Skip to main content

प्लेटो/Plato/ प्राचीन यूनानी राजनीतिक विचार /ancient greek political thought/

प्राचीन यूनानी राजनीतिक विचार 

प्लेटो

प्लेटो का जन्म एथेन्स के समीपवर्ती इजिना (Aegina) नामक द्वीप में हुआ था। उनका परिवार सामन्त था। उनके पिता अरिस्ट्रोन तथा उनकी माता पेरिक्टोन इतिहास प्रसिद्ध कुलीन नागरिक थे। बाल्यावस्था में ही उनके पिता की मृत्यु हो गयी, अतः प्लेटो का पालन-पोषण उनके सौतेले पिता पादरी लेम्पीज ने किया। सर्वप्रथम उन्होंने संगीत, कविता, चित्रकला आदि का अध्ययन किया 404 ई. पू. ये सुकरात के शिष्य बने तथा संकरात के जीवन के अन्तिम क्षण तक उनके शिष्य बने रहे सुकरात की मृत्यु के बाद प्रजातन्त्र के प्रति इन्हें घृणा हो गयी। इन्होंने मेगारा, मिस्र, साएरी, इटली और सिसली आदि देशों की यात्रा की तथा अन्त में एथेन्स लौटकर अकादमी (Academy) की स्थापना की और अन्त तक इसके प्रधान आचार्य बने रहे। ई.पू. 345 में इनका देहान्त हो गया तथा सॉफिस्ट लोगों के अनुसार सुख ही सद्गुण है। सर्वप्रथम प्लेटो इसकी आलोचना करते हैं।

  1. जिस प्रकार सत्य तथा ज्ञान को इन्द्रिय-जन्य मानने से सत्य आत्मगत हो जाता है उसी प्रकार सद्गुण को सुख मानने से सद्गुण भी आत्मगत हो जाता है तथा इसका विषयगत, वस्तुनिष्ठ स्वरूप ही समाप्त हो जाता है। उसी प्रकार यदि व्यक्तिगत सुख ही सद्गुण है तो जिससे सुख प्राप्त हो वही उसके लिए सद्गुण है। इस प्रकार सद्गुण तथा नैतिकता पूर्णरूप से आत्मनिष्ठ, सापेक्ष हो जाती है। परन्तु नैतिकता का मापदण्ड तो वस्तुनिष्ठ, निरपेक्ष होना चाहिए। तात्पर्य यह है कि नैतिक मूल्य व्यक्तिनिष्ठ नहीं, वस्तुनिष्ठ होते हैं। यदि मेरे लिए जो सुखकर हो वही सद्गुण हो तो सद्गुण का बाह्य विषयगत रूप ही समाप्त हो जाएगा।
  2. सद्गुण को व्यक्तिगत मानने पर, अर्थात् नैतिक नियमों को आत्मगत मानने पर शुभ और अशुभ का भेद समाप्त हो जाता है। उदाहरणार्थ, कोई विषय किसी व्यक्ति को सुखकर प्रतीत हो सकता है तथा दूसरे व्यक्ति को दुःखकर प्रतीत हो सकता है। जिसके लिए सुखकर है उसके लिए वह विषय सुख है तथा जिसके लिए दुःखकर प्रतीत होता है उसके लिए अशुभ है। इस प्रकार एक ही विषय शुभ तथा अशुभ दोनों एक ही समय में प्रतीत हो सकता है। अतः शुभ और अशुभ, अच्छा और बुरा का भेद मिट जाता है। 
  3. यदि सद्गुण केवल सुख है तो नैतिकता का आधार भावना (Belief) सिद्ध होगी; क्योंकि सुख तो इच्छाओं की तृप्ति है तथा इच्छा तो भावना है। परन्तु भावनाएं व्यक्तिगत होती हैं तथा व्यक्तिगत भावना विषयगत नैतिकता का आधार नहीं बन सकती। नैतिक सहिता (Moral code) को सामान्य होना चाहिये तथा उसे सामान्य होने के लिए बुद्धि पर आबित होना चाहिये, व्यक्तिगत भावना पर आधारित नहीं। तात्पर्य है कि नैतिक नियमों को सार्वभौमि, सार्वजनीन होना चाहिये जिससे सभी लोग उनका पालन कर सकें।
  4. नैतिक मूल्यों को स्वयं मूल्यवान होना चाहिये, अर्थात् नैतिकता स्वयं अपना साध्य है। नैतिक नियमों का मूल्य आन्तरिक होता है, बाह्य नहीं। नैतिक कर्त्तव्य किसी अन्य उद्देश्य के लिए नहीं, वस्तु कर्तव्य' के लिए ही हो सकता है। हमें किसी कार्य को स्वयं साध्य मानकर करना चाहिये, न किसी फल की प्राप्ति के लिए नैतिक नियम तो आदेश है जिनका पालन किसी शर्त के बिना ही करना चाहिए। परन्तु यदि सद्गुण सुख है तो नैतिक नियम स्वयं साध्य नहीं, क्योंकि हम किसी कार्य को इसलिए करते हैं कि वह हमारे लिए सुखकर है।
    कुछ लोगों का कहना है कि उचित कार्य ही सद्गुण है। प्लेटो इसका भी खण्डन करते हैं। जिस प्रकार यथार्थ धारणा ज्ञान नहीं, उसी प्रकार उचित कार्य भी सद्गुण नहीं इसका कारण यह है कि जिस प्रकार यथार्थ धारणा का आधार गलत हो सकता है उसी प्रकार यह जानना पर्याप्त नहीं है क्या उचित है' बल्कि यह भी जानना आवश्यक है कि क्यों उचित है? किसी कार्य के औचित्य का पता लगाना तो बुद्धि का कार्य है। अतः यथार्थ सद्गुण उस उचित कार्य को कहते हैं जो सत्य मूल्यों के बौद्धिक ज्ञान पर आश्रित हो। प्लेटो के अनुसार सद्गुण दो प्रकार के है दार्शनिक सद्गुण (Philosophic virtue) तथा परम्परागत सद्गुण (Customary virtue) दार्शनिक सद्गुण तो केवल बुद्धि पर आधारित होता है। इसीलिए जो व्यक्ति उसके अनुसार कार्य करता है, वह इसके औचित्य को भी जानता है अर्थात् उसे इस बात का ज्ञान रहता है कि वह ऐसा क्यों कर रहा है। परम्परागत सद्गुण रीति-रिवाज, अभ्यास, आवेग (Impulse) तथा करुणापूर्ण भावना आदि पर आधारित रहता है। इस प्रकार के सद्गुणों के औचित्य का ज्ञान मनुष्य को नहीं। हम उचित कार्य केवल दूसरों को देखकर, परम्परा के अनुसार भी करते हैं जिसका कारण हम नहीं जानते। यह सामान्य, ईमानदार तथा प्रतिष्ठित व्यक्तियों का सद्गुण है। प्लेटो इसे मक्षिका और पिपीलिका (चींटी) का सद्गुण मानते हैं। प्लेटो के अनुसार मुख्य दार्शनिक सद्गुण चार हैं-प्रज्ञा (Wisdom) विवेकशील आत्मा का सद्गुण है, साहस (Courage) मर्त्यात्मा के पीछे अवशि का सद्गुण है आत्म-नियन्त्रण (Temperance) बुरे अर्थाश, अर्थात् वासनाओं का गुण है तथा न्याय (Justice) नामक सद्गुण अन्य गुणों के द्वारा उत्पन्न होता है। इस प्रकार प्लेटो के चार मूलभूत सद्गुण हैं जिनमें प्रथम तीन तो आत्मा के तीन भागों के अनुरूप हैं तथा चौथा (अन्तिम) तीनों के बीच एकता स्थापित करता है। न्याय नामक सद्गुण तभी उत्पन्न होता है जब आत्मा के तीनों भाग पारस्परिक सहयोग से अपना-अपना कार्य सुचारु रूप से करते हैं। अतः न्याय तीनों में सामजस्य (Harmony) है। इस प्रकार न्याय दार्शनिक सद्गुणों में सर्वश्रेष्ठ है। प्लेटो दार्शनिक के लिए न्याय को सबसे महत्वपूर्ण बतलाते हैं। न्यायनिष्ठ व्यक्ति ही दार्शनिक होता है या दार्शनिक ही न्यायनिष्ठ होता है। सम्भवतः इसी कारण न्यायनिष्ठ व्यक्ति या दार्शनिक को ही प्लेटो देश का शासक मानते हैं।

    न्याय प्लेटो के अनुसार सर्वोच्च सद्गुण है। इसका कारण यह है कि इस सद्गुण में अन्य सभी सद्गुण समाहित हैं, अर्थात् यह सभी सद्गुणों का विकसित रूप है। न्यायनिष्ठ व्यक्ति ही परम विवेकी, राज्य का सर्वोच्च शासक हो सकता है। प्लेटो राज्य और व्यक्ति की नैतिकता में अभेद बतलाते हैं। उनके अनुसार राजये का चरित्र तो राज्य के नागरिकों का चरित्र है। राज्य के नागरिकों को तीन बर्गों में विभाजित किया जा सकता है कृषक, रक्षक और शासक कृषक खेती-बाड़ी, व्यापार K से राज्य को समृद्ध बनाता है। रक्षक सैनिक वर्ग है जो राज्य की सुरक्षा करता है ।(शासक विवेकी व्यक्ति होता है तो नागरिकों पर शासन करता है। इसी प्रकार नागरिक के भी तीन गुण हरवासना, साहस और विवेक । (वासना प्रधान व्यक्ति कृषक है) साहत प्रधान संरक्षक है तथा विवेक प्रधान नागरिक शासक होता है। विवेक के अन्तर्गत अन्य सभी सद्गुण जा जाते हैं। अतः विवेक सर्वश्रेष्ठ सद्गुण है। इसी प्रकार शासक सर्वोच्च व्यक्ति है, क्योंकि वही दार्शनिक विवेकी व्यक्ति होता है, वही न्यायनिष्ठ होता है। अतः न्याय और विवेक में अभेद माना गया है।

वासना, साहस और सभी विवेक के अधीन है। विवेक का संबंध न्याय से है। अतः न्याय सर्वोच्च सद्गुण है। प्लेटो का कहना है कि वही राज्य पूर्ण है जिसमें न्याय हो, अर्थात् जिसके नागरिकों में सभी सद्गुण हो। उदाहरणार्थ, कृषक या व्यापारी वर्ग राज्य की समृद्धि करे, रक्षक वर्ग साहसपूर्वक राज्य की रक्षा करे तथा शासक विवेकपूर्ण राज्य को चलाए। इस विवरण से स्पष्ट होता है कि प्लेटो का न्याय सभी वर्ग के व्यक्तियों का पूर्ण रूप है, आदर्श है। यदि राज्य के सभी नागरिक अपने स्वरूप को पहचानें, अपने स्वाभाविक कार्य को करें, दूसरों के कार्य में बाधा न दें तो उस राज्य में न्याय होगा। दूसरे शब्दों में, यदि सभी वर्ग अपने स्वधर्म में रत रहें तथा परधर्म से विरत रहे तभी न्याय होगा, अन्यथा नहीं। तात्पर्य यह है कि जब व्यक्ति में बासना, साहस, बुद्धि आदि सबका नियन्त्रण होगा तभी न्याय नामक सर्वोच्च सद्गुण उत्पन्न होगा। यदि वासना, साहस आदि न रहे तो न्याय नहीं होगा। अतः न्याय सभी सद्गुणों का सामञ्जस्य है, सर्वोच्च है। इसका महत्व तो सर्वोपरि है, परन्तु इसकी उत्पत्ति स्वतन्त्र नहीं। यह तभी उत्पन्न होगा जब व्यक्ति में अन्य सभी सद्गुण सम्यक् रूप से विद्यमान हो। जिस व्यक्ति में वासना, साहस, बुद्धि आदि ठीक प्रकार से कार्य करते हों, उसी में विवेक होगा, यही न्यायनिष्ठ होगा। उसी प्रकार जिस प्रकार जिस राज्य में सभी नागरिक अपने-अपने कर्तव्य का पालन करें तो वह राज्य पूर्ण होगा, नैतिक होगा, आदर्श होगा अतः न्याय व्यक्ति और राज्य दोनों का आदर्श है।

एक आवश्यक प्रश्न यहाँ यह उपस्थित होता है कि न्याय व्यक्ति का गुण है या राज्य या समाज का? यदि न्याय व्यक्ति का गुण है तो इसे व्यक्तिगत या आत्मगत कहा जाएगा तथा नैतिकता व्यक्तिगत होगी। यदि यह समाज या राज्य का गुण है तो इसका स्वरूप नैतिकता व्यक्तिगत होगी। यदि यह समाज या राज्य का गुण है तो इसका स्वरूप आन्तरिक न होकर बाह्य होगा। यह वस्तुनिष्ठ सामाजिक आदर्श होगा। अतः प्रश्न यह है कि न्याय आत्मनिष्ठ है या वस्तुनिष्ठ, आन्तरिक है या बाल इसका उत्तर यह है कि प्लेटो न्याय का स्वरूप तो अवश्य याह्य मानते हैं (यह राज्य या समाज का आदर्श है), परन्तु न्याय व्यक्ति से भिन्न नहीं। यह सामाजिक पूर्णता या आदर्श अवश्य है, परन्तु इसकी अभिव्यक्ति व्यक्ति के माध्यम से होती है। व्यक्ति के बिना विवेक कहाँ और विवेक के बिना न्याय कहाँ? प्लेटो के अनुसार न्याय तो आत्मा के शुभांश विवेक का गुण है। अतः यह आत्मनिष्ठ या व्यक्तिगत अवश्य है। आध्यात्मिक गुण होने के कारण यह व्यक्ति की आत्मा में निवास करता है। न्याय तो व्यक्ति में विवेक का परिचायक है और विवेक व्यक्ति का आध्यात्मिक (शुभ अयांश) गुण है, अतः यह व्यक्तिगत है। परन्तु व्यक्ति में निवास करते हुए भी न्याय समाज या राज्य का आदर्श है। प्लेटो इसे एक उपमा द्वारा स्पष्ट करते हैं। उनके अनुसार समाज और व्यक्ति में जीवाणु और जीव का सम्बन्ध है। तात्पर्य यह है कि व्यक्ति में जो भी विशेषताएँ अल्प रूप में पाई जाती हैं, वे ही राज्य या समाज में विशाल रूप में उपलब्ध होती है। अतः व्यक्ति के गुण हो राज्य गुण है। राज्य के नियम व्यक्ति के नियमों के बाह्य रूप है। राज्यों का जन्म वृक्षों या चट्टानों से नहीं, वरन उसमें रहने वाले मनुष्यों के चरित्र से होता है। इस प्रकार वीरों का राज्य भी वीर और नपुंसकों का राज्य नपुंसक होगा। इस प्रकार राज्य व्यक्तिगत चेतना भी बाह्य अभिव्यक्ति है। यदि राज्य के नागरिक अनैतिक हो तो राज्य भी अनैतिक ही होगा। व्यक्ति के गुण, वासना, साहस, बुद्धि (विवेक) आदि हैं। इसी के अनुसार राज्य के नागरिक भी कृपक, रक्षक और शासक आदि है। अतः राज्य व्यक्ति का विराट रूप है। व्यक्ति में वासना, साहस, बुद्धि आदि जब सम्यक् रूप से कार्य करते हैं तो विवेक का अभ्युदय होता है। यह विवेक ही न्याय का परिचायक है। इसी प्रकार राज्य में कृषक, रक्षक, शासक आदि सभी के सुचारू रूप से कार्य सम्पादन से न्याय नामक राज्य में गुण उत्पन्न होता है। उत्पत्ति तो व्यक्ति के द्वारा होती है, परन्तु इसकी अभिव्यक्ति समाज या राज्य के माध्यम से होती है। न्याय के दो है-राज्य संबंधी और व्यक्ति संबंधी प्रथम के विषय में प्लेटो का कहना है कि न्याय राज्य के सभी सद्गुणों का आधार है। न्याय के बिना राज्य पूर्ण नहीं हो सकता। राज्य के सभी नागरिकों को अपने-अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए। इससे राज्य आत्म-निर्भर होगा। यह न्याय का सामाजिक या बाह्य स्वरूप है। व्यक्ति संबंधी न्याय पर विचार करते हुए प्लेटो का कहना है कि व्यक्ति राज्यरूपी शरीर का एक अंग है। व्यक्ति में विवेक (न्याय) होने से राज्य में न्याय होगा, अन्यथा नहीं।

शुभ, आनन्द और सन्तुलित जीवन

अन्त में एक आवश्यक प्रश्न यह है कि प्लेटो के अनुसार शुभ क्या है? किस कार्य को हम नैतिक दृष्टि से शुभ या उचित कह सकते हैं? इस सम्बन्ध में हमने पहले सिरेनाइक और सिनिक सम्प्रदाय के मत का उल्लेख किया है। इन सम्प्रदायों की मान्यता है कि व्यक्तिगत सुख ही शुभ है, अर्थात् जिस कार्य से व्यक्ति को सुख मिले वही कार्य व्यक्ति के लिए शुभ है। यह इन्द्रियजन्य भौतिक सुख है। ठीक इसके विपरीत अन्य लोगों ने इन्द्रिय सुख की अवहेलना की है। उनके अनुसार बौद्धिक सुख या आनन्द ही यथार्थ सुख है। अतः जिस कार्य से बौद्धिक आनन्द की प्राप्ति हो वही कार्य शुभ है। प्लेटो इन दोनों मतों को एकांगी (One-sided) बतलाते हैं तथा अन्त में दोनों का समन्वय संतुलित जीवन में करते हैं।

प्रश्न यह है कि शुभ क्या है? कुछ लोग इन्द्रिय सुख को ही शुभ मानते हैं। तात्पर्य यह है कि जिस कार्य से इन्द्रियों को सुख प्राप्त हो वही कार्य शुभ है, उचित है। प्लेटो इन्द्रिय, भौतिक सुख को यथार्थ सुख नहीं मानते। इन्द्रिय सुख के विरुद्ध प्लेटो के तर्क निम्नलिखित हैं 
(क) शुभ स्वतः शुभ है। यह किसी वस्तु की अपेक्षा से शुभ नहीं होता। यदि शुभ की सत्ता वस्तु के अधीन हो तो वह निरपेक्ष और स्वतन्त्र शुभ नहीं। यदि वह सापेक्ष और परतन्त्र है तो सर्वमान्य शुभ नहीं हो सकता। तात्पर्य यह है कि सबके लिए शुभ है। सबका शुभ किसी या वस्तु की अपेक्षा नहीं करता।
(ख) इन्द्रिय सुख को शुभ नहीं स्वीकार किया जा सकता, क्योंकि इन्द्रिय सुख का स्वरूप भिन्न-भिन्न है। किसी वस्तु से हमारी इन्द्रियों को सुख मिल सकता है, परन्तु यह आवश्यक नहीं कि उसी वस्तु से दूसरे की इन्द्रियों को भी वैसा ही सुख मिले। इसका कारण यह है कि इन्द्रिय सुख का स्वरूप भिन्न-भिन्न है। अतः इन्द्रिय सुख को सर्वमान्य नहीं स्वीकार किया जा सकता। इन्द्रियों का कोई ऐसा विषय नहीं जो सभी को समानतः सुखद प्रतीत हो।
(ग) इन्द्रिय-सुख दुःख से उत्पन्न होता है। प्रायः सभी भौतिक सुख दुःख से उत्पन्न होते हैं। हम किसी कमी या अभाव का अनुभव करते हैं। यह दुःख या पीड़ा की स्थिति है। इस अभाव को दूर करते हैं तो अभाव भाव में, दुःख या सुख में बदल जाता है। इस प्रकार का सुख शुभ नहीं कहा जा सकता, क्योंकि शुभ की अपनी सत्ता है। यह मानव मात्र का लक्ष्य है। यह किसी अभाव या कमी से नहीं उत्पन्न होता। अतः शुभ मूलतः भाव पदार्थ है। भाव पदार्थ होने के कारण ही यह मानव मात्र का लक्ष्य होता है।

उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि इन्द्रिय सुख शुभ नहीं। भौतिक सुख हमारे कार्यों का मापदण्ड नहीं हो सकता। इसके विपरीत कुछ लोगों का कहना है कि शुभ का स्वरूप बौद्धिक है। तात्पर्य यह है कि बौद्धिक सुख अर्थात् आनन्द ही शुभ है, कार्यों का नैतिक मापदण्ड है। बौद्धिक सुख व्यक्तिगत नहीं, सामान्य सुख है। यह भावनाजन्य नहीं बुद्धिजन्य है। भावनाओं के कारण व्यक्ति व्यक्ति में भेद है, बुद्धि या चिन्तन के कारण सभी व्यक्तियों में अभेद है। विचार या चिन्तन से सभी में एकता है, परन्तु भावनाओं से अनेकता। भावनाओं के वश में होकर ही व्यक्ति व्यक्तिगत तथा इन्द्रिय सुख चाहता है। विचार की दृष्टि से सभी के सुख में क्षमता है। यही सर्वमान्य सुख शुभ है। इससे स्पष्ट है कि हमारे लिए वही कार्य शुभ है जिससे सबको सुख प्राप्त हो। परन्तु इस सिद्धान्त में एक कठिनाई है। भावना और बुद्धि के क्षेत्र को बिस्कुल पृथक कर देना कठिन कार्य है। कोई ऐसा सुख नहीं जिसका संबंध केवल विचार से हो और इन्द्रियों से नहीं विचार का जगत भावनाओं के बिना अधूरा है। सामान्य तथा सर्वमान्य सुख का अनुभव भी व्यक्ति की भावनाओं से ही सम्भव है। कोई भी व्यक्ति केवल सुख के विचार से ही सुखी नहीं हो सकते। सुख की सामग्री या उपादान के बिना सुख का विचार निराधार है। सुख की सामग्री हमें इन्द्रियों के माध्यम से ही प्राप्त होती है अतः इन्द्रियों या भावनाओं की नितान्त उपेक्षा सम्भव नहीं। इन्द्रियों के माध्यम से ही विचार के उपकरण प्राप्त होते हैं। विशेष के बिना सामान्य की सत्ता नहीं।

प्लेटो इन्द्रिय सुख और बौद्धिक सुख, भावना और बुद्धि दोनों का समन्वय करते हैं। प्लेटो के अनुसार संतुलित तथा सामन्जस्य पूर्ण जीवन के लिये दोनों की आवश्यकता होती है। दोनों का सामञ्जस्य ही सुख है तथा सुख ही शुभ है। प्लेटो के अनुसार कोई सुख कोई अभाव या दुःख से ही उत्पन्न होता है। यह इन्द्रिय या नैतिक सुख है। वह व्यक्तिगत भावनात्मक, स्तर का सुख है। परन्तु इससे चढ़कर सामान्य स्तर का सुख है। जिसे बौद्धिक सुख कहते हैं। यह शुभ आनन्द है। यह इन्द्रिय मुख के समान अभाव से उत्पन्न नहीं होता। यह पहले ही अपेक्षा श्रेयस्कर है, परन्तु शुभ के लिए दोनों की आवश्यकता है।

इन्द्रिय सुख और बौद्धिक सुख का समन्वय हो जीवन की सुव्यवस्था (Harmoneous life) है। सुव्यवस्थित जीवन को ही प्लेटो कल्याणमय (Well-being) बतलाते हैं। केवल वही व्यक्ति सुखी हो सकता है तथा कल्याणमय जीवन व्यतीत कर सकता है जिसके जीवन में संतुलन और सुव्यवस्था हो। इस प्रकार जीवन को सुव्यस्थित ढंग से चलाने के लिए या कल्याणमय जीवन व्यतीत करने के लिए इन्द्रिय और बौद्धिक सुख का समन्वय आवश्यक है। प्रश्न यह है कि इस समन्वय तथा सुव्यवस्था के इन्द्रिय सुख और बौद्धिक सुख की मात्रा क्या होगी? प्लेटो के अनुसार मात्रा का निर्णय विवेक (Wisdom) के अधीन है। सात्पर्य यह है कि हमारा विवेक ही निर्णय कर सकता है कि किस सुख का हमें किस मात्रा में अपनाना चाहिए, जिससे हमारा जीवन सुखी हो, कल्याणमय हो। संक्षेप में, समन्वित तथा सुव्यस्थित जीवन ही सुखी तथा कल्याणमय जीवन है। यही शुभ है। अपने शुभ तथा सुख के सिद्धान्त में प्लेटो पूर्णतः समन्वयवादी हैं। ये सिनिक और सिरेनाइक दोनों सम्प्रदाय की मान्यताओं का समन्वय करते हैं। हमने पहले विचार किया है कि इन दोनों की मान्यताएँ नितान्त भिन्न-भिन्न है। एक भोग को दूसरा योग को, एक आसक्ति को दूसरा विरक्ति को एक संसार को दूसरा संन्यास को आदर्श मानता है। प्लेटो इन दोनों का समन्वय करते हैं। आसक्ति और विरक्ति दोनों आवश्यक है। किसी की अवहेलना उचित नहीं। वस्तुतः सुखी जीवन समन्वित सुव्यवस्थित होता है।

रिपब्लिक

प्लेटो की सर्वश्रेष्ठ कृति 'रिपब्लिक है। प्लेटो ने इस कृति में दार्शनिक शासक व न्याययुक्त आदर्श राज्य की कल्पना की है। अनेस्ट बार्कर ने रिपब्लिक को पाँच भागों में वर्गीकृत किया है
  1. आध्यात्मिक भाग-इसमें अच्छा भला या नेक क्या है, इस प्रश्न पर विचार किया गया है।
  2. नैतिक भाग-इस भाग में मानव आत्मा के गुणों पर प्रकाश डाला गया है।
  3. शिक्षा-इस भाग में शिक्षा व्यवस्था पर चर्चा की गई है।
  4. सम्पत्ति और परिवार इसमें सम्पत्ति विषयक व परिवार विषयक साम्यवाद की चर्चा की गई है।
  5. आदर्श राज्य का पतन-प्लेटो ने इस भाग में बताया है कि यदि आदर्श राज्य के नियमों का पालन न किया गया तो आदर्श राज्य का पतन हो जाएगा।

बकर रिपब्लिक के बारे में लिखते हैं कि यह वास्तविक जीवन पर आधारित है। इमर्सन ने प्लेटो के बारे में कहते है कि 'प्लेटो दर्शन है तथा दर्शन प्लेटो है।"

प्लेटो के न्याय सम्बन्धी विचार

रिपब्लिक में प्लेटो का अपनी पुस्तक का मुख्य उद्देश्य न्याययुक्त आदर्श राज्य की स्थापना करना था अपने न्याय सिद्धान्त का प्रतिपादन करने के लिए अपने पात्रों के संवादों के माध्यम से प्लेटो ने सर्वप्रथम तात्कालिक समय में प्रचलित न्याय के तीन सिद्धान्तों का खण्डन किया था।
  1. परम्परावादी सिद्धान्त (सेफेल्स का सिद्धान्त) 
  2. उग्रवादी सिद्धान्त (ग्रेसीमैक्स)
  3. व्यवहारवादी अथवा ग्लाको का सिद्धान्त
प्लेटो के अनुसार न्याय मानव आत्मा से सम्बन्धित है। मानव आत्मा के तीन तत्त्व बुद्धि, शौर्य और तृष्णा जब उचित अनुपात में पाए जाते हैं तो वैयक्तिक न्याय की स्थापना की जाती है। प्लेटो के अनुसार राज्य का निर्माण उसमें निवास करने में वाले व्यक्तियों से ही होता है। मानव आत्मा के तीन तत्त्वों से राज्य के तीन भागों का निर्माण होता है जिन व्यक्तियों में बुद्धि तत्त्व होता है। जो दार्शनिक वर्ग का निर्माण करते हैं। जिन व्यक्तियों में शौर्य तत्त्व अधिक होता है वे सैनिक वर्ग का निर्माण करते हैं, जिनमें तृष्णा तत्त्व अधिक होता है वे उत्पादक वर्ग का निर्माण करते हैं।

प्लेटो के कहने के अनुसार जब ये तीनों वर्ग अपना पृथक-पृथक कार्य करते हैं और दूसरों के कार्य में हस्तक्षेप नहीं करते, तभी राज्य में न्याय स्थित रहता है। अतः न्याय कर्तव्य पालन से परे कोई वस्तु नहीं है। इस प्रकार प्लेटो दो प्रकार के न्याय की चर्चा करता है।

1. व्यक्ति से सम्बन्धित न्याय

प्लेटो न्याय सिद्धान्त को नैतिकता से सम्बन्धित मानता है न कि कानूनी अवधारणा के रूप में स्वीकारते हैं। इसलिए पे न्याय का आधार कर्तव्य पालन बताते हैं। इसीलिए प्लेटो न्याय को मानव आत्मा से सम्बन्धित मानते हैं और मानव आत्मा के उन्हीं तीन तत्त्वों से निर्मित राज्य के तीन वर्गों की एकता पर बल देता है।
प्लेटो का न्याय सिद्धान्त श्रम विभाजन, अहस्तक्षेप व कार्य विशिष्टीकरण पर आधारित है। प्लेटो के अनुसार, प्रत्येक नागरिक केवल उस कार्य को ही करेगा जो उसकी आत्मा की प्रधान प्रवृत्ति के अनुसार है। उसका मत कि नागरिकों को उनकी आत्मा का प्रधान प्रवृत्ति के अनुसार शासक वर्ग, सैनिक वर्ग तथा उत्पादक वर्ग में विभाजित किया जाना चाहिए और प्रत्येक नागरिक को केवल अपने वर्ग से संबंधित कार्य को ही करना चाहिए। प्लेटो यह भी कहते हैं कि प्रत्येक वर्ग अपना कार्य करना चाहिए तथा दूसरे वर्ग के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। अतः इस आधार पर कहा जाता है कि प्लेटो प्रत्येक व्यक्ति को विशेष गुण के अनुरूप एक-सा ही कार्य करने का निर्देश देते हैं।

2. राज्य से संबंधित न्याय

प्लेटो का न्याय सिद्धान्त व्यक्ति की तुलना में राज्य को महत्व देता है। अतः इस आधार पर न्याय सिद्धान्त समष्टिवादी है। प्लेटो की न्याय व्यवस्था में व्यक्ति का नहीं अपितु उसके वर्ग का महत्व है।
प्लेटो आदर्श राज्य में न्याय की स्थापना के लिए दो आधार तत्त्वों पर बल देते हैं-शिक्षा व साम्यवाद का सिद्धान्त। प्लेटो के अनुसार, अभिभावक (दार्शनिक और सैनिक वर्ग) में सद्गुणों का विकास राज्य द्वारा नियंत्रित लम्बी शिक्षा पद्धति की व्यवस्था करता है। प्लेटो सैद्धान्तिक के साथ-साथ व्यावहारिक शिक्षा पर भी बल देते हैं। प्लेटो के अनुसार शिक्षा द्वारा उत्पन्न सद्गुण विपरीत वातावरण में नष्ट हो सकते हैं। इसलिए प्लेटो अभिभावक वर्ग के लिए सम्पत्ति और परिवार विषयक साम्यवाद की भी व्यवस्था करता है। इस प्रकार प्लेटो आधुनिक न्याय के विपरीत न्याय को नैतिक व मानव आत्मा के अनुरूप चित्रित करते हैं।

प्लेटो के न्याय सिद्धान्त की निम्न आधार पर आलोचन की गई है, यथा
  1. यह आधुनिक कानूनी धारणा के अनुरूप नहीं है, अतः इसलिए यह व्यावहारिक नहीं है। 
  2. प्लेटो का सिद्धान्त व्यक्ति के अधिकारों की पूर्ण उपेक्षा करता है। और व्यक्ति के कर्तव्यों पर बल देता है।
  3. प्लेटो के न्याय का कार्य विशेषीकरण सिद्धान्त व्यक्ति की स्वतंत्रता के खिलाफ है।
  4. प्लेटो का न्याय सिद्धान्त अभिजाततंत्र का समर्थक और प्रजातंत्र विरोधी है। प्लेटो न्याय की स्थापना के लिए निरंकुशता का मार्ग प्रशस्त करता है इसलिए वे दार्शनिक वर्ग को असीमित शक्तियों

प्लेटो के शिक्षा सम्बन्धी विचार

    प्लेटो ने न्याय की स्थापना के लिए दो आधार स्तम्भों की आवश्कताओं पर बल दिया है। प्रथम शिक्षा सिद्धान्त तथा द्वितीय साम्यवादी सिद्धान्त प्लेटो ने रिपब्लिक में शिक्षा पर इतने विस्तार से लिखा कि रूसो ने रिपब्लिक को शिक्षा पर लिखा गया न्य के रूप में सम्बोधित किया है। प्लेटो के अनुसार एक आदर्श राज्य नागरिकों के श्रेष्ठ चरित्र पर ही स्थिर रह सकता है और नागरिकों में सचरित्र और सद्गुणों का विकास शिक्षा द्वारा ही सम्भव है प्लेटो के कथनानुसार "शिक्षा मानसिक रोग का मानसिक उपचार है।"
प्लेटो ने अपनी शिक्षा योजना के तहत शिक्षा कार्यक्रम को दो भागों में वर्गीकृत किया है
  1. प्रारंभिक शिक्षा एवं 
  2. उच्च शिक्षा
प्लेटो का यह विभाजन दो आधारों पर किया गया है- पहला अवस्था के आधार पर और दूसरा वर्ग के आधार पर प्रारंभिक शिक्षा एक ओर तो बाल्यकाल से युवावस्था तक के लिए है और दूसरी ओर सैनिक वर्ग के लिए है। इसी प्रकार उच्च शिक्षा एक ओर तो युवावस्था से प्रौढ़ावस्था तक है और दूसरी ओर शासक वर्ग के लिए है।

प्लेटो अपनी शिक्षा योजना को प्रस्तुत करता है प्रारंभिक शिक्षा को प्लेटो तीन भागों में विभाजित करता है। 
  1. प्रारंभिक ९ वर्ष तक की नैतिक व धार्मिक शिक्षा 
  2. 6 से 18 वर्ष तक की बौद्धिक व शारीरिक व्यायाम) शिक्षा 
  3. 16 से 30 वर्ष तक अवस्था तक की कठोर सैनिक शिक्षा
रिपब्लिक में प्लेटो ने प्रारंभिक शिक्षा की जो योजना प्रस्तुत को है वह तत्कालीन प्रणाली का सुधार है। इस सुधार में एथेन्स के नागरिक के लड़के को मिलने वाली शिक्षा का स्पार्टा के तरुणों को मिलने वाली राजनीतिक शिक्षा के साथ समन्वय कर दिया गया था और दोनों की ही विषयवस्तु को काफी बदल दिया गया था। प्रारंभिक शिक्षा में प्लेटो शारीरिक, साहित्यिक और संगीतात्मक शिक्षा को सम्मिलित करता है।

उच्च शिक्षा

रिपब्लिक का सबसे मौतिक और महत्वपूर्ण सुझाव उच्चत्तम शिक्षा की व्यवस्था करना है। प्लेटो इस शिक्षा द्वारा चुने हुए विद्यार्थियों की 20 और 35 वर्ष की अवस्था के बीच में संरक्षक वर्ग के उच्चतम पदों के लिए तैयार करना चाहता था। प्लेटो की शिक्षा का औपचारिक कार्यक्रम 35 वर्ष की अवस्था में समाप्त हो जाता है। किन्तु इतने गम्भीर शिक्षण के बाद भी वह शासक की योग्यता हेतु शिक्षण को जपूर्ण मानता है। प्लेटो के अनुसार 50 वर्ष की आयु तक सांसारिक जीवन की कठोर परीक्षाओं में खरे उतरने वाले और लोक व्यवहार और शास्त्रों का गंभीर ज्ञान रखने वाले व्यक्ति ही शासक बनने के अधिकारी हैं।
प्लेटो के शिक्षा सिद्धान्त की अनेक आधारों पर आलोचना की जाती है
  • प्लेटो की शिक्षा योजना में सभी वर्गों की शिक्षा के लिए व्यवस्था नहीं है। 
  • प्लेटो की शिक्षा योजना में साहित्य को बहुत कम महत्व दिया गया है, तथा कला और साहित्य पर अनुचित नियन्त्रण की व्यवस्था की गई है। 
  • प्लेटो की शिक्षा योजना सैद्धान्तिक अधिक और व्यावहारिक कम है।
  • प्लेटो की शिक्षा योजना लम्बी उबाऊ और खर्चीली है। 
  • प्लेटो की शिक्षा योजना अत्यधिक केन्द्रीकृत है।

प्लेटो के साम्यवाद सम्बन्धी विचार 

प्लेटो रिपब्लिक में न्याययुक्त आदर्श राज्य की स्थापना के लिए शिक्षा के साथ-साथ साम्यवाद पर बल देता है। प्लेटो का मानना है कि शिक्षा द्वारा उत्पन्न सद्गुण विपरीत वातावरण में नष्ट हो जाते हैं। अतः अभिभावक वर्ग में सद्गुणों को बनाए रखने के लिए उचित वातावरण निर्माण हेतु साम्यवाद की भी आवश्यकता है। प्लेटो शासकों और सैनिकों के लिए सामूहिक रूप से राज्य के अभिभावक शब्द का प्रयोग करता है। प्लेटो अभिभावक के लिए दो प्रकार के साम्यवाद की व्यवस्था करता है

(1) सम्पत्ति का साम्यवाद

प्लेटो सम्पत्ति के साम्यवाद को स्पष्ट करते हुए कहता है कि उनके (अभिभावक वर्ग) पास केवल उतनी ही व्यक्तिगत सम्पत्ति रहेगी जितनी जीवन यापन करने के लिए परम आवश्यक है। दूसरी बात यह है कि उनके पास कोई ऐसा आवास अथवा भण्डार नहीं होगा जो सबके लिए खुला नहीं हो उन्हें सोने या चाँदी को स्पर्श करना भी निषेध होगा।

(ii) परिवार का साम्यवाद

प्लेटो का मत है कि परिवार का मोह धन के मोह से अधिक प्रबल होता है और मनुष्य इसके लिए अनेक प्रकार के अनुचित और अनैतिक कार्य करने के लिए भी तैयार हो जाता है। परिवार के उन्मूलन के पक्ष में प्लेटो का एक तर्क और है, वह है नारी जाति की विमुक्ति प्लेटो की मान्यता थी कि नारी जाति के उत्थान के लिए उनका कार्यक्षेत्र अधिक व्यापक और विस्तृत होना चाहिए।

इस प्रकार यह स्पष्ट है कि प्लेटो साम्यवाद का विस्तारपूर्वक विवेचन करता है, इसी कारण मैक्सी जैसे विचारक प्लेटो को प्रथम आधुनिक साम्यवादी कहते हैं।

आधुनिक साम्यवाद और प्लेटो के साम्यवाद में समानता

आधुनिक साम्यवाद और प्लेटो के साम्यवाद में समानताएं निम्नलिखित हैं
दोनों व्यक्ति की तुलना में समाज और राज्य को महत्त्वपूर्ण मानते हैं।
दोनों व्यक्ति के कर्तव्यों पर बल देते हैं। 
दोनों वर्ग-संघर्ष और शोषण का अन्त करना चाहते हैं।
दोनों निजी सम्पत्ति की संस्था का अन्त करने पर बल देते हैं। 
दोनों स्त्री-पुरुष की समानता में विश्वास करते हैं

आधुनिक साम्यवाद और प्लेटो के साम्यवाद में अन्तर 

प्लेटोवाद व साम्यवाद में आधारभूत अन्तर हैं जो निम्न हैं-
  1.  प्लेटो की न्याय की धारणा नैतिक एवं आध्यात्मिक है। प्लेटो के अनुसार मानव आत्मा के अनुरूप कर्तव्यपालन ही न्याय है।
  2. प्लेटो का साम्यवाद नगर-राज्य तक सीमित है, जबकि आधुनिक साम्यवाद विचारों को दृष्टि से अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र से सम्बन्धित है।
  3. आर्थिक साम्यवाद की दृष्टि से प्लेटो का साम्यवाद उपभोग की क्रिया से सम्बन्धित है, जबकि आधुनिक साम्यवाद उत्पादन के साधन से सम्बन्धित है।
  4. प्लेटो शासक वर्ग को राजनीतिक शक्ति को सौंपता है, किंतु उसे आर्थिक शक्ति से वंचित रखता है। प्लेटोका साम्यवाद आर्थिक तथा राजनीतिक शक्ति के पृथक्करण की व्यवस्था करता है।
  5. प्लेटो का साम्यवाद पूर्णतः अव्यावहारिक है और इसलिए इसे कभी व्यवहार में लागू नहीं किया जा सकता है।
  6. प्लेटो के साम्यवाद का उद्देश्य राजनीतिक है। वह कुशासन एवं भ्रष्टाचार को मिटाकर राज्य की एकता की स्थापना करना चाहता है, किंतु आधुनिक साम्यवाद का उद्देश्य आर्थिक है।
  7. प्लेटो का साम्यवाद कुलीनतन्त्रीय है जिसमें शासन का नेतृत्व दार्शनिक वर्ग को सौंपा गया है किन्तु आधुनिक साम्यवाद का जन्म ही कुलीन वर्ग की संस्कृति के विरोध में हुआ है और यह जनवादी जनतंत्र का समर्थक है।
  8. प्लेटों का साम्यवाद शान्ति पर आधारित है तो आधुनिक साम्यवाद क्रान्ति पर आधारित है
  9. प्लेटों के साम्यवाद का आधार आदर्शवाद या दर्शनयाद है तो आधुनिक साम्यवाद का आधार भौतिकवाद है।
  10. फोटो का साम्यवाद राज्य को प्राकृतिक व नैतिक संस्था मानता है, वहीं आधुनिक साम्यवाद राज्य को निजी सम्पत्ति की व्यवस्था से उत्पन्न एक वर्गीय संस्था मानता है।
  11. प्लेटो अपने साम्यवाद में तीन में से दो वर्गों पर बल देता है और तीनों वर्गों को बनाए रखते हुए वर्ग सामंजस्य पर बल देता है, वहीं आधुनिक साम्यवाद वर्ग संघर्ष का अन्त कर वर्ग विहीन समाज की रचना करना चाहता है। 
  12. प्लेटो का साम्यवाद सम्पत्ति के साथ-साथ परिवार के क्षेत्र में भी लागू होता है।

प्लेटो का आदर्श राज्य

प्लेटोका आदर्श राज्य सभी आने वाले समय और सभी स्थानों के लिए एक आदर्श रूप है। उसने आदर्श राज्य की कल्पना करते समय उसकी घ्यावहारिकता की उपेक्षा की गई है। यद्यपि प्लेटो के विचारों में व्यावहारिकता की कमी है, लेकिन हमें व्रत पृष्ठभूमि को नहीं भूलना चाहिए जिसने उसके मस्तिष्क में आदर्श राज्य की कल्पना जाग्रत होती है।

राज्य और व्यक्ति का सम्बन्ध

प्लेटो व्यक्ति और राज्य के मध्य जीवाणु और जीव जैसा सम्बन्ध मानता है। उसका विश्वास है कि जो गुण और विशेषताएं अल्प मात्रा में व्यक्ति में पाई जाती है वे ही राज्य विशाल रूप में दिखलाई देती हैं। राज्य मूलतः मनुष्य की आत्मा का वाह्य स्वरूप है। व्यक्ति की संस्थाएँ उसके विचार का संस्थागत स्वरूप है। जैसे राज्य के कानून व्यक्ति के विचारों से उत्पन्न होते हैं, न्याय उनके विचार से ही उद्भूत होता है। ये विचार ही विधि-संहिताओं और न्यायालयों के रूप में मूर्तिमान रहते हैं। तथा निहित गुणों अथवा फोटो ने मनुष्य की आत्मा में तीन तत्त्व बताए हैं विवेक, उत्साह और क्षुधा और इनके कार्यों विशेषताओं के आधार पर इन्हें राज्य के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण माना है।

आदर्श राज्य का निर्माण

राज्यको उत्पन्न करने में तीन तत्व सहायक होते हैं आर्थिक तत्व-आर्थिक तत्वों के अन्तर्गत प्लेटो वासना अथवा क्षुधा तत्त्वों को राज्य का प्रारंभिक आधार मानकर अपनी विवेचना शुरू करता है। आर्थिक तत्व से अभिप्राय यह है कि मनुष्य अपनी आवश्यकताओं को एकाको रूप से पूर्ण नही कर सकता इससे समाज में बम विभाजन तथा कार्यों का विशेषीकरण उत्पन्न होता है सेवाओं के आदान-प्रदान से सबकी आवश्यकताओं की पूर्ति हो पाती है।
सैनिक वर्ग-राज्य निर्माण हेतु दूसरा महत्वपूर्ण तत्व आवश्यकताओं में वृद्धि के साथ ही राज्य को अधिक भू-भाग की आवश्यकता होती है। इस कार्य हेतु तथा युद्ध की सम्भावना और उससे रक्षण की आवश्यकता के फलस्वरूप राज्य में उत्साह साहस या शूरवीरता के तन्त्र का उदय होता है।
दार्शनिक तत्य राज्य निर्माण का तीसरा आधार दार्शनिक सत्य है, जिनका सम्बन्ध आत्मा के दिवेश बुद्धि से है। उसके अनुसार ये संरक्षक दो प्रकार के होते हैं. 1.सहायक या सैनिक संरक्षक तथा 2. दार्शनिक संरक्षक

दार्शनिक शासक सम्बन्धी विचार

प्लेटो अपनी पुस्तक रिपब्लिक में न्याययुक्त आदर्श राज्य में शासन की बागडोर सद्गुणी ज्ञान से सम्पन्न दार्शनिक वर्ग को सीपता है। प्लेटो का मत है कि एक आदर्श राज्य की स्थापना के लिए जरूरी है कि शासक ज्ञानी हो, किंतु यहाँ प्लेटो ने ज्ञान की व्याख्या के लिए सुकरात के इस कथन को स्वीकार है कि सद्गुण ही ज्ञान है।

सद्गुण वह है जो व्यक्ति व समाज के लिए सत्य, शिव व सुन्दर मूल्यों की स्थापना करता है और ऐसी सद्गुणमयी जीवन दृष्टि केवल प्रत्ययवादी ज्ञान से ही प्राप्त हो सकती है, ऐसे ज्ञान प्राप्त व्यक्ति को ही प्लेटो दार्शनिक कहता है। इस स्थिति में ही नगर-राज्यों के दोष समाप्त होंगे और आदर्श राज्य व्यवस्था की स्थापना होगी। प्लेटो के अनुसार दार्शनिक शासक सद्गुणी ज्ञान से युक्त होने के कारण अनेक गुणों से युक्त होता है, जैसे यह ज्ञान, विवेकवाद, संयमी, अन्तिम सत्य का झाता, सत्यम् शिवम् सुन्दरम की प्रतिमूर्ति, न्याय का द्योतक, सत्याभिलाषी, दूरदर्शी, कर्तव्यनिष्ठ, ईमानदार, दयालु होता है। वह क्रोध, मोह, लोभ, स्वार्थ, घृणा, संकीर्णता आदि दोपों से मुक्त होता है। 

आलोचना

प्लेटो के दार्शनिक शासक सम्बन्धी विचारों की आलोचना निम्न आधारों पर की जाती है
1. प्लेटो दार्शनिक शासक को असीमित शक्तियों सौंपकर निरंकुश शासक का मार्ग प्रशस्त करता है।
2. प्लेटो को महान दार्शनिक शासक मिलना, अरस्तू के अनुसार अव्यावहारिक है।
3 प्लेटो विधि की अपेक्षा ज्ञान को अधिक महत्त्व देता है जो उचित नहीं है।
4. प्लेटो की अवधारणा जनतन्त्र विरोधी है।

 प्लेटो के फासीवादी विचार

प्लेटो रिपब्लिक में आदर्श राज्य की परिकल्पना करते हुए फासीवाद के समान दार्शनिक शासक की असीमित शक्तियों प्रदान करता है। प्लेटो व्यक्ति की तुलना में राज्य पर अत्यधिक बल देते हुए सावयत्री सिद्धान्त का समर्थन करता है। 

फासीवाद और प्लेटो के विचारों में समानताएँ 

दोनों में राज्य की सर्वोच्चता को महत्त्व दिया गया है, और व्यक्ति की स्वतन्त्रता को कोई स्थान नहीं दिया है।
  •  प्लेटोवाद और फासीवाद दोनों का कुलीनतंत्र में विश्वास है।
  •  दोनो विचारधाराएँ मनुष्य के कर्तव्यों का उल्लेख करती हैं, अधिकारों का नहीं। 
  •  शिक्षा के बारे में दोनों के समान विचार है। दोनों द्वारा द्वारा संचालित योजना प्रस्तुत करते हैं। दोनों शिक्षण का विशेष पाठ्यक्रम देते हैं।
फासीवाद के अनुरूप प्लेटोबाद में पाई जाने वाली इन सतही समानताओं के आधार पर कार्ल पॉपर जैसे विचार प्लेटो की फासीवादी कहते हैं।

प्लेटोवाद और फासीवाद में आधारभूत अन्तर

प्लेटोवाद और फासीवाद में आधारभूत अन्तर निम्नलिखित हैं
  1. प्लेटोबाद नैतिकवाद पर आधारित है तो फासीवाद नैतिकता विरोधी है।
  2. प्लेटोबाद आदर्शवाद है तो फासीवाद यथार्थवाद है।
  3. प्लेटोवाद संयम पर आधारित है तो फासीवाद दमन पर आधारित है।
  4. प्लेटबाद साम्यवादी है तो फासीवाद साम्यवाद विरोधी है।
  5. प्लेटोवाद शान्ति पर आधारित है तो फासीवाद हिंसा पर आधारित है।
  6. प्लेटोवाद आत्मनिर्भर नगर राज्य का समर्थन करता है तो फासीवाद साम्राज्यवाद का समर्थन करता है।
  7. प्लेटोवाद का मूल उद्देश्य न्याय की स्थापना करना है जबकि फासीवाद का उद्देश्य स्वार्थ-हितों की पूर्ति करता है।

प्लेटो द्वारा लॉज में उप-आदर्श राज्य सम्बन्धी विचार 

लॉज प्लेटो का आखिरी ग्रन्थ है जिसका प्रकाशन उसकी मृत्यु के बाद 947 ई.पू. में हुआ। आकार की दृष्टि से यह प्लेटो का सबसे बड़ा ग्रन्य है। समाजशास्त्रीय और वैदिक विश्लेषण की दृष्टि से यह प्लेटो की एक महत्त्वपूर्ण रचना है।

लॉज में प्रतिपादित प्रमुख सिद्धान्त

आत्म-संयम का सिद्धान्त

प्लेटो ने अपने ग्रन्थ रिपब्लिक में न्याय को आदर्श राज्य का आधार माना है। लॉज में वह न्याय की व्यवस्था को स्थापित करने के लिए आत्म-संयम को आवश्यक मानता है। उनका मानना है कि यदि व्यवस्थापक ऐसे कानूनों का निर्माण करे जिससे लोग आत्म-संयमी बनें तो इससे तीन आदशों की प्राप्ति होती है। आत्म-संयम के कार्यों से निरपेक्ष विकेन्द्रीकरण की कल्पना नहीं की जा सकती है।

कानून विषयक सिद्धान्त

प्लेटो की रिपब्लिक का आदर्श राज्य एक ऐसा शासन है जो कुछ विशेष ऐसे प्रशिक्षित व्यक्तियों द्वारा संचालित होता है जिन पर किन्हीं सामान्य नियमों का कोई अंकुश नहीं होता है, जबकि लॉज के राज्य में कानून की स्थिति सर्वोच्च है तथा शासक और शासित दोनों ही उसके अधीन रहते हैं।

इतिहास की शिक्षाएँ

इतिहास से उदाहरण लेते हुए प्लेटो ने बताया है कि राज्यों के आत्म-संयमी न रहने और सत्ता के एक व्यक्ति के हाथ में केन्द्रित हो जाने के आत्म ही अगर गोज एवं फेनिना जैसे राज्यों का पतन हो गया।

मिश्रित राज्य

इस सिद्धान्त का उद्देश्य है कि शक्तियों के सन्तुलन द्वारा राज्य सत्ता प्राप्त करना इस सिद्धान्त के अनुसार उप-आदर्श राज्य के निर्माण के लिए राजा और प्रजा घनी और निर्धन, बुद्धिमान और शक्तिशाली सभी व्यक्तियों और सभी वर्गों का सहयोग आवश्यक है।

राज्य का भू-भाग और जनसंख्या

लेट का मानना है कि राज्य के तट की समुद्र के किनारे नहीं होना चाहिए क्योंकि इस प्रकार के राज्य में बाह्य व्यापारी नजर रखते हैं, जिससे राज्य को खतरा हमेशा बना रहता है दूसरी और राज्य को नौसेना भी लगानी पड़ती है, जिससे अनायास ही राज्य पर अतिरिक्त व्यय बोझ पड़ता है। इस प्रकार प्लेटो भू-भाग का समुद्री तट के किनारे न होने और राज्य की जनता का समुद्री व्यापार न करने के पक्ष में समर्थन करते हैं उनमें सिर्फ अरस्तू समुद्री व्यापार का समर्थन करते हैं।
प्लेटो के दर्शन में पाइयागोरस का बहुत ही ज्यादा प्रभाव पड़ा है। उसने गणित को उसके गुणनफल को इतना महत्त्व दिया है, जिसमें राज्य की जनसंख्या 50-40 बताई जिसे 1x2 x3 x 4 x 5 x 6 x 7 = 5040 वो 7x 8 x9 x10 5040 के गुणनफल को ध्यान में रखकर कहा कि इससे राज्य की जनसंख्या को टुकड़ों में बोटा जा सकता है जिसमें से युद्ध और शान्ति में उपयोगी होगी।

राजनीतिक संस्थाएँ

प्लेटो लॉज में वर्णित उप-आदर्श में सम्पत्ति का जिक्र करते हुए कहते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति के पास निजी सम्पत्ति होगी पर वह भूमि और मकान के रूप में होगी न कि व्यापार, वाणिज्य आदि के रूप में प्लेटो भूमि का वितरण भी समान कर देते हैं और यह भी निश्चित करते हैं कि भूमि का उत्पादन एक जगह एकत्रित किया जाएगा, जिसका सार्वजनिक भोजन के रूप में उपयोग होगा। इस प्रकार प्लेटो ने भूमिगत सम्पत्ति का सामान्यीकरण कर दिया है।
प्लेटो ने सम्पत्ति के उपरान्त धम-विभाजन पर अपने विचार उप-आदर्श राज्य का वर्गीकरण तीन भागों में कुछ इस प्रकार किया है
  1. विदेशियों अथवा फ्रीमेन के लिए व्यापार एवं उद्योग 
  2. नागरिकों के लिए शासन प्रबन्ध अथवा राजनीतिक कार्य।
  3. दासों अथवा गुलामों के लिए खेती

प्लेटो राज्य चलाने के लिए एक साधारण सभा की बात करते हैं जिसमें सभी (5040) राज्य के सदस्य होते, उनका काम अन्य संस्थाओं के सदस्यों का चयन करना, सेना के अधिकारियों का चयन करना एवं कानूनों में परिवर्तन कर न्याय करना आदि होंगे। प्लेटो एक सलाहकार बोर्ड की बात करते हैं जिसके सदस्यों का निर्वाचन साधारण सभा से होगा।

प्लेटो के अनुसार, स्थानीय शासन के संचालन के लिए नगरों के निरीक्षण के लिए दो प्रकार के अधिकारी होंगे।

1. नगर निरपेक्ष
2. राज्य निरपेक्ष

न्यायालय के प्रकार

न्याय प्रशासन की स्थापना के लिए प्लेटी ने चार प्रकार के न्यायालय की चर्चा की है
  1. स्थायी पंचायती न्यायालय
  2. विशेष चुने हुए न्यायाधीशों का न्यायालय
  3. क्षेत्रीय न्यायालय
  4. सम्पूर्ण जनता का न्यायालय

प्लेटों के प्रमुख ग्रन्थ

क्रोटो, मीनो, युथीप्रो, जोर्जियस, अपोलॉजी, प्रोटागोरस, सिम्पोजियम, फेडो, रिपब्लिक, सोफिस्ट, स्टेट्समैन, लॉज






Comments

Popular posts from this blog

मौलिक अधिकार | Fundamental Rights

भाग -3 मौलिक अधिकार (अनुच्छेद 12 से अनुच्छेद 35 तक) (अमेरिका से लिये) मौलिक अधिकारों से तात्पर्य वे अधिकार जो व्यक्तियों के सर्वागिण विकास के लिए आवश्यक होते है इन्हें राज्य या समाज द्वारा प्रदान किया जाता है।तथा इनके संरक्षण कि व्यवस्था की जाती है। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा 10 दिसम्बर 1948 को वैश्विक मानवाधिकारो की घोषणा की गई इसलिए प्रत्येक 10 दिसम्बर को विश्व मानवाधिकार दिवस मनाया जाता है। भारतीय संविधान में 7 मौलिक अधिकारों का वर्णन दिया गया था। समानता का अधिकारा - अनुच्छेद 14 से 18 तक स्वतंन्त्रता का अधिकार - अनुच्छेद 19 से 22 तक शोषण के विरूद्ध अधिकार - अनुच्छेद 23 व 24 धार्मिक स्वतंन्त्रता का अधिकार - अनुच्छेद 25 से 28 तक शिक्षा एवम् संस्कृति का अधिकार - अनुच्छेद 29 और 30 सम्पति का अधिकार - अनुच्छेद 31 सवैधानिक उपचारो का अधिकार - अनुच्छेद 32 अनुच्छेद - 12 राज्य की परिभाषा अनुच्छेद - 13 राज्य मौलिक अधिकारों का न्युन(अतिक्रमण) करने विधियों को नहीं बनाऐंगा। 44 वें संविधान संशोधन 1978 द्वारा "सम्पति के मौलिक अधिकार" को इस श्रेणी से हटाकर "सामान्य विधिक अधिकार" ब

भारतीय संविधान के विकास का इतिहास | History of development of Indian constitution

  1757 ई. की प्लासी की लड़ाई और 1764 ई. बक्सर के युद्ध को अंग्रेजों द्वारा जीत लिए जाने के बाद बंगाल पर ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने शासन का शिकंजा कसा. इसी शासन को अपने अनुकूल बनाए रखने के लिए अंग्रेजों ने समय-समय पर कई एक्ट पारित किए, जो भारतीय संविधान के विकास की सीढ़ियां बनीं. वे निम्न हैं: 1. 1773 ई. का रेग्‍यूलेटिंग एक्ट:  इस एक्ट के अंतर्गत कलकत्ता प्रेसिडेंसी में एक ऐसी सरकार स्थापित की गई, जिसमें गवर्नर जनरल और उसकी परिषद के चार सदस्य थे, जो अपनी सत्ता का उपयोग संयुक्त रूप से करते थे. इसकी मुख्य बातें इस प्रकार हैं - (i)  कंपनी के शासन पर संसदीय नियंत्रण स्थापित किया गया. (ii)  बंगाल के गवर्नर को तीनों प्रेसिडेंसियों का जनरल नियुक्त किया गया. (iii)  कलकत्ता में एक सुप्रीम कोर्ट की स्थापना की गई. 2. 1784 ई. का पिट्स इंडिया एक्ट:  इस एक्ट के द्वारा दोहरे प्रशासन का प्रारंभ हुआ- (i) कोर्ट ऑफ़ डायरेक्टर्स - व्यापारिक मामलों के लिए (ii) बोर्ड ऑफ़ कंट्रोलर- राजनीतिक मामलों के लिए. 3. 1793 ई. का चार्टर अधिनियम:  इसके द्वारा नियंत्रण बोर्ड के सदस्यों तथा कर्मचारियों के वेतन आदि को भारतीय

भारतीय संविधान सभा तथा संविधान निर्माण |Indian Constituent Assembly and Constitution making

  भारतीय संविधान सभा तथा संविधान निर्माण |Indian Constituent Assembly and Constitution making संविधान निर्माण की सर्वप्रथम मांग बाल गंगाधर तिलक द्वारा 1895 में "स्वराज विधेयक" द्वारा की गई। 1916 में होमरूल लीग आन्दोलन चलाया गया।जिसमें घरेलू शासन सचांलन की मांग अग्रेजो से की गई। 1922 में गांधी जी ने संविधान सभा और संविधान निर्माण की मांग प्रबलतम तरीके से की और कहा- कि जब भी भारत को स्वाधीनता मिलेगी भारतीय संविधान का निर्माण -भारतीय लोगों की इच्छाओं के अनुकुल किया जाएगा। अगस्त 1928 में नेहरू रिपोर्ट बनाई गई। जिसकी अध्यक्षता पं. मोतीलाल नेहरू ने की। इसका निर्माण बम्बई में किया गया। इसके अन्तर्गत ब्रिटीश भारत का पहला लिखित संविधान बनाया गया। जिसमें मौलिक अधिकारों अल्पसंख्यकों के अधिकारों तथा अखिल भारतीय संघ एवम् डोमिनियम स्टेट के प्रावधान रखे गए। इसका सबसे प्रबलतम विरोध मुस्लिम लीग और रियासतों के राजाओं द्वारा किया गया। 1929 में जवाहर लाला नेहरू की अध्यक्षता में कांग्रेस का लाहौर सम्मेलन हुआ। जिसमें पूर्ण स्वराज्य की मांग की गई। 1936 में कांग्रेस का फैजलपुर सम्मेलन आयोजित किया गय

निति आयोग और वित्त आयोग |NITI Ayog and Finance Commission

  निति आयोग और वित्त आयोग यह एक गैर संवैधानिक निकाय है | National Institution for Transforming India( NITI Aayog )(राष्ट्रीय भारत परिवर्तन संस्थान) इसकी स्थापना 1 जनवरी 2015 को हुई | मुख्यालय – दिल्ली भारत सरकार का मुख्य थिंक-टैंक है| जिसे योजना आयोग के स्‍थान पर बनाया गया है इस आयोग का कार्य सामाजिक व आर्थिक मुद्दों पर सरकार को सलाह देने का है जिससे सरकार ऐसी योजना का निर्माण करे जो लोगों के हित में हो। निति आयोग को 2 Hubs में बाटा गया है 1) राज्यों और केंद्र के बीच में समन्वय स्थापित करना | 2) निति आयोग को बेहतर बनाने का काम | निति आयोग की संरचना : 1. भारत के प्रधानमंत्री- अध्यक्ष। 2. गवर्निंग काउंसिल में राज्यों के मुख्यमंत्री और केन्द्रशासित प्रदेशों(जिन केन्द्रशासित प्रदेशो में विधानसभा है वहां के मुख्यमंत्री ) के उपराज्यपाल शामिल होंगे। 3. विशिष्ट मुद्दों और ऐसे आकस्मिक मामले, जिनका संबंध एक से अधिक राज्य या क्षेत्र से हो, को देखने के लिए क्षेत्रीय परिषद गठित की जाएंगी। ये परिषदें विशिष्ट कार्यकाल के लिए बनाई जाएंगी। भारत के प्रधानमंत्री के निर्देश पर क्षेत्रीय परिषदों की बैठक हो

भारतीय संविधान के भाग |Part of Indian Constitution

  भाग 1  संघ और उसके क्षेत्र- अनुच्छेद 1-4 भाग 2  नागरिकता- अनुच्छेद 5-11 भाग 3  मूलभूत अधिकार- अनुच्छेद 12 - 35 भाग 4  राज्य के नीति निदेशक तत्व- अनुच्छेद 36 - 51 भाग 4 A  मूल कर्तव्य- अनुच्छेद 51A भाग 5  संघ- अनुच्छेद 52-151 भाग 6  राज्य- अनुच्छेद 152 -237 भाग 7  संविधान (सातवाँ संशोधन) अधिनियम,- 1956 द्वारा निरसित भाग 8  संघ राज्य क्षेत्र- अनुच्छेद 239-242 भाग 9  पंचायत - अनुच्छेद 243- 243O भाग 9A  नगर्पालिकाएं- अनुच्छेद 243P - 243ZG भाग 10  अनुसूचित और जनजाति क्षेत्र- अनुच्छेद 244 - 244A भाग 11  संघ और राज्यों के बीच संबंध- अनुच्छेद 245 - 263 भाग 12  वित्त, संपत्ति, संविदाएं और वाद -अनुच्छेद 264 -300A भाग 13  भारत के राज्य क्षेत्र के भीतर व्यापार, वाणिज्य और समागम- अनुच्छेद 301 - 307 भाग 14  संघ और राज्यों के अधीन सेवाएं- अनुच्छेद 308 -323 भाग 14A  अधिकरण- अनुच्छेद 323A - 323B भाग 15 निर्वाचन- अनुच्छेद 324 -329A भाग 16  कुछ वर्गों के लिए विशेष उपबंध संबंध- अनुच्छेद 330- 342 भाग 17  राजभाषा- अनुच्छेद 343- 351 भाग 18  आपात उपबंध अनुच्छेद- 352 - 360 भाग 19  प्रकीर्ण- अनुच्छेद 361 -367

संविधान की प्रस्तावना प्रस्तावना संविधान के लिए एक परिचय के रूप में कार्य |Preamble to the Constitution Preamble Acts as an introduction to the Constitution

  प्रस्तावना उद्देशिका संविधान के आदर्शोँ और उद्देश्योँ व आकांक्षाओं का संछिप्त रुप है। अमेरिका का संविधान प्रथम संविधान है, जिसमेँ उद्देशिका सम्मिलित है। भारत के संविधान की उद्देशिका जवाहरलाल नेहरु द्वारा संविधान सभा मेँ प्रस्तुत उद्देश्य प्रस्ताव पर आधारित है। उद्देश्यिका 42 वेँ संविधान संसोधन (1976) द्वारा संशोधित की गयी। इस संशोधन द्वारा समाजवादी, पंथनिरपेक्ष और अखंडता शब्द सम्मिलित किए गए। प्रमुख संविधान विशेषज्ञ एन. ए. पालकीवाला ने प्रस्तावना को  संविधान का परिचय पत्र  कहा है। हम भारत के लोग भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न समाजवादी पंथ निरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिक को : सामाजिक, आर्थिक, और राजनैतिक नयाय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने के लिए, तथा उन सब मेँ व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुरक्षा सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा मेँ आज तारीख 26 नवंबर 1949 ई. (मिति मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी संवत २००६ विक्रमी) को एतद् द्वारा

भारतीय संविधान के विदेशी स्रोत कौन कौन से है |Which are the foreign sources of Indian constitution

  भारतीय संविधान के अनेक देशी और विदेशी स्त्रोत हैं, लेकिन भारतीय संविधान पर सबसे अधिक प्रभाव भारतीय शासन अधिनियम 1935 का है। भारत के संविधान का निर्माण 10 देशो के संविधान से प्रमुख तथ्य लेकर बनाया गया है। भारत का संविधान विश्व का सबसे बड़ा लिखित संविधान है।भारत के संविधान के निर्माण में निम्न देशों के संविधान से सहायता ली गई है: संयुक्त राज्य अमेरिका:  मौलिक अधिकार, न्यायिक पुनरावलोकन, संविधान की सर्वोच्चता, न्यायपालिका की स्वतंत्रता, निर्वाचित राष्ट्रपति एवं उस पर महाभियोग, उपराष्ट्रपति, उच्चतम एवं उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों को हटाने की विधि एवं वित्तीय आपात, न्यायपालिका की स्वतंत्रता ब्रिटेन:  संसदात्मक शासन-प्रणाली, एकल नागरिकता एवं विधि निर्माण प्रक्रिया, विधि का शासन, मंत्रिमंडल प्रणाली, परमाधिकार लेख, संसदीय विशेषाधिकार और द्विसदनवाद आयरलैंड:  नीति निर्देशक सिद्धांत, राष्ट्रपति के निर्वाचक-मंडल की व्यवस्था, राष्ट्रपति द्वारा राज्य सभा में साहित्य, कला, विज्ञान तथा समाज-सेवा इत्यादि के क्षेत्र में ख्यातिप्राप्त व्यक्तियों का मनोनयन ऑस्ट्रेलिया:  प्रस्तावना की भाषा, समवर्ती सूच

डॉ. भीमराव अम्बेडकर की जीवनी एवं विचार/Biography and Thoughts of Dr. Bhimrao Ambedkar

   डॉ. भीमराव अम्बेडकर  की जीवनी एवं विचार/Biography and Thoughts of  Dr. Bhimrao Ambedkar डॉ. भीमराव अम्बेडकर डॉ. अम्बेडकर का जन्म 14 अप्रैल, 1891 में महाराष्ट्र में हुआ था। इन्होंने 1907 ई. में हाई स्कूल की परीक्षा पास करने के बाद बड़ीदा के महाराज ने उच्च शिक्षण प्राप्त करने के लिए छात्रवृत्ति प्रदान की। तत्पश्चात् 1919 ई. में इन्होंने अमेरिका के कोलम्विया विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया जहाँ प्रख्यात अर्थशास्त्री प्रो. सेल्गमैन उनके प्राध्यापक थे। इसके उपरान्त डॉक्टरेट के लिए अम्बेडकर ने लन्दन स्कूल ऑफ इकोनोमिक्स में एडमिशन लिया।      अम्बेडकर साहब का जन्म चूँकि एक अस्पृश्य परिवार में हुआ था जिस कारण इस घटना ने इनके जीवन को बहुत ही ज्यादा प्रभावित किया जिससे ये भारतीय समाज की जाति व्यवस्था के विरोध में आगे आए। डॉ. अम्बेडकर ने 1925 ई. में एक पाक्षिक समाचार पत्र 'बहिष्कृत भारत' का प्रकाशन बम्बई से प्रारम्भ किया। इसके एक वर्ष पश्चात् (1924 ई. में) इन्होंने 'बहिष्कृत हितकारिणी सभा की स्थापना की। इनके अलावा कुछ संस्थाएँ और थी- समता सैनिक दल, स्वतन्त्र लेबर पार्टी, अनुसूचित जाति

भारतीय संविधान के अनुच्छेद | Article of Indian Constitution Article: - Description

  अनुच्‍छेद :- विवरण 1:-  संघ का नाम और राज्‍य क्षेत्र 2:-  नए राज्‍यों का प्रवेश या स्‍थापना 2क:-  [निरसन] 3:-  नए राज्‍यों का निर्माण और वर्तमान राज्‍यों के क्षेत्रों, सीमाओं या नामों में परिवर्तन 4:-  पहली अनुसूची और चौथी अनुसूचियों के संशोधन तथा अनुपूरक, और पारिणामिक विषयों का उपबंध करने के लिए अनुच्‍छेद 2 और अनुच्‍छेद 3 के अधीन बनाई गई विधियां 5:-  संविधान के प्रारंभ पर नागरिकता 6:-  पाकिस्‍तान से भारत को प्रव्रजन करने वाले कुछ व्‍यक्तियों के नागरिकता के अधिकार 7:-  पाकिस्‍तान को प्रव्रजन करने वाले कुछ व्‍यक्तियों के नागरिकता के अधिकार 8:-  भारत के बाहर रहने वाले भारतीय उद्भव के कुछ व्‍यक्तियों के नागरिकता के अधिकार 9:-  विदेशी राज्‍य की नागरिकता, स्‍वेच्‍छा से अर्जित करने वाले व्‍यक्तियों का नागरिक न होना 10:-  नागरिकता के अधिकारों को बना रहना 11:-  संसद द्वारा नागरिकता के अधिकार का विधि द्वारा विनियमन किया जाना 12:-  परिभाषा 13:-  मूल अधिकारों से असंगत या उनका अल्‍पीकरण करने वाली विधियां 14:-  विधि के समक्ष समानता 15:-  धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्‍म स्‍थान के आधार पर विभेद क

हीगल की जीवनी एवं विचार (Biography and Thoughts of Hegel)/हीगल की रचनाएँ/विश्वात्मा पर विचार /विश्वात्मा पर विचार / जार्ज विल्हेम फ्रेड्रिक हेगेल

  जार्ज विल्हेम फ्रेड्रिक हेगेल  हीगल (Hegel) जर्मन आदर्शवादियों में होगल का नाम शीर्षस्य है। इनका पूरा नाम जार्ज विल्हेम फ्रेडरिक हीगल था। 1770 ई. में दक्षिण जर्मनी में बर्टमवर्ग में उसका जन्म हुआ और उसकी युवावस्था फ्रांसीसी क्रान्ति के तुफानी दौरे से बीती हींगल ने विवेक और ज्ञान को बहुत महत्त्व प्रदान किया। उसके दर्शन का महत्त्व दो ही बातों पर निर्भर करता है- (क) द्वन्द्वात्मक पद्धति, (ख) राज्य का आदर्शीकरण। हीगल की रचनाएँ लीगल की प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं 1. फिनोमिनोलॉजी ऑफ स्पिरिट (1807)  2. साइन्स ऑफ लॉजिक (1816) 3. फिलॉसफी ऑफ लॉ या फिलॉसफी ऑफ राइट (1821) 4. कॉन्सटीट्शन ऑफ जर्मनी  5. फिलॉसफी ऑफ हिस्ट्री (1886) मृत्यु के बाद प्रकाशित विश्वात्मा पर विचार  हीगल के अनुसार इतिहास विश्वात्मा की अभिव्यक्ति की कहानी है या इतिहास में घटित होने वाली सभी घटनाओं का सम्बन्ध विश्वात्मा के निरन्तर विकास के विभिन्न चरणों से है। विशुद्ध अद्वैतवादी विचारक हीगल सभी जड़ एवं चेतन वस्तुओं का उद्भव विश्वात्मा के रूप में देखता है वेदान्तियों के रूप में देखता है वेदान्तियों के 'तत्वमसि', 'अ

Popular posts from this blog

राजनीति विज्ञान के महत्वपूर्ण प्रश्न उत्तर | Important Quetions and Answers of Political Science

  राजनीति विज्ञान के 100 महत्वपूर्ण प्रश्न उत्तर 1. दार्शनिक राजा का सिद्धांत किसने प्रतिपादित किया था ? उत्तर. प्लेटो ने। 2. संयुक्त राष्ट्र संघ के वर्तमान महासचिव हैं ? उत्तर. एंटोनियो गुटेरेश है जो पुर्तगाल के हैं, जिन्होने 1 जनवरी 2017 को अपना कार्यकाल सँभाला 3. श्रेणी समाजवाद का संबंध निम्नलिखित में से किस देश से रहा है ? उत्तर. बिर्टेन से। 4. राज्य की उत्पत्ति का दैवीय सिद्धांत किसने प्रतिपादित किया था ? उत्तर. जेम्स प्रथम ने 5. मुख्य सतर्कता आयुक्त की नियुक्ति कौन करता है? उत्तर. राष्ट्रपति 6. संसद का चुनाव लड़ने के लिए प्रत्याशी की न्यूनतम आयु कितनी होनी चाहिए? उत्तर. 25 वर्ष 7. भारतीय संविधान के किस संशोधन द्वारा प्रस्तावना में दो शब्द ‘समाजवादी’ और धर्मनिरपेक्ष जोड़े गए थे? उत्तर. 42वें 8. भारतीय संविधान के कौनसे भाग में नीति निदेशक तत्वों का वर्णन है ? उत्तर. चतुर्थ। 9. जस्टिस शब्द जस से निकला है जस का संबंध किस भाषा से है ? उत्तर. लैटिन 10. पंचायत समिति का गठन होता है? उत्तर. प्रखंड स्तर पर 11. “मेरे पास खून, पसीना और आँसू के अतिरिक्त देने के लिए कुछ भी नहीं है ” यह किसने क

निति आयोग और वित्त आयोग |NITI Ayog and Finance Commission

  निति आयोग और वित्त आयोग यह एक गैर संवैधानिक निकाय है | National Institution for Transforming India( NITI Aayog )(राष्ट्रीय भारत परिवर्तन संस्थान) इसकी स्थापना 1 जनवरी 2015 को हुई | मुख्यालय – दिल्ली भारत सरकार का मुख्य थिंक-टैंक है| जिसे योजना आयोग के स्‍थान पर बनाया गया है इस आयोग का कार्य सामाजिक व आर्थिक मुद्दों पर सरकार को सलाह देने का है जिससे सरकार ऐसी योजना का निर्माण करे जो लोगों के हित में हो। निति आयोग को 2 Hubs में बाटा गया है 1) राज्यों और केंद्र के बीच में समन्वय स्थापित करना | 2) निति आयोग को बेहतर बनाने का काम | निति आयोग की संरचना : 1. भारत के प्रधानमंत्री- अध्यक्ष। 2. गवर्निंग काउंसिल में राज्यों के मुख्यमंत्री और केन्द्रशासित प्रदेशों(जिन केन्द्रशासित प्रदेशो में विधानसभा है वहां के मुख्यमंत्री ) के उपराज्यपाल शामिल होंगे। 3. विशिष्ट मुद्दों और ऐसे आकस्मिक मामले, जिनका संबंध एक से अधिक राज्य या क्षेत्र से हो, को देखने के लिए क्षेत्रीय परिषद गठित की जाएंगी। ये परिषदें विशिष्ट कार्यकाल के लिए बनाई जाएंगी। भारत के प्रधानमंत्री के निर्देश पर क्षेत्रीय परिषदों की बैठक हो

भारतीय निर्वाचन आयोग और परिसीमन आयोग |Election Commission of India and Delimitation Commission

  भारतीय निर्वाचन आयोग और परिसीमन आयोग परिसीमन आयोग भारत के उच्चतम न्यायालय के अवकाश प्राप्त न्यायाधीश न्यायमूर्ति कुलदीप सिंह की अध्यक्षता में 12 जुलाई 2002 को परिसीमन आयोग का गठन किया गया। यह आयोग वर्ष 2001 की जनगणना के आधार पर निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन करेगा। दिसंबर 2007 में इस आयोग ने नये परिसीमन की संसुतिति भारत सरकार को सौंप दी। लेकिन सरकार ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया। इस पर उच्चतम न्यायलय ने, एक दाखिल की गई रिट याचिका पर केंद्र सरकार को नोटिस जारी की। फलस्वरूप कैविनेट की राजनीतिक समिति ने 4 जनवरी 2008 को इस आयोग की संस्तुतियों को लागु करने का निश्चय किया। 19 फरवरी 2008 को राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल ने इस परिसीमन आयोग को लागू करने की स्वीकृति प्रदान की। परिसीमन •    संविधान के अनुच्छेद 82 के अधीन, प्रत्येक जनगणना के पश्चात् कानून द्वारा संसद एक परिसीमन अधिनियम को अधिनियमित करती है. •    परिसीमन आयोग परिसीमन अधिनियम के उपबंधों के अनुसार संसदीय निर्वाचन क्षेत्रों के सीमाओं को सीमांकित करता है. •    निर्वाचन क्षेत्रों का वर्तमान परिसीमन 1971 के जनगणना आँकड़ों पर आधारित

विनायक दामोदर सावरकर की जीवनी एवं विचार/Biography and Thoughts of Vinayak Damodar Savarkar

   विनायक दामोदर सावरकर/Vinayak Damodar Savarkar विनायक दामोदर सावरकर विनायक दामोदर सावरकर का जन्म महाराष्ट्र (आधुनिक मुम्बई) प्रान्त के नासिक के निकट भागुर गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम दामोदर पन्त सावरकर एवं माता का नाम राधाबाई था। विनायक दामोदर सावरकर की पारिवारिक स्थिति आर्थिक क्षेत्र में ठीक नहीं थी। सावरकर ने पुणे से ही अपनी क्रान्तिकारी प्रवृत्ति की झलक दिखानी शुरू कर दी थी जिसमें 1908 ई. में स्थापित अभिनवभारत एक क्रान्तिकारी संगठन था। लन्दन में भी ये कई शिखर नेताओं (जिनमें लाला हरदयाल) से मिले और ब्रिटिश विरोधी गतिविधियों का संचालन करते रहे। सावरकर की इन्हीं गतिविधियों से रुष्ट होकर ब्रिटिश सरकार द्वारा उन्हें दो बार 24 दिसम्बर, 1910 को और 31 जनवरी, 1911 को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई जो विश्व के इतिहास की पहली एवं अनोखी सजा थी। विनायक दामोदर द्वारा लिखित पुस्तकें (1) माई ट्रांसपोर्टेशन फॉर लाइफ (ii) हिन्दू-पद पादशाही (iii) हिन्दुत्व (iv) द बार ऑफ इण्डियन इण्डिपेण्डेन्स ऑफ 1851 सावरकर के ऊपर कलेक्टर जैक्सन की हत्या का आरोप लगाया गया जिसे नासिक षड्यंत्र केस में नाम से जाना

भारतीय संविधान के भाग |Part of Indian Constitution

  भाग 1  संघ और उसके क्षेत्र- अनुच्छेद 1-4 भाग 2  नागरिकता- अनुच्छेद 5-11 भाग 3  मूलभूत अधिकार- अनुच्छेद 12 - 35 भाग 4  राज्य के नीति निदेशक तत्व- अनुच्छेद 36 - 51 भाग 4 A  मूल कर्तव्य- अनुच्छेद 51A भाग 5  संघ- अनुच्छेद 52-151 भाग 6  राज्य- अनुच्छेद 152 -237 भाग 7  संविधान (सातवाँ संशोधन) अधिनियम,- 1956 द्वारा निरसित भाग 8  संघ राज्य क्षेत्र- अनुच्छेद 239-242 भाग 9  पंचायत - अनुच्छेद 243- 243O भाग 9A  नगर्पालिकाएं- अनुच्छेद 243P - 243ZG भाग 10  अनुसूचित और जनजाति क्षेत्र- अनुच्छेद 244 - 244A भाग 11  संघ और राज्यों के बीच संबंध- अनुच्छेद 245 - 263 भाग 12  वित्त, संपत्ति, संविदाएं और वाद -अनुच्छेद 264 -300A भाग 13  भारत के राज्य क्षेत्र के भीतर व्यापार, वाणिज्य और समागम- अनुच्छेद 301 - 307 भाग 14  संघ और राज्यों के अधीन सेवाएं- अनुच्छेद 308 -323 भाग 14A  अधिकरण- अनुच्छेद 323A - 323B भाग 15 निर्वाचन- अनुच्छेद 324 -329A भाग 16  कुछ वर्गों के लिए विशेष उपबंध संबंध- अनुच्छेद 330- 342 भाग 17  राजभाषा- अनुच्छेद 343- 351 भाग 18  आपात उपबंध अनुच्छेद- 352 - 360 भाग 19  प्रकीर्ण- अनुच्छेद 361 -367

भारतीय संविधान सभा तथा संविधान निर्माण |Indian Constituent Assembly and Constitution making

  भारतीय संविधान सभा तथा संविधान निर्माण |Indian Constituent Assembly and Constitution making संविधान निर्माण की सर्वप्रथम मांग बाल गंगाधर तिलक द्वारा 1895 में "स्वराज विधेयक" द्वारा की गई। 1916 में होमरूल लीग आन्दोलन चलाया गया।जिसमें घरेलू शासन सचांलन की मांग अग्रेजो से की गई। 1922 में गांधी जी ने संविधान सभा और संविधान निर्माण की मांग प्रबलतम तरीके से की और कहा- कि जब भी भारत को स्वाधीनता मिलेगी भारतीय संविधान का निर्माण -भारतीय लोगों की इच्छाओं के अनुकुल किया जाएगा। अगस्त 1928 में नेहरू रिपोर्ट बनाई गई। जिसकी अध्यक्षता पं. मोतीलाल नेहरू ने की। इसका निर्माण बम्बई में किया गया। इसके अन्तर्गत ब्रिटीश भारत का पहला लिखित संविधान बनाया गया। जिसमें मौलिक अधिकारों अल्पसंख्यकों के अधिकारों तथा अखिल भारतीय संघ एवम् डोमिनियम स्टेट के प्रावधान रखे गए। इसका सबसे प्रबलतम विरोध मुस्लिम लीग और रियासतों के राजाओं द्वारा किया गया। 1929 में जवाहर लाला नेहरू की अध्यक्षता में कांग्रेस का लाहौर सम्मेलन हुआ। जिसमें पूर्ण स्वराज्य की मांग की गई। 1936 में कांग्रेस का फैजलपुर सम्मेलन आयोजित किया गय

PREAMBLE of India

 PREAMBLE WE, THE PEOPLE OF INDIA, having solemnly resolved to constitute India into a SOVEREIGN SOCIALIST SECULAR DEMOCRATIC REPUBLIC and to secure to all its citizens: JUSTICE, social, economic and political, LIBERTY of thought, expression, belief, faith and worship, EQUALITY of status and of opportunity: and to promote among them all  FRATERNITY assuring the dignity of the individual and the unity and integrity of the Nation,  IN OUR CONSTITUENT ASSEMBLY this twenty-sixth day of November, 1949, do HEREBY ADOPT, ENACT AND GIVE TO OURSELVES THIS CONSTITUTION.

राज्य की नीति के निदेशक तत्त्व |Directive Principles of State Policy

  36. परिभाषा- इस भाग में, जब तक कि संदर्भ से अन्यथा अपेक्षित न हो, 'राज्य' का वही अर्थ है जो भाग 3 में है। 37. इस भाग में अंतर्विष्ट तत्त्वों का लागू होना- इस भाग में अंतर्विष्ट उपबंध किसी न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय नहीं होंगे किंतु फिर भी इनमें अधिकथित तत्त्व देश के शासन में मूलभूत हैं और विधि बनाने में इन तत्त्वों को लागू करना राज्य का कर्तव्य होगा। 38. राज्य लोक कल्याण की अभिवृद्धि के लिए सामाजिक व्यवस्था बनाएगा- राज्य ऐसी सामाजिक व्यवस्था की, जिसमें सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय राष्ट्रीय जीवन की सभी संस्थाओं को अनुप्राणित करे, भरसक प्रभावी रूंप में स्थापना और संरक्षण करके लोक कल्याण की अभिवृद्धि का प्रयास करेगा। राज्य, विशिष्टतया, आय की असमानताओं को कम करने का प्रयास करेगा और न केवल व्यष्टियों के बीच बल्कि विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले और विभिन्न व्यवसायों में लगे हुए लोगों के समूहों के बीच भी प्रतिष्ठा, सुविधाओं और अवसरों की असमानता समाप्त करने का प्रयास करेगा। 39. राज्य द्वारा अनुसरणीय कुछ नीति तत्त्व- राज्य अपनी नीति का, विशिष्टतया, इस प्रकार संचालन करेगा कि सुनि

राजव्यवस्था के अति महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर/very important question and answer of polity

 राजव्यवस्था के अति महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर प्रश्‍न – किस संविधान संशोधन अधिनियम ने राज्‍य के नीति निर्देशक तत्‍वों को मौलिक अधिकारों की अपेक्षा अधिक प्रभावशाली बनाया?  उत्‍तर – 42वें संविधान संशोधन अधिनियम (1976) ने प्रश्‍न – भारत के कौन से राष्‍ट्रपति ‘द्वितीय पसंद'(Second Preference) के मतों की गणना के फलस्‍वरूप अपना निश्चित कोटा प्राप्‍त कर निर्वाचित हुए?  उत्‍तर – वी. वी. गिरि प्रश्‍न – संविधान के किस अनुच्‍छेद के अंतर्गत वित्‍तीय आपातकाल की व्‍यवस्‍था है?  उत्‍तर – अनुच्‍छेद 360 प्रश्‍न – भारतीय संविधान कौन सी नागरिकता प्रदान करता है?  उत्‍तर – एकल नागरिकता प्रश्‍न – प्रथम पंचायती राज व्‍यवस्‍था का उद्घाटन पं. जवाहरलाल नेहरू ने 2 अक्‍टूबर, 1959 को किस स्‍थान पर किया था ? उत्‍तर – नागौर (राजस्‍थान) प्रश्‍न – लोकसभा का कोरम कुल सदस्‍य संख्‍या का कितना होता है?  उत्‍तर – 1/10 प्रश्‍न – पंचवर्षीय योजना का अनुमोदन तथा पुनर्निरीक्षण किसके द्वारा किया जाताहै? उत्‍तर – राष्‍ट्रीय विकास परिषद प्रश्‍न – राज्‍य स्‍तर पर मंत्रियों की नियुक्ति कौन करता है?  उत्‍तर – राज्‍यपाल प्रश्‍न – नए

केन्द्र-राज्य सम्बन्ध और अंतर्राज्य परिषद | Center-State Relations and Inter-State Council

  केन्द्र-राज्य सम्बन्ध और अंतर्राज्य परिषद केन्द्र-राज्य सम्बन्ध- सांविधानिक प्रावधान अनुच्छेद 246:- संसद को सातवीं अनुसूची की सूची 1 में प्रगणित विषयों पर विधि बनाने की शक्ति। अनुच्छेद 248:- अवशिष्ट शक्तियां संसद के पास अनुच्छेद 249:-राज्य सूची के विषय के सम्बन्ध में राष्ट्रीय हित में विधि बनाने की शक्ति संसद के पास अनुच्छेद 250:- यदि आपातकाल की उद्घोषणा प्रवर्तन में हो तो राज्य सूची के विषय के सम्बन्ध में विधि बनाने की संसद की शक्ति अनुच्छेद 252:- दो या अधिक राज्यों के लिए उनकी सहमति से विधि बनाने की संसद की शक्ति अनुच्छेद 257:- संघ की कार्यपालिका किसी राज्य को निदेश दे सकती है अनुच्छेद 257 क:- संघ के सशस्त्र बलों या अन्य बलों के अभिनियोजन द्वारा राज्यों की सहायता अनुच्छेद 263:- अन्तर्राज्य परिषद का प्रावधान भारत के संविधान ने केन्द्र-राज्य सम्बन्ध के बीच शक्तियों के वितरण की निश्चित और सुस्पष्ट योजना अपनायी है। संविधान के आधार पर संघ तथा राज्यों के सम्बन्धों को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है: 1. केन्द्र तथा राज्यों के बीच विधायी सम्बन्ध। 2. केन्द्र तथा राज्यों के बीच प्रशासन