। ये समष्टिवादी नहीं हैं। व्यक्ति उनके विचारों का प्रमुख आधार था किन्तु यह व्यक्तिवाद संकीर्ण नहीं है। यह मानव गरिमा को सुरक्षित रखने वाला व्यक्तिवाद है। उन्होंने कहा, "राज्य एक सुविधा है और अपेक्षाकृत हमारे सामूहिक विकास की एक गद्दी सुविधा है जिसे कभी स्वयं में साध्य नहीं बनाना चाहिए।" उनका कहना था कि राज्य को भी मानव प्रगति का सर्वोत्तम साधन मानना हास्यास्पद है। मानव समुदाय के अन्तर्गत जीवित रहता है अतः वह अपना विकास स्वयं व्यक्तिगत रूप से या सामूहिक रूप से कर सकता है। अरविन्द राज्य के आंगिक सिद्धान्त की आलोचना करते हैं। राज्य का कार्य केवल बाधाओं तथा अन्याय को रोकना है।
राज्य द्वारा न तो शिक्षण कार्य किया जाना चाहिए न ही किसी धर्म विशेष का पालन कराया जाना चाहिए। वे समाजवादी दर्शन के लोककल्याणकारी आर्थिक कार्यक्रम से प्रभावित थे।
स्वराज्य
अरबिन्द के अनुसार स्वराज्य की प्राप्ति प्रत्येक भारतीय का प्रथम उद्देश्य है। यदि भारतीय चेतना का विकास सही दृष्टि से सम्भव है तो केवल इसी धारणा द्वारा कि स्वतन्त्रता तुरन्त प्राप्त की जाए। राजनीतिक स्वतन्त्रता के लिए समस्त साधन एवं शक्ति जुटा दी जाए।
लोकतन्त्र की आलोचना
अरविन्द लोकतन्त्र को व्यक्तिगत स्वतंत्रता का पोषक नहीं मानते थे। लोकतन्त्र में व्यक्ति का समष्टीकरण उसके व्यक्तित्व को दबा देता है। जनता के शासन के नाम पर लोकतन्त्र केवल धनी व कुलीन व्यक्तियों का शासन ही साबित हुआ है। बहुसंख्यक दल का शासन व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की रक्षा न कर उसे स्वार्थपूर्ति का साधन बनाता है। उनके अनुसार राजनीतिक शक्ति के केन्द्रीकरण के स्थान पर विकेन्द्रीकरण की स्थापना कर लोकतन्त्र के दोषों से मुक्ति प्राप्त की जा सके।
श्री अरविन्दो : अराजकतावादी आतंकवादी ?
विदेशी शासन के खिलाफ बल या हिंसक साधनों के इस्तेमाल की अरविन्दो जो वकालत करते थे, उसके लिए उनकी आलोचना की जाती है कि वह अपने दृष्टिकोण और कर्म में अराजकतावादी थे। वह निश्चित रूप से अराजकतावादी नहीं थे और न वह कोई आतंकवादी थे, लेकिन नैतिक और आध्यात्मिक आधार पर उन्होंने हिंसा के इस्तेमाल से असहमति नहीं जताई।
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