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रॉबर्ट नॉजिक की जीवनी एवं विचार(Biography and Thoughts of Robert Nozick)

रॉबर्ट नॉजिक (Robert Nozick)

रॉबर्ट नॉजिक का जन्म अमेरिका के शहर ब्रुकलिन में 16 नवम्बर, 1938 को हुआ था। नॉजिक का समय 1970 और 1980 का दशक माना जा सकता है इसी समय में उन्हें अमेरिका में प्रतिष्ठित दार्शनिक सम्मान प्राप्त हुआ। रॉबर्ट नॉजिक की शिक्षा हॉवर्ड विश्वविद्यालय में हुई, अध्ययन कार्य किया। इन्होंने अपनी पुस्तक में दासता को भी उचित बताया था यदि कोई स्वेच्छा से स्वयं को बेचता है।

रॉबर्ट नॉजिक की प्रमुख रचनाएँ
रॉबर्ट नॉजिक की प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं
(i) एनाकी स्टेट एण्ड यूटोपिया (1974)
(ii) द एक्जामिण्ड लाइफ (1989)
(iii) सोक्रेटिक पजल्स (1997)
(iv) फिलॉसोफिकल एक्सप्लानेशन (1981)
(v) द नेचर ऑफ रेशनेलिटी (1995)

न्याय सिद्धान्त

रॉबर्ट नॉजिक ने चर्चित कृति एनार्की स्टेट एण्ड यूटोपिया (अराजकता, राज्य और कल्पना लोक-1974) के अंतर्गत न्याय के दो तरह के सिद्धान्तों में अन्तर किया है। एक ओर न्याय के ऐतिहासिक सिद्धान्त हैं तो दूसरी ओर साध्यमूलक सिद्धान्त हैं। ऐतिहासिक सिद्धान्तों के अनुसार लोगों की अतीत परिस्थितियों और अतीत कार्यों के आधार पर उनके वर्तमान अधिकार भिन्न-भिन्न हो सकते हैं। उदाहरण के लिए उपयोगिताबाद एक साध्यमूलक सिद्धान्त है, जो अधिकतम लोगों के अधिकतम सुख के लक्ष्य को अधिकारों का उपयुक्त आधार मानता है। नॉजिक ने इस सिद्धान्त को तीव्र आलोचना की है।

स्वयं नॉजिक ने न्याय के ऐतिहासिक सिद्धान्तों को अपने तर्क का आरम्भिक बिन्दु स्वीकार किया है। इसके अनुसार यदि वैयक्तिक सम्पत्ति की वर्तमान व्यवस्था अतीत के उचित अभिग्रहण या हस्तान्तरण का परिणाम है। परन्तु यदि अतीत में सम्पत्ति के अनुरूप अभिग्रहण के कारण कोई अन्याय हुआ है तो उसका परिष्कार उचित होगा। इस प्रक्रिया को नॉजिक ने परिष्कार का सिद्धान्त कहा है। नॉजिक के अपने सिद्धान्त को न्याय का अधिकारिता सिद्धान्त कहा जाता है। फिर विभिन्न मनुष्य अपनी-अपनी प्रतिभा और प्रयास से सामाजिक उत्पादन में भिनन योगदान करते हैं इसलिए उन्हें भिन्न-भिन्न पुरस्कार प्राप्त होना स्वाभाविक है।

नॉजिक ने तर्क दिया है कि समाज में उत्पादन के स्तर पर जो असमानताएं पाई जाती हैं उन्हें वितरण के स्तर पर बदलने का प्रयत्न विनाशकारी होगा। संसार में कोई वस्तु शून्य से पैदा नहीं होती, बल्कि समाज की सम्पदा भिन्न व्यक्तियों के परिश्रम का परिणाम है। लोग व्यापार के द्वारा अपनी सम्पत्ति बढ़ाते हैं या खो देते हैं। सम्पत्ति का वर्तमान वितरण उसके स्वैच्छिक विनियम का परिणाम है। अतः राज्य के समस्त कल्याणकारी कार्यक्रम सर्वथा अवैध हैं। संक्षेप में नॉजिक का अधिकारिता सिद्धान्त मोटे तौर पर तीन प्रकार के सिद्धान्त तत्त्वों की मान्यता देता है।

नॉजिक का अधिकारिता सिद्धान्त

न्यायपूर्ण हस्तान्तरण का सिद्धान्त- इसका अर्थ यह है कि न्यायपूर्ण तरीके से जिस वस्तु का अभिग्रहण किया गया हो उसे स्वतंत्रतापूर्वक हस्तान्तरित किया जा सकता है।
मूलतः न्यायपूर्ण अभिग्रहण का सिद्धान्त इसका अर्थ है कि कोई व्यक्ति जिस वस्तु का स्वामी है उसे यदि उसने न्यायपूर्ण तरीके से प्राप्त किया हो तभी उसे वह स्वेच्छापूर्णक हस्तान्तरित करने का अधिकारी माना जाएगा। अन्याय के परिष्कार का सिद्धान्त इसका अर्थ है कि यदि कहीं अन्यायपूर्ण तरीके से किसी वस्तु का अभिग्रहण या हस्तान्तरण किया गया हो तो ऐसी स्थिति का उचत प्रतिकार करना चाहिए।

इस सारी तर्क श्रृंखला से यह निष्कर्ष निकलता है कि यदि लोगों की वर्तमान सम्पत्ति न्यायपूर्ण वितरण के लिए यह सूत्र अपनाना चाहिए। हरेक से उतना जितना वह देना चाहे, हरेक का उतना जितना कोई देना चाहे, जिसमें विवश और बंचित वर्गों को कोई सहायता प्राप्त होने की गुंजाइश नहीं है। यह बात ध्यान देने की है कि जहाँ रॉल्स का न्याय सिद्धान्त सबसे निर्धन और सबसे जरूरतमन्द व्यक्ति को सबसे पहले सहायता पहुँचाने की माँग करता है।

सामुदायिकवादी

समुदायवादी विचारों के अंतर्गत मनुष्य के आण्विक स्वरूप की निन्दा की गई है। समुदायवादियों के अनुसार मनुष्य को उसकी परम्पराओं व सामाजिक मूल्यों से पृथक् नहीं किया जा सकता है। समुदायवाद नागरिक व नैतिक पुनरुत्थान पर विशेष बल देता है। इस प्रकार के विचारों को बिल क्लिन्टन के कार्यकाल में अमेरिकी संदर्भोंों में प्राथमिकता मिली।

लोकतान्त्रिक सिद्धान्त

समुदायवादी लोकतान्त्रिक सिद्धान्त की मान्यता है कि एक अच्छे जीवन की परिकल्पना सामुदायिक जीवन में ही की जा सकती है तथा न्यायपूर्ण समाज की स्थापना सामुदायिक गतिविधियों की सहज भागीदारी से ही संभव है। मनुष्य की सामाजिकता के सिद्धान्त का केन्द्र बिन्दु है। सामुदायिक लोकतान्त्रिक विचारों के सामान्य नैतिक मूल्यों को प्रधानता दी गई है। स्पष्टतः इन विचारों के अंतर्गत एक स्वस्थ स्वायत्त नागरिक समाज की आवश्यकता पर बल दिया गया है। सामुदायिक लोकतंत्र के अनुसार शिक्षा नैतिकता, विश्वास व नेतृत्व वे साधन हैं जिनसे नागरिक समाज उत्कृष्ट होता है तथा उत्कृष्ट नागरिक समाज ही प्रतिनिधि के उत्तरदायित्व का कुशल स्थापन कर सकता है।

समुदाय

● 20वीं सदी के अंतिम दशकों में लोकतंत्र के सामुदायिक सिद्धान्त की स्थापना हुई है। समुदायवाद एक विचार के रूप में विभिन्न मूल्यों व पहचानों का समर्थन करता है तथा बेन्जामिन वाल्जर, एमीरा एटी जीनाई, चार्ल्स टेलर, सेंडेल इत्यादि के विचारों से यह सम्बन्धित है। समुदाय पर अत्यधिक जोर देने के कारण इन्हें 'नव-अरस्तुवादी' भी कहते हैं।

इससे जहाँ एक ओर व्यक्तिगत स्वतंत्रता का विकास होता है वहीं इससे सामाजिक बन्धुत्व के लक्ष्य की प्राप्ति भी। होती है। समुदायवादी प्राप्ति विद्यात्मक उत्तरदायित्व व लोक भागीदारी के लिए उदारवादी लोकतंत्र की प्रक्रियात्मकता का समर्थन तो करते हैं परन्तु इनके अनुसार बेहतर नागरिक की स्थापना से तात्विकता की प्राप्ति संभव है। सामुदायिक लोकतंत्र अतिमूलक व्यवस्था का समर्थन करता है जिससे कुशल प्रशासन के लिए विकेन्द्रीकृत व्यवस्था का समर्थन करता है जिससे कुशल प्रशासन के लिए विकेन्द्रीकृत व्यवस्था की स्थापना की गई हो। वह सक्रिय नागरिकता तथा सीमित संवैधानिक व्यवस्था को सामान्य अच्छाई का साधन मानता है। लोक कल्याणकारी राज्य से मिल समुदायवादी लोकतंत्र स्वैच्छिक संगठनों के माध्यम से सामाजिक विकास की प्राप्ति का समर्थक है।

समुदायवाद व्यक्तिगत चयन के अधिकार की अपेक्षा सामाजिक चयन व सामाजिक व्यवहार का पक्षधर है इसलिए वैश्विकता की अपेक्षा स्थानीयता का इसके अन्तर्गत समर्थन किया गया है। समुदायवाद सामाजिक असन्तुलन को दूर करने के लिए कर्तव्य व नैतिक उत्तरदायित्व पर बल देता है।


समुदायवाद के चार आधार


समुदायवाद के चार आधार निम्नलिखित हैं-

(1) परम्पराओं की अपेक्षा नहीं की जा सकती।
(II) अधिकारों के साथ-साथ न्याय की स्थापना के लिए नागरिक कर्तव्यों की भी आवश्यकता होती है।
(III) मनुष्य की सामाजिक प्रतिक्रियाएँ होती है।
(iv) सामाजिक भावनाओं में कमी आने से सामाजिक स्थिति बिगड़ती है।

समुदायवादी विचारों के अंतर्गत किसी समुदाय के हित को उसकी परम्पराओं, प्रथाओं व मान्यताओं के संदर्भ में ही समझा जा सकता है। माइकल वाल्जर ने अपनी कृति एपेयर ऑफ जीन्टस में रॉल्स के वितरणात्मक न्याय की आलोचना की है।
बाल्जर के अनुसार समाज में सरल व विषम दो प्रकार की समानताएँ होती हैं। सरल समानता का अर्थ है वस्तुओं का समान वितरण जबकि विषम समानता इस मान्यता पर आधारित है विभिन्न विभिन्न सामाजिक वस्तुएँ भिन्न आधारों पर ही तथा भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में वितरण के लिए बनाई गई हैं।

वाल्जर ने समकालिक समाजों में विषम समानता की ही न्यायपूर्ण माना है। बाल्जर के अनुसार नौकरशाही के द्वारा पारदर्शिता की स्थापना व्यक्तियों के द्वारा सामूहिक परिश्रम, सामाजिक-धार्मिक जीवन में राज्य का अहस्तक्षेप, सामाजिक आन्दोलनों, सभाओं इत्यादि के द्वारा सार्वजनिक मुद्दों पर वाद-विवाद ही न्यायपूर्ण दशा है। समुदायवादी विचारों के अंतर्गत मैकिन टायर मारकल तथा सैडल के विचार भी महत्त्वपूर्ण हैं। मेकिन टायर के अनुसार उदारवादी विचारें में नैतिकता का न्यूनीकरण होता है। रॉल्स ने अपनी कृति पॉलिटिकल लिबरेलिज्म में इन आलोचनाओं का उत्तर देने की कोशिश है परन्तु यह सच है कि रॉल्स की कृति ने राजनीतिक सिद्धान्त को शुष्कता को दूर किया तथा उदारवादी मान्यताओं के अंतर्गत समुदायवादी विचारों की प्रबलता को पुष्ट किया।



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  भारतीय संविधान सभा तथा संविधान निर्माण |Indian Constituent Assembly and Constitution making संविधान निर्माण की सर्वप्रथम मांग बाल गंगाधर तिलक द्वारा 1895 में "स्वराज विधेयक" द्वारा की गई। 1916 में होमरूल लीग आन्दोलन चलाया गया।जिसमें घरेलू शासन सचांलन की मांग अग्रेजो से की गई। 1922 में गांधी जी ने संविधान सभा और संविधान निर्माण की मांग प्रबलतम तरीके से की और कहा- कि जब भी भारत को स्वाधीनता मिलेगी भारतीय संविधान का निर्माण -भारतीय लोगों की इच्छाओं के अनुकुल किया जाएगा। अगस्त 1928 में नेहरू रिपोर्ट बनाई गई। जिसकी अध्यक्षता पं. मोतीलाल नेहरू ने की। इसका निर्माण बम्बई में किया गया। इसके अन्तर्गत ब्रिटीश भारत का पहला लिखित संविधान बनाया गया। जिसमें मौलिक अधिकारों अल्पसंख्यकों के अधिकारों तथा अखिल भारतीय संघ एवम् डोमिनियम स्टेट के प्रावधान रखे गए। इसका सबसे प्रबलतम विरोध मुस्लिम लीग और रियासतों के राजाओं द्वारा किया गया। 1929 में जवाहर लाला नेहरू की अध्यक्षता में कांग्रेस का लाहौर सम्मेलन हुआ। जिसमें पूर्ण स्वराज्य की मांग की गई। 1936 में कांग्रेस का फैजलपुर सम्मेलन आयोजित किया गय

भारतीय निर्वाचन आयोग और परिसीमन आयोग |Election Commission of India and Delimitation Commission

  भारतीय निर्वाचन आयोग और परिसीमन आयोग परिसीमन आयोग भारत के उच्चतम न्यायालय के अवकाश प्राप्त न्यायाधीश न्यायमूर्ति कुलदीप सिंह की अध्यक्षता में 12 जुलाई 2002 को परिसीमन आयोग का गठन किया गया। यह आयोग वर्ष 2001 की जनगणना के आधार पर निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन करेगा। दिसंबर 2007 में इस आयोग ने नये परिसीमन की संसुतिति भारत सरकार को सौंप दी। लेकिन सरकार ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया। इस पर उच्चतम न्यायलय ने, एक दाखिल की गई रिट याचिका पर केंद्र सरकार को नोटिस जारी की। फलस्वरूप कैविनेट की राजनीतिक समिति ने 4 जनवरी 2008 को इस आयोग की संस्तुतियों को लागु करने का निश्चय किया। 19 फरवरी 2008 को राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल ने इस परिसीमन आयोग को लागू करने की स्वीकृति प्रदान की। परिसीमन •    संविधान के अनुच्छेद 82 के अधीन, प्रत्येक जनगणना के पश्चात् कानून द्वारा संसद एक परिसीमन अधिनियम को अधिनियमित करती है. •    परिसीमन आयोग परिसीमन अधिनियम के उपबंधों के अनुसार संसदीय निर्वाचन क्षेत्रों के सीमाओं को सीमांकित करता है. •    निर्वाचन क्षेत्रों का वर्तमान परिसीमन 1971 के जनगणना आँकड़ों पर आधारित

विनायक दामोदर सावरकर की जीवनी एवं विचार/Biography and Thoughts of Vinayak Damodar Savarkar

   विनायक दामोदर सावरकर/Vinayak Damodar Savarkar विनायक दामोदर सावरकर विनायक दामोदर सावरकर का जन्म महाराष्ट्र (आधुनिक मुम्बई) प्रान्त के नासिक के निकट भागुर गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम दामोदर पन्त सावरकर एवं माता का नाम राधाबाई था। विनायक दामोदर सावरकर की पारिवारिक स्थिति आर्थिक क्षेत्र में ठीक नहीं थी। सावरकर ने पुणे से ही अपनी क्रान्तिकारी प्रवृत्ति की झलक दिखानी शुरू कर दी थी जिसमें 1908 ई. में स्थापित अभिनवभारत एक क्रान्तिकारी संगठन था। लन्दन में भी ये कई शिखर नेताओं (जिनमें लाला हरदयाल) से मिले और ब्रिटिश विरोधी गतिविधियों का संचालन करते रहे। सावरकर की इन्हीं गतिविधियों से रुष्ट होकर ब्रिटिश सरकार द्वारा उन्हें दो बार 24 दिसम्बर, 1910 को और 31 जनवरी, 1911 को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई जो विश्व के इतिहास की पहली एवं अनोखी सजा थी। विनायक दामोदर द्वारा लिखित पुस्तकें (1) माई ट्रांसपोर्टेशन फॉर लाइफ (ii) हिन्दू-पद पादशाही (iii) हिन्दुत्व (iv) द बार ऑफ इण्डियन इण्डिपेण्डेन्स ऑफ 1851 सावरकर के ऊपर कलेक्टर जैक्सन की हत्या का आरोप लगाया गया जिसे नासिक षड्यंत्र केस में नाम से जाना

भारतीय संविधान के भाग |Part of Indian Constitution

  भाग 1  संघ और उसके क्षेत्र- अनुच्छेद 1-4 भाग 2  नागरिकता- अनुच्छेद 5-11 भाग 3  मूलभूत अधिकार- अनुच्छेद 12 - 35 भाग 4  राज्य के नीति निदेशक तत्व- अनुच्छेद 36 - 51 भाग 4 A  मूल कर्तव्य- अनुच्छेद 51A भाग 5  संघ- अनुच्छेद 52-151 भाग 6  राज्य- अनुच्छेद 152 -237 भाग 7  संविधान (सातवाँ संशोधन) अधिनियम,- 1956 द्वारा निरसित भाग 8  संघ राज्य क्षेत्र- अनुच्छेद 239-242 भाग 9  पंचायत - अनुच्छेद 243- 243O भाग 9A  नगर्पालिकाएं- अनुच्छेद 243P - 243ZG भाग 10  अनुसूचित और जनजाति क्षेत्र- अनुच्छेद 244 - 244A भाग 11  संघ और राज्यों के बीच संबंध- अनुच्छेद 245 - 263 भाग 12  वित्त, संपत्ति, संविदाएं और वाद -अनुच्छेद 264 -300A भाग 13  भारत के राज्य क्षेत्र के भीतर व्यापार, वाणिज्य और समागम- अनुच्छेद 301 - 307 भाग 14  संघ और राज्यों के अधीन सेवाएं- अनुच्छेद 308 -323 भाग 14A  अधिकरण- अनुच्छेद 323A - 323B भाग 15 निर्वाचन- अनुच्छेद 324 -329A भाग 16  कुछ वर्गों के लिए विशेष उपबंध संबंध- अनुच्छेद 330- 342 भाग 17  राजभाषा- अनुच्छेद 343- 351 भाग 18  आपात उपबंध अनुच्छेद- 352 - 360 भाग 19  प्रकीर्ण- अनुच्छेद 361 -367

PREAMBLE of India

 PREAMBLE WE, THE PEOPLE OF INDIA, having solemnly resolved to constitute India into a SOVEREIGN SOCIALIST SECULAR DEMOCRATIC REPUBLIC and to secure to all its citizens: JUSTICE, social, economic and political, LIBERTY of thought, expression, belief, faith and worship, EQUALITY of status and of opportunity: and to promote among them all  FRATERNITY assuring the dignity of the individual and the unity and integrity of the Nation,  IN OUR CONSTITUENT ASSEMBLY this twenty-sixth day of November, 1949, do HEREBY ADOPT, ENACT AND GIVE TO OURSELVES THIS CONSTITUTION.

राज्य की नीति के निदेशक तत्त्व |Directive Principles of State Policy

  36. परिभाषा- इस भाग में, जब तक कि संदर्भ से अन्यथा अपेक्षित न हो, 'राज्य' का वही अर्थ है जो भाग 3 में है। 37. इस भाग में अंतर्विष्ट तत्त्वों का लागू होना- इस भाग में अंतर्विष्ट उपबंध किसी न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय नहीं होंगे किंतु फिर भी इनमें अधिकथित तत्त्व देश के शासन में मूलभूत हैं और विधि बनाने में इन तत्त्वों को लागू करना राज्य का कर्तव्य होगा। 38. राज्य लोक कल्याण की अभिवृद्धि के लिए सामाजिक व्यवस्था बनाएगा- राज्य ऐसी सामाजिक व्यवस्था की, जिसमें सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय राष्ट्रीय जीवन की सभी संस्थाओं को अनुप्राणित करे, भरसक प्रभावी रूंप में स्थापना और संरक्षण करके लोक कल्याण की अभिवृद्धि का प्रयास करेगा। राज्य, विशिष्टतया, आय की असमानताओं को कम करने का प्रयास करेगा और न केवल व्यष्टियों के बीच बल्कि विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले और विभिन्न व्यवसायों में लगे हुए लोगों के समूहों के बीच भी प्रतिष्ठा, सुविधाओं और अवसरों की असमानता समाप्त करने का प्रयास करेगा। 39. राज्य द्वारा अनुसरणीय कुछ नीति तत्त्व- राज्य अपनी नीति का, विशिष्टतया, इस प्रकार संचालन करेगा कि सुनि

राजव्यवस्था के अति महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर/very important question and answer of polity

 राजव्यवस्था के अति महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर प्रश्‍न – किस संविधान संशोधन अधिनियम ने राज्‍य के नीति निर्देशक तत्‍वों को मौलिक अधिकारों की अपेक्षा अधिक प्रभावशाली बनाया?  उत्‍तर – 42वें संविधान संशोधन अधिनियम (1976) ने प्रश्‍न – भारत के कौन से राष्‍ट्रपति ‘द्वितीय पसंद'(Second Preference) के मतों की गणना के फलस्‍वरूप अपना निश्चित कोटा प्राप्‍त कर निर्वाचित हुए?  उत्‍तर – वी. वी. गिरि प्रश्‍न – संविधान के किस अनुच्‍छेद के अंतर्गत वित्‍तीय आपातकाल की व्‍यवस्‍था है?  उत्‍तर – अनुच्‍छेद 360 प्रश्‍न – भारतीय संविधान कौन सी नागरिकता प्रदान करता है?  उत्‍तर – एकल नागरिकता प्रश्‍न – प्रथम पंचायती राज व्‍यवस्‍था का उद्घाटन पं. जवाहरलाल नेहरू ने 2 अक्‍टूबर, 1959 को किस स्‍थान पर किया था ? उत्‍तर – नागौर (राजस्‍थान) प्रश्‍न – लोकसभा का कोरम कुल सदस्‍य संख्‍या का कितना होता है?  उत्‍तर – 1/10 प्रश्‍न – पंचवर्षीय योजना का अनुमोदन तथा पुनर्निरीक्षण किसके द्वारा किया जाताहै? उत्‍तर – राष्‍ट्रीय विकास परिषद प्रश्‍न – राज्‍य स्‍तर पर मंत्रियों की नियुक्ति कौन करता है?  उत्‍तर – राज्‍यपाल प्रश्‍न – नए

केन्द्र-राज्य सम्बन्ध और अंतर्राज्य परिषद | Center-State Relations and Inter-State Council

  केन्द्र-राज्य सम्बन्ध और अंतर्राज्य परिषद केन्द्र-राज्य सम्बन्ध- सांविधानिक प्रावधान अनुच्छेद 246:- संसद को सातवीं अनुसूची की सूची 1 में प्रगणित विषयों पर विधि बनाने की शक्ति। अनुच्छेद 248:- अवशिष्ट शक्तियां संसद के पास अनुच्छेद 249:-राज्य सूची के विषय के सम्बन्ध में राष्ट्रीय हित में विधि बनाने की शक्ति संसद के पास अनुच्छेद 250:- यदि आपातकाल की उद्घोषणा प्रवर्तन में हो तो राज्य सूची के विषय के सम्बन्ध में विधि बनाने की संसद की शक्ति अनुच्छेद 252:- दो या अधिक राज्यों के लिए उनकी सहमति से विधि बनाने की संसद की शक्ति अनुच्छेद 257:- संघ की कार्यपालिका किसी राज्य को निदेश दे सकती है अनुच्छेद 257 क:- संघ के सशस्त्र बलों या अन्य बलों के अभिनियोजन द्वारा राज्यों की सहायता अनुच्छेद 263:- अन्तर्राज्य परिषद का प्रावधान भारत के संविधान ने केन्द्र-राज्य सम्बन्ध के बीच शक्तियों के वितरण की निश्चित और सुस्पष्ट योजना अपनायी है। संविधान के आधार पर संघ तथा राज्यों के सम्बन्धों को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है: 1. केन्द्र तथा राज्यों के बीच विधायी सम्बन्ध। 2. केन्द्र तथा राज्यों के बीच प्रशासन