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अरस्तू/Aristotle/अरस्तू -राजनीति विज्ञान का जनक

 अरस्तू/Aristotle/अरस्तू -राजनीति विज्ञान का जनक


अरस्तू

यूनान के दार्शनिक मनीषियों में सुकरात और प्लेटो के बाद अरस्तू का नाम उल्लेखनीय है अरस्तू को तर्कशास्त्र का जनक भी कहा जाता है। मैक्सी ने उसे प्रथम राजनीतिक वैज्ञानिक की संज्ञा दी है। वह यूनान की अमर गुरु-शिष्य परम्परा का तीसरा सोपान था। यूनान का दर्शन बीज की तरह सुकरात में आया, लता की भाति प्लेटो में फैला और पुष्प की भाति अरस्तू में खिल गया। सुकरात महान के आदर्शवादी तथा कवित्वमय शिष्य प्लेटो का यथार्थवादी तथा वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाला शिष्य अरस्तू बहुमुखी प्रतिभा का धनी था। उसकी इसी प्रतिभा के कारण कोई उसे बुद्धिमानों का गुरु कहता है तो कोई सामाजिक विज्ञान में नवीन विषयों का जन्मदाता' कहता है।

फॉस्टर के अनुसार, "अरस्तू की महानता उसके जीवन में नहीं, किन्तु उसकी रचनाओं में प्रदर्शित होती है।" केटलिन के अनुसार, "अरस्तू की महानता उसके जीवन में नहीं, किन्तु उसकी रचनाओं में प्रदर्शित होती है। कैटलिन के शब्दों में "अरस्तू दिया का सर्वश्रेष्ठ एवं प्रथम विश्वकोशी था " 

अरस्तू की महानतम रचना: दि पॉलिटिक्स


'पॉलिटिक्स' अरस्तू की महानतम् रचना है जिसे राजनीतिशास्त्र पर लिखी गई बहुमूल्य निधि माना जाता है। इसमें पहली बार राजनीति को एक वैज्ञानिक रूप दिया गया है। प्लेटो राजनीति और नैतिकता में कोई भेद नहीं समझता था जबकि अरस्तू ने इस ग्रन्थ में न केवल राजनीति को नैतिकता अथवा नीति से भिन्न बताया अपितु राजनीति को सर्वोत्तम विज्ञान कहा। 'पॉलिटिक्स' के विषय में अनेक विरोधी भावनाएं और विचार विद्यमान है। एक ओर जैलर और फॉस्टर जैसे विद्वान है तो दूसरी ओर विरोधी विचार प्रकट करने वाले टेलर तथा मैकइन्वेन जैसे लेखक है।

फॉस्टर का कहना है, "यदि चूनानी राजनीतिक दर्शन का सर्वोत्कृष्ट प्रतिनिधित्व करने वाला कोई ग्रन्थ हो सकता

है तो वह यही है।" मैक्डल्वेन के अनुसार, "यह (पॉलिटिक्स) यदि अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भी नहीं है तो भी राजनीति दर्शन के

शास्त्रीय ग्रन्थों में अत्यन्त हैरानी पैदा करने वाला ग्रन्थ तो है ही "

"पॉलिटिक्स के बारे में विद्वानों के इसी प्रकार परस्पर विरोधी विचार है, पर इसमें तो कोई सन्देह नहीं कि पॉलिटिक्स राजनीति के क्षेत्र में अरस्तू की एक अनुपम देन है। ब्राउले के शब्दों में, अपने विषय पर पॉलिटिक्स' सबसे अधिक प्रभावक और सबसे अधिक गम्भीर ग्रन्थ है जिसका अध्ययन सबसे पहले किया जाना चाहिए।" संक्षेप में, इसमें हमें अरस्तू के सामाजिक और राजनीतिक तत्त्वों, वास्तविक संविधानों, उनके सम्मिश्रण और तज्जनित

परिणामों का एक अनुभवात्मक अध्ययन मिलता है।

अरस्तू की अध्ययन पद्धति


यह एक विवादास्पद प्रश्न हो सकता है कि अरस्तू की एक मौलिक विचारक माना जाए अथवा न माना जाए, किन्तु उसे एक रूप में मौलिक होने का गौरव अवश्य प्राप्त है कि उसने राजनीति के अध्ययन के लिए एक नवीन एवं वैज्ञानिक अध्ययन विधि को अपनाया है। बाकर के अनुसार "अरस्त ने एक वैज्ञानिक की तरह लिखा है, उसके ग्रन्थ क्रमबद्ध है। उसकी रचनाएँ समीक्षात्मक एवं सतर्क हैं। उनमें कल्पना की उड़ान नहीं यथार्थ का पुट है।"
बार्कर के शब्दों में "चूंकि चिकित्सक का पेशा में अरस्तू के परिवार में अनेक पीढ़ियों से चला आ रहा था अतएव अपने चिन्तन में अरस्तु ने जीव विज्ञान और वैज्ञानिक पद्धति में जो अभिरुचि दिखलाई उसका कारण उस पर अपने पारिवारिक वातावरण का ही प्रभाव था।"
    अरस्तू प्रथम राजनीतिक वैज्ञानिक है। उसकी रचना 'पॉलिटिक्स' का प्रारम्भ इन शब्दों से होता है निरीक्षण से हमें पता चलता है... इससे एक महान् अनुभववादी के रूप में अरस्तू की ख्याति उजागर होती है। वह प्लेटो की तरह कल्पनाबादी नहीं था। न ही वह कल्पना के पंख लगाकर तकों की वैसाखियों के सहारे यथार्थ की उपेक्षा करता था।
अरस्तू की अध्ययन पद्धति प्लेटो से नितान्त भिन्न है। आदर्श राज्य तथा उसकी संस्थाओं की रचना करने में प्लेटो ने कल्पना प्रधान पद्धति को अपनाया था। जिसमें पर्यवेक्षण और ऐतिहासिक अध्ययन के लिए कोई स्थान नहीं था। अरस्तू की फोटो के विरुद्ध सबसे बड़ी शिकायत हो यह है कि उसने अपने सिद्धान्तों के प्रतिपादन में इतिहास, भूतकालीन राजनीतिक संस्थाओं तथा मानव स्वभाव पर यथोचित ध्यान नहीं दिया। यह कहा जाता है कि अरस्तू ने लगभग 1000 व्यक्तियों को विभिन्न प्रकार की प्राकृतिक घटनाओं के निरीक्षण, अन्वेषण और सामग्री संकलन के लिए लगाया था। इस सामग्री और निरीक्षण के आधार पर उसने विभिन्न विज्ञानों के बारे में अनेक नियमों की शोध की विशेष घटनाओं से सामान्य नियम निकालने की इस पद्धति की उद्गमन की पद्धति कहते हैं।

संक्षेप में, अरस्तू की पद्धति वैज्ञानिक, ऐतिहासिक, विश्लेषणात्मक और आगमनात्मक है। वह कुछ तथ्यों का अध्ययन करता है तथा उन्हीं तथ्यों से यह निष्कर्ष निकालता है। यह इतिहास और पटनाओं का विश्लेषण और विवेचन करता है और किसी निष्कर्ष पर पहुंचता है। उसकी ख्याति का मुख्य आधार यह था कि उसने राजनीतिक घटनाचक के अध्ययन में तुलनात्मक पद्धति को अपनाया।

अरस्तू राजनीति विज्ञान का जनक

मैक्सी ने अरस्तू को प्रथम वैज्ञानिक विचारक कहा है। डनिंग के अनुसार, पश्चिमी जगत में राजनीति विज्ञान अरस्तू से ही प्रारम्भ हुआ। राजनीति विज्ञान को एक स्वतंत्र विज्ञान की गरिमा प्रदान करने का कार्य अरस्तू के द्वारा ही किया गया। उसने
नीतिशास्त्र और राजनीतिशास्त्र में अन्तर किया। उसने राजनीतिशास्त्र को उच्चकोटि का शास्त्र माना क्योंकि यह राज्य जैसी सर्वोच्च संस्था का अध्ययन करता है। अरस्तु को निम्नलिखित कारणों के आधार पर राजनीति विज्ञान का जनक अथवा प्रथम राजनीतिक वैज्ञानिकहा जा सकता है।
  1. आगमनात्मक विधि का अनुसरण अधिकतर विद्वानों ने अरस्तू को राजनीतिशास्त्र के क्षेत्र में आगमनात्मक विधि के प्रणेता के रूप में स्वीकार किया है। इस विधि की विशेषता यह है कि इसमें विचारक जो कुछ देखता है या जिन ऐतिहासिक तथ्यों की खोज करता है उनका निष्पक्ष रूप से बिना अपनी किसी पूर्व धारणा के अध्ययन करता है और इस अध्ययन के फलस्वरूप जो कुछ भी निष्कर्ष निकलता है उसमें वैज्ञानिकता का पुट होता है। इस दृष्टि से अरस्तू ने अपने समय में प्रचलित 158 संविधानों का अध्ययन किया और उस अध्ययन के संदर्भ में निकले निष्कयों के आधार पर ही राज्य के सिद्धांतों का प्रतिपादन किया।
  2. राजनीतिशास्त्र की नीतिशास्त्र से पृथक करना-प्लेटो ने राजनीतिशास्त्र को नीतिशास्त्र का एक जंग माना है। उसने राजनीतिशास्त्र को नीतिशास्त्र में ही समाहित कर दिया। जिससे राजनीतिशास्त्र का अपना स्वतंत्र और पृथक स्थान नहीं रहा। इसके विपरीत अरस्तू यह प्रथम विचारक है, जिसने राजनीतिशास्त्र को नीतिशास्त्र से पृथक कर उसे स्वतन्त्र स्थान प्रदान किया।
  3. पवार्थवादी विचारक- अरस्तू प्रथम विचारक है जिसने राजनीति पर यथार्थवादी और व्यावहारिक दृष्टिकोण से विचार किया। उसने सदैव ही वादिता से बचते हुए मध्यममार्ग का अनुसरण किया। केटलिन के शब्दों में, "कन्फ्यूशियस के बाद अरस्तु सामान्य ज्ञान और मध्यम मार्ग का सबसे बड़ा प्रतिपादक है। साम्यवाद, निरंकुशता, आगिक समानता आदि सभी को यह अति समझता था। पालिटी का सिद्धान्त एक मध्यम मार्ग है जिसके अनुसरण द्वारा अरस्तू ने राजनीतिक और आर्थिक असन्तुलन को सदैय के लिए दूर करने का प्रयत्न किया। इस प्रयत्न को एक वैज्ञानिक उपचार कहा जा सकता है। 
  4. राज्य के पूर्ण सिद्धान्त का क्रमबद्ध निरूपण- अरस्तू ही वह पहला विचारक है जिसने राज्य का पूर्ण सैद्धान्तिक, वर्णन किया है। राज्य के जन्म और उसके विकास से लेकर उसके स्वरूप, संविधान की रचना, सरकार के निर्माण, नागरिकता की व्याख्या, कानून की सर्वोच्चता और क्रांति आदि अनेक महत्त्वपूर्ण विषयों पर उसने विस्तार से प्रकाश डाला है। अरस्तू ही वह पहला विचारक था जिसने यह प्रतिपादित किया कि "मनुष्य एक राजनीतिक प्राणी है।" अरस्तू का यह कथन आज भी राजनीतिशास्त्र की अमूल्य धरोहर है। 
  5. संविधानों का वैज्ञानिक वर्गीकरण-वाकर ने अरस्तू की महान कृति 'पॉलिटिक्स के अनुवाद में लिखा है, "अगर कोई यह पूछे कि अरस्तू की पॉलिटिक्स ने सामान्य यूरोपीय विचारधारा को उत्तराधिकार के रूप में क्या दिया तो इसका उत्तर एक ही शब्द में दिया जा सकता है संविधानशास्त्र'। अरस्तू को संविधान और संविधानवाद का जनक कहा जाता है। संविधानों का वर्गीकरण उसे प्लेटो से उत्तराधिकार में प्राप्त हुआ पर उसने इस विषय पर अपने 'लिसियम' में विस्तृत अध्ययन किया और इस प्रकार से प्लेटो के सैद्धान्तिक विवेचन पर अपनी अनुसंधानिक पुष्टि कर दी।
  6. नागरिकता की व्याख्या-अरस्तू द्वारा नागरिकता की जो व्याख्या की गई है वह राजनीति शास्त्र के लिए बहुत सहायक और आधुनिक नागरिकता की परिभाषा को निर्धारित करने में मार्गदर्शक सिद्ध हुई है। नागरिकता का विचार अरस्तू की एक मौलिक देन है जिसके लिए राजनीतिशास्त्र उसका सदा ऋणी रहेगा।
  7. कानून की सर्वोच्चता का प्रतिपादन-अरस्तू ने कानून की सर्वोच्चता के बारे में एक सम्यक् विचार प्रस्तुत किया है। अरस्तू सर्वाधिक बुद्धिसम्पन्न व्यक्तियों के विवेक के स्थान पर परम्परागत नियमों और कानूनों को श्रेष्ठता में विश्वास करता है जबकि प्लेटो अतिमानव के शासन में विश्वास करता है। संक्षेप में, अरस्तु का विश्वास कानून के शासन में है। कानून की सर्वोच्चता तथा संवैधानिक शासन की वांछनीयता में विश्वास उसकी ऐसी धारणाएँ हैं जिनके आधार पर उसे 'संविधानवाद का पिता कहा जाता है।
  8. सरकार के अंगों का निर्धारण-अरस्तू ने सरकार के तीन अंगों-नीति निर्धारक, प्रशासकीय और न्यायिक निरूपण किया है। ये शासकीय अंग वर्तमान समय के व्यवस्थापिता, कार्यपालिका और न्यायपालिका के समान ही हैं। 
  9. राजनीति पर भौगोलिक एवं आर्थिक प्रभावों का अध्ययन-अरस्तू ने राजनीति पर पड़ने वाले भौगोलिक और आर्थिक प्रभावों को बहुत महत्व दिया है। उसने इन मूलभूत तथ्यों का प्रतिपादन किया कि सम्पत्ति का लक्ष्य और वितरण शासन व्यवस्था के रूप को निश्चित करने में निर्णयकारी तत्त्व होता है, राज्य की समस्याओं का एक बहुत बड़ा कारण अत्यधिक धनी एवं निर्धनों के बीच चलने वाला संघर्ष है, व्यक्तियों का व्यवसाय उनकी राजनीतिक योग्यता और प्रवृत्ति को प्रभावित करता है, यदि सम्पत्ति पर स्वामित्व व्यक्तिगत रहे, लेकिन उसका उपयोग सार्वजनिक हो तो राज्य की समस्याएँ सरलता से हल हो सकती हैं।

अरस्तू का राज्य सम्बन्धी सिद्धान्त

 अरस्तु के अनुसार राज्य की उत्पत्ति

अरस्तू के अनुसार राज्य की उत्पत्ति जीवन की आवश्यकताओं से होती है, परन्तु उसका अस्तित्व सद्जीवन की सिद्धि के लिए बना रहता है। अतः यदि समाज के आरंभिक रूप प्राकृतिक हैं, तो राज्य की भी यही स्थिति है, क्योंकि यह उनका चरम तव्य है और किसी वस्तु की प्रकृति उसका चरम लक्ष्य होती है।
    व्यक्ति के लिए राज्य की उत्पत्ति प्राकृतिक है, अपने इस विचार की पुष्टि के लिए जरस्तू ने दो तर्क प्रस्तुत किए हैं-सर्वप्रथम, वह मानता है कि प्रत्येक राज्य प्रकृतिजन्य है क्योंकि राज्य उन समस्त समुदायों का पूर्ण रूप है, जो प्रकृतिजन्य हैं। राज्य में भी वही गुण विद्यमान हैं जो इसका विकास करने वाले पूर्ववर्ती समुदायों में पाया जाता है। राज्य की प्रारंभिक एवं मूलभूत इकाई अरस्तू व्यक्ति को मानता है जो अकेले में अपूर्ण है। अपनी दैनिक आवश्यकताओं को जुटाने एवं अपने जीवन को सुन्दर व सुखमय बनाने के लिए व्यक्ति को अनेक समुदायों की आवश्यकता होती है। परिवार, ग्राम, राज्य आदि व्यक्ति के कुछ ऐसे ही मूलभूत समुदाय है। अरस्तू का मत है "केवल जीवन मात्र की आवश्यकता के लिए राज्य उत्पन्न होता है और अच्छे जीवन की उपलब्धि के लिए कायम रहता है।" अरस्तू के विचार में राज्य इस कारण प्राकृतिक है कि यह वह उद्देश्य अथवा सम्पूर्णत्व है जिसकी ओर अन्य दूसरे समुदाय बढ़ते हैं। परिवार तथा ग्राम आदि व्यक्ति के जो अन्य प्राकृतिक समुदाय हैं, वे अपनी पूर्ण प्रकृति का विकास तभी कर सकते हैं, जबकि राज्य के रूप में वे अपनी प्रकृति की परिसमाप्ति को प्राप्त कर चुके हों। व्यक्ति के सम्पूर्ण प्राकृतिक समुदायों का विकसित स्वरूप राज्य है। दूसरा, राज्य को प्राकृतिक कहने का एक अन्य कारण भी है। अरस्तू के अनुसार राज्य का उद्देश्य एवं लक्ष्य आत्मनिर्भरता की प्राप्ति है। इसे व्यक्ति के जीवन का महानतम लक्ष्य कहा जा सकता है। सर्वश्रेष्ठ लक्ष्य की उपलब्धि का साधन राज्य है। अरस्तू के अनुसार राज्य मनुष्य की सामाजिकता का परिणाम है सामाजिक जीवन अन्य जीवधारियों में भी पाया जाता परन्तु व्यक्ति विचारशील प्राणी है, इसलिए उसकी सामाजिकता अन्य श्रेणी के जीवधारियों से भिन्न है। सर्वप्रथम विवाह पद्धति के आधार पर अरस्तू ने सबसे पहले सामाजिक संस्था परिवार की स्थापना की जिसमें पति-पत्नी, सन्तान और दास एक साथ रहते हैं। परिवार में हमें राज्य के बीज दिखाई देते हैं क्योंकि परिवार का स्वामी शासक के रूप में कार्य करता है। परन्तु व्यक्ति केवल सुरक्षा ही नहीं चाहता, उसकी अन्य भी अनेक भौतिक तथा आध्यात्मिक आवश्यकताएँ हैं। इसलिए कुछ परिवार मिलकर ग्राम का निर्माण करते हैं। अतः नगर राज्य व्यक्तियों का अन्तिम और पूर्ण एवं श्रेष्ठतम समुदाय है। इस प्रकार अरस्तू के अनुसार परिवार से ग्राम और ग्राम से राज्य अस्तित्व में आए। अरस्तू के शब्दों में, "जब बहुत से ग्राम एक दूसरे से पूर्ण रूप से इस प्रकार मिल जाते हैं। वे केवल एक ही समाज का निर्माण करते हैं, तब वह समाज राज्य बन जाता है। दूसरे शब्दों में राज्य कुलों (परिवार) और ग्रामों का एक ऐसा समुदाय है जिसका उद्देश्य पूर्ण और आत्मनिर्भर जीवन की प्राप्ति है।

राज्य के विकास का स्वरूप

अरस्तू के अनुसार राज्य एक सावयव जीवधानी के समान है, अतः जिस प्रकार एक सावयवी जीवधारी का विकास होता है उसी प्रकार राज्य का भी विकास होता है।

अरस्तू के विचार को मानव शरीर के उदाहरण से समझाया जा सकता है। मानव शरीर में हाथ, पैर, नाक, कान आदि अनेक अंग होते हैं, इन अंगों को अलग-अलग कार्य करने पड़ते हैं और इन्हें करने के लिए ये शरीर पर निर्भर रहते हैं। यदि शरीर का कोई अंग अपना कार्य करना बन्द कर देता है या उसे ठीक प्रकार से नहीं करता है तो शरीर निर्बल हो जाता है। इस प्रकार राज्य के विकास का स्वरूप सावयवी या जैविक है। व्यक्ति परिवार और ग्राम इसके विभिन्न अंग हैं। ये अंग एक-दूसरे से सम्बन्धित होते हैं और इनका क्रमिक विकास होता रहता है।
राज्य के विकास के सम्बन्ध में अरस्तू के दृष्टिकोण को समझाते हुए बार्कर ने लिखा है, "राजनीतिक विकास, जैविक के विकास है। राज्य तो मानो पहले से ही ग्राम, परिवार और व्यक्ति के रूप में भ्रूणावस्था में होता है। इस प्रकार अरस्तू के राज्य की उत्पत्ति सम्बन्धी विचार, 'विकासवादी सिद्धान्त' के अनुरूप है। परिवार के विकास से व्यक्ति पूर्णत्व की दिशा में कुछ कदम बढ़ाता नजर आता है।

 अरस्तु के अनुसार राज्य की विशेषताएँ

  1. राज्य एक स्वाभाविक संस्था है-अरस्तू द्वारा राज्य के प्रादुर्भाव के बारे में प्रकट किए गए विचारों से प्रकट होता है कि वह राज्य को स्वाभाविक संस्था मानता है। उसके अनुसार राज्य मानव के भावनात्मक जीवन की अभिव्यंजना है और इससे अलग रहकर व्यक्ति अपने जीवन के लक्ष्य की प्राप्ति नहीं कर सकता। राज्य परिवार का ही वृहत रूप होने के कारण यह भी वैसे ही स्वाभाविक है जैसा कि परिवार व्यक्ति के विकास का जो कार्य परिवार में प्रारम्भ होता है उसकी पूर्ण सिद्धि राज्य में ही की जा सकती है।
  2. राज्य व्यक्ति से पूर्व का संगठन है-अरस्तू का कहना है कि राज्य मनुष्य से प्राथमिक है। ऐसा कहने में अरस्तू का तात्पर्य यह नहीं है कि ऐतिहासिक दृष्टि से राज्य का जन्म पहले हुआ, वरन् उसके कहने का अभिप्राय यह या कि मानसिक या मनोवैज्ञानिक दृष्टि से राज्य का जन्म पहले ही हो चुका था। यह कैसे हुआ, इस सम्बन्ध में यह कहा जा सकता है कि राज्य एक पूर्ण समुदाय है, व्यक्ति केवल एक तत्त्व पूर्णता पहले आती है, उसके बाद में अंग, इसलिए राज्य व्यक्ति से पूर्ववर्ती है।
  3. राज्य सर्वोच्च समुदाय है-अरस्तु के अनुसार राज्य एक सर्वोच्च समुदाय है। इस दृष्टिकोण के पक्ष में अरस्तू कहता है-प्रथम, राज्य में अनेक प्रकार की सामाजिक धार्मिक, आर्थिक संस्थाएँ होती हैं। इन सब संस्थाओं का अस्तित्व राज्य के कारण ही होता है, ये केवल राज्य के अन्दर ही कार्य कर सकती हैं, ये राज्य के अधीन होती हैं और राज्य का इन पर पूर्ण नियंत्रण होता है। द्वितीय, राज्य के अन्तर्गत कार्यरत विभिन्न सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक संस्थाएँ एकपक्षीय होती हैं। जैसे, धार्मिक संस्थाएं धार्मिक आवश्यकताओं और सामाजिक संस्थाएँ सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति करती हैं। इनमें से कोई भी व्यक्ति की समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं करती। तृतीय, राज्य के अन्तर्गत कार्यरत सभी संस्थाओं का कोई न कोई लक्ष्य अवश्य होता है, पर राज्य के लक्ष्य की तुलना में ये सभी लक्ष्य निम्नतर होते हैं। इसका कारण यह है कि राज्य अपने नागरिकों को अपने जीवन को शुभ और सुखी बनाने का अवसर प्रदान करता है।
  4. राज्य का स्वरूप जैविक है-अरस्तू के राज्य की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता उसका स्वरूप जैविक अथवा आंगिक है। जैविक सिद्धान्त के अनुसार सम्पूर्ण के बहुत से विभिन्न अंग होते हैं, प्रत्येक अंग का अपना पृथक कार्य होता है और प्रत्येक अंग अपने अस्तितव एवं जीवन के हेतु सम्पूर्ण पर पूर्ण रूप से निर्भर करता है। जब अरस्तू राज्य की समुदायों का समुदाय कहता है, तब उसके सिद्धान्त में राज्य का यही जैविक तत्व परिलक्षित होता है। उसने राज्य की तुलना शरीर से और व्यक्ति की तुलना हाथ जैसे अंग से की है।
  5. राज्य एक आत्मनिर्भर संगठन है-अरस्तू के अनुसार राज्य की एक प्रमुख विशेषता उसका आत्मनिर्भर होना है। आत्मनिर्भरता से अभिप्राय है कि वह अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति स्वयं करता है। अरस्तू ने आत्मनिर्भरता' शब्द का प्रयोग विशेष अर्थ में किया है। उसने इसके लिए यूनानी शब्द 'आतरकिया का प्रयोग किया है, जिसका अर्थ है 'पूर्ण निर्भरता।' अरस्तू के दृष्टिकोण को स्पष्ट करते हुए बर्कर ने लिखा है, ""आत्मनिर्भरता का अर्थ है-राज्य में ऐसे भौतिक साधनों और ऐसी नैतिक प्रेरणाओं और भावनाओं की उपस्थिति जो किसी प्रकार की बाह्य भौतिक या नैतिक सहायता पर निर्भर हुए बिना पूर्ण मानव विकास को सम्भय बनाए।"
  6.  प्रजातंत्र या भीड़तंत्र (Democracy)-प्लेटो की भांति अरस्तू मी प्रजातंत्र का आलोचक है, किन्तु वह इसके कुछ गुणों को भी स्वीकार करता है। अरस्तू के मतानुसार प्रजातंत्र का सबसे बड़ा दोष यह है कि इसमें निरपेक्ष समानता के तत्त्व पर बहुत बल दिया जाता है और सब नागरिक विभिन्न प्रकार की योग्यताओं का विचार न करते हुए समान माने जाते हैं, धनी, निर्धन, अनपढ़, पढ़े-लिखे, विद्वान और मूर्ख बरावर समझे जाते हैं।

प्रजातंत्र की परिभाषा करते हुए अरस्तू ने उन प्रान्तियों को मिटाने की कोशिश की है, जो साधारणतया इसके विषय में प्रचलित हैं। सामान्यतया प्रजातंत्र को वह विधान माना जाता है जिसमें राज्य की प्रभुसत्ता बहुसंख्यक वर्ग के हाथ में होती है। अरस्तू के अनुसार यह मान्यता त्रुटिपूर्ण है। बहुसंख्यक वर्ग का शासन होना मात्र प्रजातंत्र के लिए पर्याप्त नहीं हैं। क्योंकि उस राज्य को प्रजातंत्र की संज्ञा कदापि नहीं दी जा सकती जिसमें राज्य के शासन की बागडोर धनवान बहुसंख्यक लोगों के हाथ में हो।

संविधान में चक्रीय परिवर्तन

अरस्तू ने संविधान के वर्गीकरण के साथ-साथ राजनीतिक परिवर्तनों का एक कालचक्र भी प्रस्तुत किया है जिसे Cyclic Theory of Government कहते हैं। जरस्तू की धारणा है कि जिस प्रकार ऋतुएँ स्वाभाविक रूप में बदलती रहती हैं, उसी प्रकार ज्ञातनों में भी परिवर्तन का चक्र चलता रहता है। अरस्तू के अनुसार संविधान का सर्वश्रेष्ठ रूप राजतंत्र है, पर जब राजा, जनहित से मुँह मोड़कर अपने स्वार्थ की सिद्धि में लिप्त हो जाता है तब राजतंत्र निरंकुशतंत्र में बदल जाता है। कुछ समय बाद निरंकुश शासन के अत्याचारों से पीड़ित होने के कारण कुछ अच्छे और योग्य व्यक्ति कुलीनतंत्र की स्थापना करते है। शासन प्राप्त करने के बाद इन अच्छे व्यक्तियों के सद्गुण अदृश्य होने लगते हैं और ये अपने स्वार्थ साधन में जुट जाते है। भीड़तंत्र एक प्रकार का अतिवादी लोकतंत्र है। अरस्तू के अनुसार, यह संविधान का निकृष्टतम रूप है। इस रूप को प्राप्त करने के बाद संविधान में फिर परिवर्तन होता है और राज्य का कोई वीर व सद्गुणी व्यक्ति अपनी सत्ता स्थापित करके कानून के शासन की स्थापना करता है। यह संविधान का राजतंत्र रूप होता है, उसके बाद उसी भाँति संविधान के परिवर्तन का चक्र चलता रहता है।

अरस्तू का दासता सम्बन्धी सिद्धान्त

 यूनानी समाज का आधार दास प्रथा रही है। दास प्रथा की उपस्थिति यूनानी नगर राज्यों की एक प्रमुख विशेषता और महान् आवश्यकता थी। व्यक्तिगत आधार पर यूनानी लोग अनेक दासों के स्वामी होते थे दास प्रथा तात्कालिक यूनानी जीवन का इतना बड़ा सत्य बन गई थी कि अनेक विद्वानों ने तो यूरानी राजनीतिक जीवन, सभ्यता एवं संस्कृति आदि को दास प्रथा पर ही अवलम्बित माना है।

प्लेटी अपनी 'रिपब्लिक में दासता के प्रश्न पर चुप रहता है और पाठकों को भ्रम में डाल देता है कि वह दास प्रथा को समाप्त करना चाहता है, परन्तु वह अपनी 'लोज' में इस प्रथा को मान्यता देने पर तुलना हुआ है। अरस्तू के युग में दासता प्रश्न एक विवादास्पद प्रश्न बन गया था। खासतौर से सोफिस्ट विचारक इस बात के लिए प्रयत्नशील ये कि दासता जैसी अमानुषिक प्रथा का समूल विनाश कर दिया जाए। ये इसे अप्राकृतिक, अनैतिक एवं अनुचित संस्था मानते थे। एल्सिडेमस तथा एन्टीफोन जैसे सोफिस्टो की स्पष्ट धारणा थी कि ईश्वर ने सबको स्वतंत्र बनाया है और प्रकृति को दास नहीं बनाया।"

अरस्तू वैज्ञानिक दृष्टिकोण और वैज्ञानिक अध्ययन का प्रवर्तक था, किन्तु साथ ही एक व्यावहारिक बुद्धिजीवी भी था। दासता आधारित यूनानी सभ्यता का एक सच्चा प्रतिनिधि होने के नाते तथा स्वयं अनेक दासों का स्वामी होने के कारण उसने बौद्धिक आधार पर दास प्रति के औचित्य का प्रतिपादन करने की ठान ली।

यूनानी दासता का स्वरूप

दास प्रथा के औचित्य का प्रतिपादन करते समय अरस्तू के मस्तिष्क में एटिक जैसे नगर राज्यों में दासों की स्थिति थी। ऐटिक में दास को परिवार का एक अंग समझा जाता था और उसकी वेशभूषा परिवार के सदस्यों की भांति ही थी। उसके साथ सामाजिक और कानूनी दृष्टि से असमानता का बताय नहीं किया जाता था और राज्य की तरफ से उसे संरक्षण प्राप्त होता था। वस्तुतः अरस्तू को दास प्रथा की अमानुषिकता का भान ही नहीं था। इस प्रथा के कारण मानव ने मानव का घृणित रूप से उत्पीड़न एवं शोषण किया जिससे वह सर्वथा अपरिचित था। यूनानी नगर राज्यों के नागरिक कहलाने वाले मुट्ठी भर लोग अपने दासों को सभी प्रकार के राजनीतिक अधिकारों से वंचित रखते थे और उन्हें मानव के रूप में भी स्वीकार नहीं करते थे।

अरस्तू के अनुसार दासता का अर्थ एवं प्रकृति

दास प्रथा सम्बन्धी अपने विश्लेषण में अरस्तू ने सर्वप्रथम दास के अर्थ को स्पष्ट किया है। उसने दास को पारिवारिक सम्पत्ति का एक भाग माना है। उसके अनुसार, "जो स्वभावतः अपना नहीं है लेकिन दूसरों का है, दास है।" दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि दास यह है जिसका स्वयं का कोई व्यक्तित्व नहीं होता और यहाँ तक कि जिसका अपना मस्तिष्क नहीं होता। 
    अरस्तु के अनुसार सम्पत्ति गृहस्थी का हिस्सा होती है। सम्पत्ति अर्जित करने की कला गृह प्रबन्ध की कला का अंग है। सम्पत्ति दो प्रकार की होती है- (1) सजीव, (2) निर्जीव निर्जीव सम्पत्ति में मकान, खेत और दूसरी अचल सम्पत्ति आती है तथा सजीव सम्पत्ति में हाथी, घोड़े, अन्य पशु व दास आदि सम्मिलित हैं। किसी भी परिवार की सफलता और उसके कल्याण के लिए दोनों ही प्रकार की सम्पत्ति अपरिहार्य है।

अरस्तू द्वारा प्रतिपादित दासता के अर्थ से उसकी प्रकृति स्पष्ट होती है। दासता की प्रकृति स्पष्ट करते हुए अरस्तू तीन बातें बतलाता है 
प्रथम, "जो व्यक्ति अपनी प्रकृति से स्वयं अपना नहीं है बल्कि दूसरे का है, फिर भी मनुष्य ही है, यह स्वभावतः दास है।" द्वितीय, "वह व्यक्ति जो मनुष्य होते हुए भी सम्पत्ति की एक वस्तु है और दूसरे के अधीन रहता है," दास कहा जाता है। तृतीय, "सम्पत्ति की वस्तु, जो कार्य का उपकरण है और जिसे सम्पत्ति के स्वामी से पृथक् किया जा सकता है, दास है।

दासता का औचित्य

  1. अरस्तू दास प्रथा के पक्ष में नैतिक और भौतिक दोनों ही आधारों पर अनुमोदन और उसके औचित्य का समर्थन करता है। 1. दासता प्राकृतिक है-अरस्तू के अनुसार दास प्रथा प्राकृतिक है। प्रकृति में सर्वत्र ही यह नियम दृष्टिगोचर होता है कि उत्कृष्ट निकृष्ट पर शासन करता है। विषमता प्रकृति का नियम है। मनुष्यों में स्वाभाविक और प्राकृतिक रूप से असमानता होती है। सभी मनुष्य एक-सी बुद्धि, योग्यता और गुण लेकर उत्पन्न नहीं होते। दासता प्राकृतिक असमानता का ही परिणाम है। मूर्ख और बुद्धिहीन व्यक्ति दास बनने के योग्य हैं और कुशल तथा बुद्धिमान व्यक्ति स्वामी बनने के योग्य हैं।
  2. दास प्रथा दोनों पक्षों के लिए उपयोगी-अरस्तू दास प्रथा को इस दृष्टि से भी न्यायोचित ठहराता है कि यह न केवल स्वामी के लिए अपितु दास के लिए भी उपयोगी है। बुद्धिमान एवं विवेकसम्पन्न स्वामियों को राजकार्य एवं अपने बौद्धिक व नैतिक गुणों के विकास के लिए समय और विश्राम की आवश्यकता होती है। यह अवकाश उन्हें तभी मिल सकता है जब दास उनकी आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु श्रम करे।
  3. दासता नैतिक है- अरस्तू नैतिक दृष्टि से भी दास प्रथा को आवश्यक मानता है। उसका मत है कि स्वामी तथा दासों के नैतिक स्तर में भेद होता है। स्वामी गुणीऔर दास गुणहीन होते हैं। अतः स्वामी का कर्तव्य है कि दासों के प्रति स्नेहपूर्ण और दयालु रहे तथा दास का काम है कि यह स्वामी की आज्ञा का पालन करे। 
  4. राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था तथा स्थायित्व का अंग-अरस्तू ने एक अन्य कारण से भी दासता को उचित बताया है। उसके समय में दास प्रथा लगभग सम्पूर्ण यूनानी जगत में प्रचलित थी और राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था तथा स्थायित्व का एक अंग बन गई थी। ऐसी स्थिति में दास प्रथा को स्वीकार करने से न केवल नगर राज्यों का शक्ति संतुलन बिगड़ने का डर था वरन् इन राज्यों की आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था के व्यस्त हो जाने की भी आशंका थी।
  5. दासता सम्पूर्ण समाज के हित में स्वामियों तथा दासों के अतिरिक्त सम्पूर्ण समाज के दृष्टिकोण से भी अरस्तू दास प्रथा को आवश्यक तथा हितकर समझता है। इसके द्वारा कुछ श्रेष्ठ व्यक्तियों को घरेलू धन्यों से मुक्ति मिल जाती है और ये निश्चित तथा एकाग्रचित्त होकर अपना सारा समय समाज हित के कार्यों में लगा सकते हैं।
  6. विवेकीय दृष्टिकोण से दास प्रथा का औचित्य-अरस्तू के अनुसार समस्त संसार में शासक और शासित का सिद्धान्त प्रचलित है यह सिद्धान्त समाज में ही नहीं बल्कि अचेतन वस्तुओं में भी होता है। जिस प्रकार आत्मा शरीर पर शासन करती है उसी प्रकार दास पर स्वामी का शासन विवेकशील है। विवेक के अनुसार स्वामी के निर्देश में रहकर ही दास अपना विकास कर सकता है।
  7. युद्ध का आधार युद्ध में पराजित व्यक्ति को अरस्तू दास बनाने के पक्ष में है। वह विजेता पर इस बात का निर्णय लेने के लिए छोड़ देता है कि पराजित व्यक्ति को दास बनाया जाए या नहीं।

दासता के प्रकार

अरस्तू के अनुसार दासता दो प्रकार की होती है
1. स्वाभाविक दासता 
2. वैधानिक दासता

कुछ व्यक्ति जो जन्म से ही मन्दबुद्धि, अकुशल व अयोग ये स्वाभाविक दास होते हैं। अरस्तू के शब्दों में, "कुछ मनुष्य स्वभाव से ही दास होते हैं।"

दास प्रथा के बारे में अरस्तू द्वारा प्रतिपादित मानवीय व्यवस्थाएँ 

अरस्तू ने दास प्रथा के सिद्धान्त को न्यायोचित ठहराते हुए भी उस पर कतिपय मानवोचित परिसीमाएँ लगाई हैं। रॉस ने इस सन्दर्भ में लिखा है, "ये व्यवस्थाएँ दास प्रथा से होने वाले अन्यायों और बुराइयों को कुछ अंशों तक रोकने के लिए महत्वपूर्ण है। ये परिसीमाएँ निम्नलिखित हैं
1. दासता प्राकृतिक है न कि वंशपरंपरा पर आधारित दास की सन्तान गुणवान और स्वामी की सन्तान निकम्मी हो सकती है, अतः जो व्यक्ति दास होते हुए भी योग्य और बुद्धिमान हैं, उनको मुक्त कर देना चाहिए। 
2. स्वामी को अपने दासों को यह वचन देना चाहिए कि यदि वे अच्छा कार्य करेंगे तो वह उनको मुक्त कर देगा। 3. स्वामी को अपने दासों से केवल वही कार्य करवाने चाहिए जिनको करने की उनमें क्षमता है।
4. स्वामी का कर्तव्य है कि दास की भौतिक और शारीरिक सुविधाओं का ध्यान रखें। 
5. अरस्तू दासों की संख्या बढ़ाने के पक्ष में नहीं है वह उनकी संख्या आवश्यकतानुसार ही रखना चाहता है।
6. स्वामी को चाहिए कि अपनी मृत्यु के समय अपने दासों को दासता से मुक्त कर दे।
7. अरस्तू का मत है कि समस्त दासों को अपने सम्मुख स्वतंत्रता का अन्तिम ध्येय रखना चाहिए। 

अरस्तू के नागरिकता सम्बन्धी विचार

राजनीति शास्त्र के विद्यार्थी के लिए 'पॉलिटिक्स' की तीसरी पुस्तक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है जिसमें अरस्तू ने संविधानों के वर्गीकरण के साथ-साथ 'नागरिकता' जैसे महत्त्वपूर्ण विषय पर अपने विचार प्रकट किए हैं।

नागरिकता का स्वरूप एवं परिभाषा

अरस्तु के अनुसार विधायक या राजमर्मज्ञ का सरोकार केवल राज्य से होता है, संविधान या शासन प्रणाली राज्य के निवासियों के क्रम विन्यास का घोतक है, परन्तु राज्य एक संश्लिष्ट सत्ता है जैसे कोई पूरी वस्तु अपने हिस्सों के संयोग से बनती है, वैसे ही नागरिकों के संयोग से राज्य का निर्माण होता है। अतः स्पष्ट है कि हमें इस चर्चा का आरम्भ इस प्रश्न से करना  चाहिए कि नागरिक कौन होता है, और इस शब्द का अर्थ क्या है? वैसे यहाँ भी मतभेद हो सकता है। दूसरे शब्दों में, 'किसी राज्य का 'निवासी' होने से उसका 'नागरिक' होना आवश्यक नहीं है।
वस्तुतः नागरिकता की परिभाषा करने से पूर्व अरस्तू नागरिकता की कतिपय प्रचलित मान्यताओं का खण्डन करता है। अरस्तू के दृष्टिकोण को स्पष्ट करते हुए फॉस्टर ने लिखा है-"हम इस बात से शुरू कर सकते हैं कि कोई नागरिक इसलिए नागरिक नहीं होता कि यह किसी स्थान विशेष पर रहता है क्योंकि उस स्थान पर तो अन्य देशी निवासी तथा दास भी रहते हैं। कई जगहों पर तो अन्य देशी निवासियों को ऐसे अधिकार भी पूरे तौर पर प्राप्त नहीं होते, क्योंकि वे कोई न कोई संरक्षक रखने को बाध्य होते हैं। फलतः वे नागरिकता में अधूरे तौर पर ही हिस्सा ले पाते हैं और हम उन्हें सीमित अर्थ में नागरिक कहते हैं, जैसे हम उन बच्चों को नागरिक कह देते हैं जो इतने छोटे हों कि पूंजी में उनका नाम दर्ज न हो सके या उन बूढ़ों को कह देते हैं जिन्हें राज्य के कार्यों से छुट्टी दे दी गई हो। अर्थात् अरस्तू इस मत का प्रतिपादन करता है कि राज्य का निवासी होकर भी कतिपय परिस्थितियों और कारणों से व्यक्ति राज्य का नागरिक नहीं होता। उसके अनुसार
  1. नागरिकता (पोलीतीस) किसी विशेष राज्य या स्थान में निवास से नहीं मिल सकती, यदि ऐसा होता तो किसी राज्य में रहने वाले विदेशी व्यापारी और दास भी उसके नागरिक समझे जाते। 
  2. नागरिक की सन्तान होने से भी कोई व्यक्ति नागरिक नहीं बन जाता है। क्योंकि यह लक्षण पुराने राज्यों के विषय में तो ठीक हो सकता है, किन्तु नए राज्यों के आरंभिक नागरिकों पर लागू नहीं हो सकता। 
  3. राज्य से निर्वासित और मताधिकार से वंचित व्यक्ति को राज्य का नागरिक नहीं माना जा सकता है।
  4. उस व्यक्ति को नागरिक नहीं माना जा सकता है जिसे राज्य द्वारा केवल सम्मान के लिए नागरिक बना दिया गया है, जैसे अंगीकृत नागरिक । 
  5. इसके अतिरिक्त, उन व्यक्तियों को भी नागरिक नहीं माना जा सकता जिनके माता-पिता किसी राज्य के नागरिक हैं और जिसने उसी राज्य में जन्म लिया है क्योंकि ऐसा करने से हम नागरिक निर्धारण करने के किसी सिद्धान्त का निर्माण नहीं करते। ऐसी स्थिति में प्रश्न होगा उनके माता-पिता नागरिक कैसे बने? 
इसका अर्थ यह हुआ कि एक व्यक्ति जो न्याय अथवा राज्य के विधि निर्माण सम्बन्धी कार्यों में भाग ले, वही नागरिक है। न्याय के क्षेत्र में जो व्यक्ति न्यायाधीश अथवा जूरर का कार्य करे, वह नागरिक है अथवा जो व्यक्ति राज्य की साधारण सभा का सदस्य होने के नाते राज्य के विधि निर्माण सम्बन्धी कार्यों में भाग ले, वही नागरिक है। अतः नागरिक वही है,
  • जो न्याय के प्रशासन में भाग लेता है। 
  • जो साधारण सभा का सदस्य होने के नाते विधायक कार्यों में भाग लेता है।
दासों और श्रमिकों को नागरिकता से वंचित करने का कारण यह है कि नागरिकता एक विशेष गुण है, उसके लिए योग्यता विशेष की आवश्यकता होती है। यह योग्यता उन्हीं के पास हो सकती है जिनके पास 'अवकाश' हो। दास और श्रमिक व्यक्तियों के पास अवकाश कहाँ, परन्तु यहाँ हमें अवकाश के सही अर्थ को समझ लेना आवश्यक है। अरस्तू छुट्टी अथवा आराम के क्षणों को अवकाश नहीं कहता, जाहिर है कि अवकाश का अर्थ केवल आराम के क्षण नहीं है, अपितु इसका अर्थ है वे कार्य जिनका सम्बन्ध केवल रोटी और मकान की व्यवस्था करना ही नहीं है। स्वाभाविक रूप से दास और श्रमिक अवकाश के क्षणों में नागरिकता के लिए आवश्यक गुणों से वंचित रह जाते हैं। अतः वे नागरिक नहीं हो सकते। 
संक्षेप में, अरस्तू के नागरिकता सम्बन्धी विचारों से एक नागरिक की निम्नलिखित योग्यताएँ उभरकर सामने आती हैं, (i) शासन करने और शासित होने की क्षमता हो, (ii) भौतिक और आर्थिक चिन्ताओं से मुक्त हो, (ii) कारीगर या मजदूर न हो, (iv) स्त्री न हो, (v) वयस्क हो।

प्लेटो और अरस्तू के नागरिकता सम्बन्धी विचारों में अन्तर 

यहाँ पर यह देखना रुचिकर है कि अरस्तू के नागरिकता सम्बन्धी विचार भी उतना ही संकुचित दृष्टिकोण लिए हैं जितने कि प्लेटो के विचार प्लेटो भी उत्पादक वर्ग को राज्य के न्याय और विधि निर्माण सम्बन्धी कार्यों से मुक्त रखता है तथा अरस्तू भी। जो व्यक्ति अरस्तू के अनुसार नागरिक बनने के अधिकारी हैं वे वास्तव में प्लेटो के अभिभावक वर्ग के सदस्य ही है।
परन्तु दोनों के विचारों में निम्नलिखित अन्तर भी है 
  1. प्लेटो की मान्यता है कि एक अच्छा व्यक्ति ही अच्छा नागरिक है। जबकि अरस्तू इस मत से सहमत नहीं क्योंकि अरस्तु के अनुसार एक नागरिक और एक अच्छे मनुष्य के गुण समान हो, आवश्यक नहीं है. 
  2. अरस्तू शासन में सक्रिय भाग लेने वाले व्यक्ति को ही नागरिकता प्रदान करता है जबकि प्लेटो के नागरिक के लिए यह कार्य आवश्यक नहीं है।
  3. प्लेटो शासक के लिए वैज्ञानिक बुद्धि एवं सैद्धान्तिक ज्ञान आवश्यक बताता है जबकि अरस्तू शासक के लिए व्यावहारिक बुद्धि का होना आवश्यक माना जाता है।
  4. प्लेटो के राज्य में दासों और नागरिकों में कोई अन्तर नहीं है, परन्तु अरस्तू तो श्रमिकों को भी नागरिकों के अधिकारों से वंचित करता है। 
  5. प्लेटो ने नागरिकता की न तो सुव्यवस्थित परिभाषा ही दी है और न नागरिकता के लिए निश्चित अर्हताएँ ही अरस्तू इस सम्बन्ध में विस्तृत विचार प्रकट करता है।
  6. प्लेटो का उत्तम नागरिक ही उत्तम मानव है, परन्तु अरस्तू के लिए यह आवश्यक नहीं है कि उत्तम नागरिक उत्तम मानव हो। वह इन दोनों में अन्तर स्थापित करता है। 
  7. प्लेटो इस प्रश्न पर भी चुप है कि स्त्रियों को नागरिकता देनी चाहिए या नहीं जबकि अरस्तू स्त्रियों को नागरिकता का अधिकार प्रदान नहीं करता

नागरिकता सम्बन्धी आधुनिक एवं अरस्तू का दृष्टिकोण

 नागरिकता सम्बन्धी अरस्तू के दृष्टिकोण में तथा आधुनिक दृष्टिकोण में बड़ा अन्तर है। अन्तर का आधार यह है कि उसके नगर राज्यों की प्रकृति एवं आवश्यक गुणों में तथा आधुनिक राज्य की प्रकृति एवं आवश्यक गुणों में बड़ा अन्तर पाया जाता है। अरस्तू ने नगर राज्य को दृष्टिकोण में रखकर नागरिकता पर विचार किया है। उसके नागरिकता विषयक चिन्तन का आधार प्रतिनिधि सरकार नहीं है, अपितु 'प्राथमिक सरकार है।

आधुनिक युग की सरकारकों की प्रकृति प्रतिनिधिक होने के कारण नागरिकता पर विचार करते समय बड़ा उदार दृष्टिकोण अपनाकर चलना पड़ता है। आज नागरिकता का निर्धारण करने का प्रथम आधार व्यक्ति का वह अधिकार माना जाता है जिसके होने से व्यक्ति अपने प्रतिनिधियों के चुनाव कार्य में हाथ बँटा सके, स्वयं प्रतिनिधि बन सके एवं राजकीय सेवा करने का अवसर प्राप्त कर सके। अतः आज नागरिकता के निर्धारण का प्रमुख आधार मतदान के अधिकार को स्वीकार किया गया है। द्वितीय, आज नागरिकता के द्वार उच्चकुलीन, सम्पत्तिशाली और अवकाशयुक्त जीवन व्यतीत करने वाले अभिजात्यवर्ग के लिए खोलकर हजारों लाखों श्रमिकों, शिल्पियों आदि के लिए बन्द नहीं किए जा सकते। रॉस ने इस सम्बन्ध में लिखा है कि अरस्तू ने नागरिकता को संकुचित बनाया, अतः नागरिकों के बहुमत को मताधिकार से वंचित रखकर वह राज्य के स्थायित्व को संकट में डाल रहा है। तृतीय, अरस्तू के नागरिक में तथा आधुनिक युग के नागरिक में एक स्पष्ट अन्तर यह भी है कि जहाँ अरस्तू का नागरिक यह आशा लेकर चलता है कि एक न एक दिन वह स्वयं शासक बनेगा तथा कार्यपालिका एवं विद्यायिका सदस्य के रूप में कार्य कर सकेगा। वहाँ आज के नागरिक को इसी बात से सन्तोष करना है कि वह अपने राज्य के विधायकों एवं कार्यपालिका के सदस्यों के निर्वाचन में हाथ बटा रहा है।

अरस्तू के कानून एवं सम्प्रभुता सम्बन्धी विचार 

अरस्तू के कानून सम्बन्धी विचार

प्लेटो की स्पष्ट मान्यता दी कि "जहाँ राजा सद्गुणी है, वहीं कानून अनावश्यक है और जहाँ सद्गुणी नहीं है, कानून निरर्थक है" इस सम्बन्ध में बार्कर ने लिखा है कि "प्लेटो के लिए कानून की अपेक्षा शाश्वत आदशों का अधिक महत्त्व था। जिस  व्यक्ति ने इन शाश्यत आदशों का दर्शन कर लिया उसे स्वेच्छानुसार शासन करने दिया जाना चाहिए। रिपब्लिक में 'कानून' को स्थान नहीं मिला है।" किन्तु 'लोज' में प्लेटो ने कानून के महत्व को पुनर्स्थापित किया। अतः समाज में व्यवस्था बनाए रखने के लिए किसी एक स्वर्णिम सूत्र की आवश्यकता है जो मनुष्यों को एकता के सूत्र में बाँध सके और उन्हें अपने कर्तव्यों के प्रति जागरूक कर सके। प्लेटो के लिए यह स्वर्णिम सूत्र 'कानून' था। अरस्तू ने 'कानून' के सम्बन्ध में प्लेटो से भिन्न विचार प्रस्तुत किए हैं। उसकी स्पष्ट मान्यता है कि सबसे बुद्धिमान ज्ञानी शासक भी कानूनों से उत्कृष्टतम नहीं हो सकता। वस्तुतः उसने कानून को योग्यतम शासक से भी उच्चतर स्थान प्रदान किया है।

अरस्तू के अनुसार कानून से अभिप्राय

अरस्तू ने कानून की परिभाषा करते हुए इसे 'आवेगहीन विवेक कहा है। यह कानून को 'इच्छा से अप्रभावित विवेक' कहकर पुकारता है। अर्थात् उसने कानून को विशुष विवेक माना है। उसने कानून को उन समस्त बन्धनों का सामूहिक नाम दिया जिसके अनुसार व्यक्तियों के कार्यों का नियमन होता है। वह कानून तथा विवेक बुद्धि को पर्यायवाची मानता है। उसके अनुसार विवेक बुद्धि मानव कार्यों के नियमन के लिए एक आध्यात्मिक बंधन है। इसी तरह एक प्रकार से नीति और कानून भी समानार्थक संज्ञाएँ हैं। अरस्तू के मत में नैतिकता के समान कानून का भी एक निश्चित लक्ष्य होता है।

अरस्तू के अनुसार कानून की सर्वोच्चता क्यों? 

अरस्तू ने इस प्रश्न पर विचार किया कि राज्य में सर्वोच्च सत्ता किसकी हो? क्या ये स्थान सर्वसाधारण को मिलना चाहिए या धनिक वर्ग को या श्रेष्ठ व्यक्तियों को या सर्वश्रेष्ठ व्यक्तियों को या निरंकुश शासक को? इनमें से किसी भी विकल्प को स्वीकार करने पर मतभेद पैदा होने की संभावना रहेगी।

अतः यह तर्क दिया जाता है कि कानून का शासन किसी व्यक्ति के शासन से उत्तम होता है। इसी सिद्धान्त के अनुसार, यदि कुछ लोग शासन करने के लिए अधिक उपयुक्त भी हो तो भी उन्हें केवल कानून के संरक्षक और पालनकर्ता बनाना चाहिए और कुछ नहीं। जो कानून को शासन करने देता है और उसके बारे में यह मान सकते हैं कि वह केवल ईश्वर और तर्क बुद्धि (विवेक) को शासन करने देता है, परन्तु जो मनुष्य को शासन करने देता है, वह एक तरह से पशु को शासन करने देता है, क्योंकि लालसा एक हिंस्र पशु है और राग-द्वेष मनुष्यों के मन को भ्रष्ट कर देते हैं, चाहे वे मनुष्य जाति के शिरोमणि ही क्यों न हो। कानून तर्कबुद्धि का द्योतक है जो किसी लालता से विचलित नहीं होता।
अरस्तू की मान्यता है कि राज्य में चाहे सर्वोच्च सत्ता एक व्यक्ति के हाथों में हो, कुछ व्यक्तियों के हाथों में हो या बहुत सारे लोगों के हाथों में.... परन्तु एक शर्त ऐसी है जो इन सभी प्रकार के राज्यों को पूरी करनी होगी। इन सबमें सर्वोच्च सत्ता चाहे किसी के हाथों में भी क्यों न हो, उसे इसका प्रयोग कानून के अनुसार करना चाहिए। उसे सत्ता का प्रयोग न तो मनमाने ढंग से करना चाहिए, न कानून को ताक पर रखकर यदि वह ऐसा करता है तो उसे राज्य कहना ही उपयुक्त न होगा। अरस्तू का कहना है कि "ऐसे लोकतंत्र पर यह आपत्ति करना समीचीन होगा कि वह कोई संविधान है ही नहीं. ...बात यह है कि जहाँ कानून की सत्ता नहीं होती यहाँ कोई संविधान नहीं होता। कानून सबके ऊपर होना चाहिए और शासकों को केवल स्थिति विशेष के सम्बन्ध में निर्णय देना चाहिए "

कानून की आवश्यकता के कारण 

अरस्तू के अनुसार कानून जितना व्यक्ति के लिए आवश्यक है उतना ही राज्य एवं समाज के लिए भी आवश्यक है।
व्यक्ति के लिए कानून नकारात्मक और सकारात्मक दो दृष्टियों से आवश्यक है। नकारात्मक दृष्टि से कानून व्यक्ति की पाशविक प्रवृत्तियों का दमन करने और उसे अनुशासन में रखने के लिए आवश्यक है। अरस्तू के अनुसार बुरे और स्वार्थी प्रवृत्तियों के मनुष्यों की संख्या काफी अधिक है जो अपने विवेक के अनुसार कार्य न करके अपने स्वार्थ और भावनाओं से निर्देशित होकर कार्य करते हैं। चूँकि कानून शक्ति पर आधारित होते हैं, इसलिए ऐसे व्यक्तियों में अच्छी आदतों का निर्माण करते हैं, उन्हें सद्गुणी बनाते हैं और उनके जीवन को अनुशासन में रखते हैं। सकारात्मक दृष्टि से कानून मनुष्य को पूर्ण बनाने के लिए आवश्यक है।
अरस्तू ने राज्य के लिए दार्शनिक राजा की अवधारणा को ठुकराते हुए 'कानून के शासन की अवधारणा का प्रतिपादन किया। राज्य में कानून की आवश्यकता के कारण है-मनुष्यों को सदाचार की मर्यादाओं में रखने के लिए, उनको संयम और अनुशासन में रखने के लिए, उनको अपने स्वार्थ एवं वासनाओं से प्रेरित न होने देने के लिए, उनको अपराध व अन्याय करने से रोकने के लिए तथा राज्य में शान्ति व व्यवस्था बनाए रखने के लिए। चूँकि कानून के पीछे बाध्यकारी शक्ति होती है। इसलिए व्यक्तियों को कानून के रूप में विवेक की वाणी सुनने के लिए बाध्य किया जा सकता है।

कानून के स्रोत

प्लेटो ने कानून को प्रकृतिजन्य न मानकर रूदिजन्य माना है और इसी कारण उसने यह उचित नहीं माना कि आदर्श राज्य के दार्शनिक शासक के कार्यकलापों को रूढ़ियों के बन्धनों से सीमित कर दिया जाए, किन्तु अरस्तू इस सम्बन्ध में प्लेटो से भिन्न विचार रखता है। उसके अनुसार कानून सम्पूर्ण रूप से रूदिजन्य अथवा मानव निर्मित नहीं है अपितु प्रकृतिजन्य है। कानून को प्रकृतिजन्य मानने का अरस्तू का आधार सोद्देश्यता का सिद्धान्त भी है। कानून न केवल अपने उत्पत्ति स्रोत के कारण बल्कि अपने उद्देश्यों के कारण भी प्राकृतिक हैं, मानवकृत नहीं।
अरस्तू के अनुसार कानून को प्रकृतिजन्य मानने का आधार है उसमें निहित अव्यक्तिगत तत्त्व है। ये तत्त्व नैतिक दूरदर्शिता तथा सूझ-बूझ के परिणाम है। कानून का शासन विवेक का शासन है किसी व्यक्ति अथवा कतिपय व्यक्तियों का शासन नहीं। अतः कानून का स्रोत प्रकृति में ढूँढ़ा जा सकता है, रूढ़ियों में नहीं।
अरस्तू लिखित कानून से प्रथागत कानून को ज्यादा अच्छा समझता है। वह स्पष्ट रूप से इस बात को असम्भव मानता है कि सबसे बुद्धिमान शासक का ज्ञान प्रयागत कानून से बेहतर होता है।

कानूनों का वर्गीकरण

अपनी कृति 'वक्तृत्वकलाशास्त्र में अरस्तू ने कानून को दो भागों में बाटा है 
  1. विशिष्ट कानून-अरस्तू के अनुसार विशिष्ट कानून वे कानून हैं जो किसी विशिष्ट राज्य द्वारा बनते हैं और उस के राज्य के व्यक्तियों द्वारा लागू होते हैं। ये भिन्न-भिन्न राज्यों के अपने कानून हैं। ये लिखित तथा अलिखित दोनों रूपों में पाए जाते हैं।
  2. सार्वभौमिक कानून-ईश्वरीय अथवा प्राकृतिक कानून को अरस्तू ने सार्वभौमिक कानून की संज्ञा दी है। इस कानून को चाहे किसी समुदाय की मान्यता प्राप्त हो अथवा न हो, इसका अस्तित्व अवश्य है। ये सभी देशों के लिए समरूप होते हैं। देश-काल और पात्र का प्रभाव इन पर नहीं होता। ये शाश्वत और अपरिवर्तनशील होते हैं।

अरस्तू का आदर्श राज्य

प्लेटो की भांति अरस्तु एक आदर्शवादी विचारक नहीं है। वह ऐसे आदर्श की कल्पना नहीं करता जो प्राप्त नहीं किया जा सकता। उसे एक ऐसे आदर्श में कोई रुचि नहीं थी, जो मानव समाज के लिए नितान्त असम्भव एवं अप्राप्य बना रहे। इसीलिए वह प्लेटो के आदर्श राज्य की कटु आलोचना करता है। अरस्तू के यही आदर्श एक आदर्श राज्य का निर्माण करते हैं। सेवाइन के शब्दों में, "अरस्तू आदर्श राज्य पर पुस्तक नहीं लिखता अपितु राज्य के आदर्शों पर पुस्तक लिखता है।"

अरस्तू के आदर्श राज्य की विशेषताएँ

अरस्तू के अनुसार शासन का उद्देश्य व्यक्ति को उत्तम जीवन प्रदान करना है। उत्तम जीवन के लिए कुछ परिस्थितियों की भी आवश्यकता होती है। उन परिस्थितियों के अभाव में कोई भी राज्य उत्तम शासन प्रदान नहीं कर सकता। इसलिए हमें उत्तम राज्य हेतु कुछ पूर्णतः काल्पनिक परिस्थितियों के विषय में सोचना है। यद्यपि ये पूर्णतः काल्पनिक परिस्थितियों के विषय में सोचना है। यद्यपि ये पूर्णतः काल्पनिक हैं, परन्तु इनमें कोई एक भी असम्भव नहीं है। सेवाइन के शब्दों में, "आदर्श राज्य के निर्माण के लिए आदर्श सामग्रियों की ही आवश्यकता होगी। यह राजनीतिज्ञों एवं विधि निर्माताओं का कर्तव्य है कि वे अपनी आदर्श राजनीतिक रचना के लिए उपयुक्त साधन एये सामग्रियों एकत्रित करें क्योंकि ये ही आदर्श राज्य के निर्माता है।"
1. जनसंख्या राज्य के निर्माणक तत्त्वों में अरस्तू 'मानवीय तत्त्व' को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और मूलभूत मानता है। यह तत्त्व समुचित मात्रा में होना चाहिए एवं श्रेष्ठ किस्म का होना चाहिए। किसी भी राज्य को नागरिकों की संख्या के आधार पर महानू कहना उचित नहीं होगा क्योंकि महानता का सही मापदण्ड राज्य की बड़ी जनसंख्या नहीं अपितु उसकी कार्यक्षमता है। प्रत्येक राज्य के करने योग्य कुछ कार्य होते हैं। जिन राज्यों में इन कार्यों को करने की अधिकतम क्षमता है, ये राज्य ही महान् राज्य कहे जा सकते हैं। जनसंख्या की मात्रा के आधार पर किसी राज्य को महान मानने के लिए अरस्तू कदापि तैयार नहीं हैं। अब प्रश्न यह उठता है कि राज्य की जनसंख्या कितनी हो। अरस्तू जनसंख्या निश्चित करके अपने विचार की महत्ता को कम करना नहीं चाहता था, परन्तु उसने इस बात पर बल दिया है कि राज्य में प्रत्येक नागरिक एक-दूसरे को जानता हो ताकि चुनाव या पद-प्रदत्ति के समय उनका उचित अंकन किया जा सके। उसके अनुसार राज्य इतना बड़ा हो कि अपनी सेवाओं द्वारा अपनी स्वतन्त्रता को बनाए रख सके और इतना छोटा भी हो कि एक सेनापति उस राज्य की सेनाओं को अपने नियन्त्रण में रख सके। अरस्तू को अधिक संख्या वाले राज्य में विदेशियों और गैर-नागरिकों के मिश्रण का भय था और उनसे राज्य के नैतिक स्तर गिरने का भय भी था। इसलिए अरस्तू यह कहकर जनसंख्या के प्रश्न को समाप्त करता है कि राज्य की अधिकतम जनसंख्या की सीमा वह है जो जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति करती हो और जिसका आसानी से निरीक्षण किया जा सके। अरस्तू जनसंख्या के नियंत्रण का भी बहुत ध्यान रखता है। यह चाहता है कि राज्य की संख्या न तो अधिक बढ़ने पाए और न अधिक घटने पाए। वह जनसंख्या पर नियन्त्रण रखने के लिए राज्य को अधिकार प्रदान करता है कि वह विवाह की आयु निश्चित करें। यह अत्यधिक वृद्ध और अत्यधिक युवाओं की शादियों पर प्रतिबन्ध लगाता है। उसके अनुसार राज्य को अपंग, भद्दी शक्ल और मानसिक विकलांगों को सन्तानोत्पत्ति की अनुमति नहीं देनी चाहिए। जनसंख्या को रोकने के लिए वह गर्भपात की भी अनुमति देता है।
2. आदर्श राज्य का क्षेत्रफल आदर्श राज्य के निर्माण के लिए जनसंख्या की भांति क्षेत्रफल को भी अरस्तू ने महत्त्वपूर्ण माना है। उसके अनुसार राज्य का भू-क्षेत्र न तो बहुत छोटा होना चाहिए और न बहुत बड़ा उसके विचार में जिस प्रकार एक जहाज 6 इंच चौड़ा और 1200 फीट लम्बा हो तो बेकार होता है, उसी प्रकार एक राज्य बहुत छोटा और बहुत बड़ा दोनों ही प्रकार का बेकार होता है। राज्य इतना बड़ा होना चाहिए कि उसको एक ही दृष्टि से देखा जा सके और उसकी रक्षा की जा सके।
3. आदर्श राज्य की स्थिति अरस्तू आदर्श राज्य की स्थिति को बहुत ही महत्त्व प्रदान करता है। वह युद्ध, रक्षा, व्यापार की दृष्टि से राज्य की स्थिति बनाना चाहता है। वह राज्य को समुद्र और भूमि दोनों के लाभों से लाभान्वित कराना चाहता है और उनकी हानियों से बचाना चाहता है। राज्य की स्थिति ऐसी भी हो कि वह अपनी भूमि में युद्धों के लिए किलेबन्दी भी कर सके। यद्यपि अरस्तू आक्रामक युद्धों के विरुद्ध है तथापि एक शक्तिशाली नाविक सेना रखने के पक्ष में है। उस सेना के लिए वह समुद्र का सामीप्य भी स्वीकारता है ताकि अपने जहाजों को वहाँ रोक सके। वह समुद्र का सामीप्य इस दृष्टिकोण से भी चाहता है कि आवश्यकता की वस्तुओं को राज्य विदेशों से मँगवा सके और अपने यहाँ उत्पादित वस्तुओं को बाहर भेज सके। 
4. आदर्श राज्य में सामाजिक संगठन अबवा वर्ग- आदर्श राज्य के सामाजिक ढाँचे पर भी अरस्तू ने विचार व्यक्त  किए हैं। राज्य के सामाजिक ढाँचे का निर्माण छः तत्त्वों से मिलकर होता है। ये तत्व है- 
(I) भोजन की आवश्यकता पूरी करने वाला तत्त्व-कृषक वर्ग
(ii) कला तथा उद्योग-धन्धे करने वाला तत्व- कारीगर वर्ग
(iii) सैनिक कार्य करने वाला तत्त्व- योद्धा
(iv) धन-सम्पत्ति का स्वामी तत्त्व- धनिक वर्ग 
(v) देवताओं की स्तुति करने वाला तत्त्व- पादरी
(vi) न्याय का निर्धारण करने वाला तत्त्व-न्यायाधीश
5. आदर्श राज्य में शिक्षा-आदर्श राज्य के निर्माण और स्थायित्व के लिए उपयुक्त शिक्षा पद्धति परम आवश्यक है, इसलिए अरस्तू सभी नागरिकों के लिए एक जैसी शिक्षा की व्यवस्था करता है। शिक्षा वह साधन है, जो मनुष्य की आदतों का परिमार्जन करने तथा उसकी विवेकशीलता को यथोचित प्रोत्साहन देने में बहुत सहायक सिद्ध होता है। अरस्तू बच्चे का जन्म होने के बाद उसके शारीरिक और नैतिक शिक्षा की विस्तृत व्यवस्था करता है-(1) सात वर्ष तक, (2) सात से 14 वर्ष तक, और (5) 14 से 21 वर्ष तक सात वर्ष तक की शिक्षा को उसने पुनः तीन भागों में विभक्त किया है- (1) 2 वर्ष तक, (2) 2 से 5 वर्ष तक, और (3) 5 से 7 वर्ष तक इसके प्रथम काल में बच्चे को मौसम के अनुकूल बनाना है, द्वितीय में उसके अंगों की पुष्टि का ध्यान देना है और तृतीय में उसे अभद्र और अश्लील आदतों से बचाना है। 7 से 14 वर्ष तक वह सामान्य शिक्षा जैसे आज्ञापालन, नैतिक भावना का उत्थान, पढ़ाई-लिखाई आदि पर जोर देता है। 14 वर्ष के पश्चात बौद्धिक शिक्षा पर जोर देता है। वह 16-17 वर्ष तक की अवस्था में हल्के व्यायाम के लिए भी कहता है।
6. सम्पत्ति व परिवार अरस्तू अपने आदर्श राज्य में सम्पत्ति और परिवार को एक आवश्यक अंग मानता है, जिसके बिना दैनिक जीवन सम्भव नहीं है। मनुष्य के सुखी जीवन के लिए आवश्यक है कि उसकी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति हो और दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए परिवार की भांति सम्पत्ति की आवश्यकता स्वाभाविक है। अरस्तू के अनुसार सम्पत्ति दो प्रकार की होती है-निर्जीव और सजीव और दोनों प्रकार की सम्पत्ति परिवार के लिए उपयोगी है। उसके अनुसार सम्पत्ति प्राप्ति के दो तरीके हैं प्राकृतिक और अप्राकृतिक । इसी प्रकार अपने आदर्श राज्य में अरस्तू परिवार को उचित आवश्यक और प्रेरणा का स्रोत मानता है। आत्मरक्षा, आत्माभिव्यक्ति तथा मनुष्य की यौन भावनाओं की सन्तुष्टि के कारण परिवार स्वाभाविक और आवश्यक है। परिवार में स्वाभाविक रूप से कुछ गुण विद्यमान हैं। इसके अभाव में मनुष्य उन गुणों द्वारा उत्पन्न सुविधा व आनन्द की प्राप्ति से वंचित रह जाएगा। परिवार में ही मनुष्य को स्नेह, ममता, वात्सल्य और प्रेम की गंगा में स्नान करना सम्भव है, अन्यथा नहीं।
7. आदर्श राज्य के लिए मिश्रित संविधान-अरस्तू ने आदर्श राज्य के लिए 'मिश्रित संविधान' का समर्थन किया है। वस्तुतः उसका आदर्श संविधान सर्वजनतन्त्र या मध्यवर्गतन्त्र, जनतन्त्र और धनिकतन्त्र का सम्मिश्रण है। इसमें जनतन्त्र और धनिकतन्त्र के गुणों का समन्यय होता है। जनतन्त्र में निर्धन जनता के छोटे प्रलोभनों से दूषित होने की सम्भावना होती है, उसमें शासन की योग्यता का अभाव होता है, दूसरी ओर धनिकों में कानून की अवज्ञा करने का दोष होता है। मिश्रित संविधान दोनों प्रकार के दोषों से मुक्त होता है।
8. आदर्श राज्य में कानून की सर्वोच्चता-अरस्तू के आदर्श राज्य की एक प्रमुख विशेषता कानून की सर्वोच्चता है। कानून की सर्वोच्चता का समर्थन करते हुए अरस्तु लिखता है-"ठीक प्रकार से बनाए गए कानून ही अन्तिम प्रभु होने चाहिए।"

क्या अरस्तू का आदर्श राज्य प्लेटो के उपादर्श राज्य का ही दूसरा नाम है?

'रिपब्लिक में वर्णित प्लेटो का आदर्श राज्य जहाँ काल्पनिक सिद्धान्तों पर आधारित है वहाँ अरस्तू का आदर्श राज्य जीवन की वास्तविक परिस्थितियों पर आधारित है। फलतः वे दोनों आपस में पूर्णतः भिन्न हैं, किन्तु प्लेटो के दूसरे ग्रन्थ लॉज में चित्रित आदर्श राज्य से काफी समान है क्योंकि अरस्तू ने अपने आदर्श राज्य के सिद्धान्तों का प्रतिपादन करने में 'लॉज' में प्रतिपादित अनेक सिद्धान्तों का भरपूर प्रयोग किया है। उन्हीं सिद्धान्तों को अपने ढंग से अपनाकर उसने अपने आदर्श राज्य की आधारशिला को सुदृढ़ बनाया है।
    किन्तु प्लेटो के आदर्श राज्य की तुलना में अरस्तू के आदर्श राज्य । कुछ विशेषताएँ हैं। यथा-अरस्तू ने नागरिकों के चरित्र निर्माण के लिए शिक्षा को एक बड़ा प्रभावशाली साधन माना है। जबकि प्लेटो 'लाज' की रचना करते समय शिक्षा पर एक साधन के रूप में अधिक भरोसा नहीं कर सका है। अतः उसने 'लॉज' के राज्य में व्यवस्था आदि बनाए रखने के लिए अनेक अंकुश, अनुशासनों तथा प्रतिबन्धों का भी सहारा लिया है।

अरस्तू के क्रान्ति सम्बन्धी विचार

यूनान के नगर राज्यों में राजनीतिक क्रान्तियों एवं वैधानिक परिवर्तनों द्वारा शासन प्रणाली में बहुधा परिवर्तन होता रहता था। ये क्रान्तियों यूनानी जगत के राजनीतिक जीवन का कटु सत्य बनी हुई थीं। इनके कारण यूनानी नगर राज्यों का राजनीतिक जीवन अत्यन्त अस्थिर एवं डांवाडोल बना हुआ था। आए दिन वहाँ पर राजतन्त्र के स्थान पर निरंकुशतन्त्र, कुलीनतन्त्र के स्थान पर धनिकतन्त्र और प्रजातन्त्र के स्थान पर राजतन्त्र का विकास तथा हास होता चला जाता था। अरस्तू को प्रथम राजनीतिक यथार्थवादी कहा जाता है। इसका एक बहुत बड़ा कारण यह भी है कि उसने तत्कालीन समस्याओं का गहन अध्ययन कर उनके समाधान के व्यावहारिक उपाए बताए हैं।

क्रान्ति का अर्थ

अरस्तू के अनुसार क्रान्ति का अर्थ है संविधान में परिवर्तन |
संविधान में होने वाला छोटा-बड़ा परिवर्तन, संविधान में किसी प्रकार का संशोधन होना, जनतन्त्र का उम्र या उदार रूप धारण करना, जनतन्त्र द्वारा धनिकतन्त्र का या धनिकतन्त्र द्वारा जनतन्त्र का विनाश किया जाना, सरकार में किसी प्रकार का परिवर्तन हुए बिना एक अत्याचारी शासक का दूसरे को हटाकर अपनी सत्ता स्थापित करना इन सब बातों को अरस्तू क्रान्ति मानता है।
संविधान में पूर्ण परिवर्तन के फलस्वरूप राज्य का सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और प्रशासनिक स्वरूप पूर्णतया बदल जाता है इसे हम पूर्ण क्रान्ति कह सकते हैं। संविधान में परिवर्तन के फलस्वरूप उसके किसी एक भाग में भी परिवर्तन हो सकता है इसे आशिक क्रांति कह सकते हैं। यह आवश्यक नहीं कि इस प्रकार के परिवर्तन के लिए रक्तपात किया जाए। अरस्तू संविधान में परिवर्तन को ही क्रांति कहता है और संविधान में परिवर्तन चुनाव, धोखे अथवा रक्तहीन उपायों द्वारा भी हो सकते हैं।

क्रान्तियों के प्रकार

अरस्तू के अनुसार क्रान्तियाँ निम्न पाँच प्रकार की होती हैं
  1. आंशिक अथवा पूर्ण क्रान्ति-जब सम्पूर्ण संविधान बदल दिया जाए तो उसे पूर्ण क्रांति और जब उसका कोई महत्वपूर्ण भाग बदल दिया जाता है तो उसे आशिक क्रान्ति कहा जाता है। पूर्ण क्रान्ति में राज्य का सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और प्रशासनिक स्वरूप पूर्णतः बदल जाता है। 
  2. रक्तपूर्ण अथवा रक्तहीन क्रान्ति-जब संविधान में परिवर्तन सशस्त्र विद्रोह के कारण व खून-खराब के कारण हो तो उसे रक्तपूर्ण क्रान्ति कहेंगे। जब संविधान या शासन का परिवर्तन बिना किसी रक्तपूर्ण उपद्रव के सम्भव होता है तो उसे अरस्तू ने तो रक्तहीन क्रान्ति कहा है।
  3. व्यक्तिगत अथवा गैर-व्यक्तिगत क्रान्ति-अरस्तू के अनुसार जब संविधान परिवर्तन किसी महत्त्वपूर्ण व्यक्ति को पदच्युत करने से होता है तो उसे वैयक्तिक क्रान्ति कहेंगे। 
  4. वर्ग विशेष के विरुद्ध क्रान्ति-इसमें राज्य के निर्धन व्यक्ति राजतन्त्र या धनिकतन्त्र के विरुद्ध विद्रोह करते हैं अथवा धनिक व्यक्ति राजतन्त्र या जनतन्त्र के विरुद्ध क्रान्ति करते हैं।
  5. आर्थिक असन्तुलन-अरस्तू स तथ्य पर बहुत जोर देता है। जिस समाज में अमीरी व गरीबी के बीच भारी खाई हो वहाँ क्रान्ति का होना स्वाभाविक है।
  6. विदेशियों का बाहुल्य यदि किसी राज्य में विदेशी बहुत बड़ी संख्या में आ जाएँ तो उससे यहाँ के नागरिकों को चुनौती मिलती है और इस प्रकार दो संस्कृतियों की टकराहट क्रान्ति को जन्म देती है।
  7. सम्मान की लालसा यह सबमें स्वाभाविक है, किन्तु जब शासक किसी को अनुचित रूप से बिना योग्यता या कारण के सम्मानित या अपमानित करते हैं तो जनता रुष्ट होकर विद्रोह कर देती है। 
  8. भय-भय दो प्रकार के व्यक्तियों को क्रान्ति के लिए बाधित करता है प्रथम, अपराध करने वाले व्यक्तियों को दण्ड का भय होता है, इससे बचने के लिए ये विद्रोह कर देते हैं।
  9. घृणा जब राज्य में एक वर्ग या दल बहुत समय तक सत्तारूढ़ रहता है तब उसका विरोधी वर्ग या दल उससे घृणा करने लगता है। इस घृणा का कुछ समय के बाद क्रान्ति के रूप में विस्फोट होता है। 
  10. पारिवारिक झगड़े- पारिवारिक झगड़े, ईर्ष्या, द्वेष, वैमनस्य के कारण भी राज्य में क्रान्ति हो जाती है। राजतन्त्र और कुलीनतन्त्र में तो प्रायः क्रान्तियाँ पारिवारिक घृणा या व्यक्तिगत ईर्ष्या के कारण होती है। 
  11. शासक वर्ग की असावधानी-क्रान्ति का एक कारण शासक वर्ग की असावधानी होता है। शासक वर्ग कभी-कभी अज्ञान तथा असावधानी के कारण राजद्रोहियों को महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त कर देता है। 
  12. भौगोलिक स्थिति अरस्तू ने क्रान्ति के विशिष्ट कारणों में राज्य की भौगोलिक स्थिति की भी चर्चा की है। उसने कहा है कि जो राज्य नदियों, घाटियों और पर्वतों से विभिन्न हिस्सों में बेटा है उसके लोग एक-दूसरे के निकट सम्पर्क में नहीं रहते और इसलिए राज्य का कोई हिस्सा किसी तथ्य को लेकर कभी भी क्रान्ति करने की सुविधा में रहता है।
  13. अन्य परिवर्तनों की उपेक्षा-अल्प परिवर्तनों की उपेक्षा भी कई बार क्रान्ति का कारण होता है। ये छोटे-छोटे परिवर्तन शनैः शनैः महान् परिवर्तन उत्पन्न कर देते हैं।
  14. प्रमाद-प्रमाद भी क्रान्ति का कारण होता है। जनता अपने आलस्य और उपेक्षा के कारण ऐसे व्यक्तियों को सत्तारूढ़ होने दे सकती है जो वर्तमान शासन के प्रति निष्ठावान नहीं होते और शासन को बदल देते हैं।
  15. निर्वाचन सम्बन्धी षड्यंत्र - निर्वाचन सम्बन्धी षड्यंत्र भी फ्रान्ति उत्पन्न करते हैं हेराइया में चुनावों में बड़े षड्यंत्र होते थे और इनके कारण परिणाम पहले से ही निश्चित हो जाता था। 
  16. परस्पर विरोधी वर्गों का शक्ति में सन्तुलन होना-कान्तियों का एक बड़ा कारण राज्य में परस्पर विरोधी वर्गों (निर्धन एवं घनी आदि) का शक्ति में सन्तुलित होना भी है। जहाँ एक पक्ष दूसरे पक्ष से अधिक प्रवल होता है तो निर्बल पक्ष प्रबल पक्ष के साथ लड़ाई मोल नहीं लेता है, किन्तु, जब दोनों पक्षों में शक्ति सन्तुलन हो तो दोनों को सफलता की सम्भावना होती है और विद्रोह करके सत्ता हस्तगत करने का प्रयत्न करते हैं।

विभिन्न शासन प्रणालियों में क्रान्ति के विशिष्ट कारण

 क्रान्ति के विशिष्ट कारणों की विवेचना करने के बाद अरस्तू ने विभिन्न शासन प्रणालियों में होने वाली क्रान्तियों का उल्लेख किया है
प्रजातन्त्र में क्रान्ति अरस्तू के अनुसार सम्पूर्ण अर्थ में समानता की भूख प्रजातन्त्र में क्रान्ति पैदा करने वाला एक प्रमुख कारण है। इसके अतिरिक्त प्रजातन्त्र में होने वाली क्रान्तियों के लिए बाग्वीरों के उच्छृंखल व्यवहार को अरस्तू ने प्रमुख रूप से जिम्मेदार माना है। प्रजातंत्र में ये वाग्वीर नेता कभी तो धनिक वर्ग पर प्रहार करते हैं और कभी जनसाधारण को धनिक वर्ग के विरुद्ध उत्तेजित करते हैं।
 धनिकतन्त्र  में क्रान्ति धनिकतन्त्र का आधार यह सिद्धान्त है कि जो लोग किसी एकबात में असमान हैं, वे सभी बातों में बिल्कुल भिन्न है। धनिक वर्ग का यह असमानता का सिद्धान्त अपने अन्तिम रूप में धनिकतन्त्र के जीवन के लिए समय-समय पर विभिन्न रूपों में संकट पैदा करता रहता है। इसी असमानता के आभास के कारण सरकार द्वारा जन साधारण की उपेक्षा की जाती है एवं अनुचित व्यवहार किया जाता है। जब जनसाधारण की दयनीय स्थिति पराकाष्ठा तक पहुँच जाती है तो शासक वर्ग के ही किसी महत्त्वाकांक्षी व्यक्ति को जनसाधारण का नेता बनने का अवसर बड़ी सुगमता से प्राप्त हो जाता है और क्रान्ति का सूत्रपात होता है।
    धनिकतन्त्र में क्रान्ति का सूत्रपात उस स्थिति में भी हो जाता है जबकि शासक वर्ग के कुछ लोग फिजूलखर्ची द्वारा अपनी समस्त सम्पत्ति को स्वाह कर देते हैं। ऐसे लोग क्रान्ति के माध्यम से शासन सत्ता हथिया कर निरंकुश बनने की मनोकामना रखते हैं ताकि अपनी दरिद्रता से छुटकारा पाने की आशा कर सकते हैं। सिराक्यूज, एम्फीपोलिस तथा एजिना आदि राज्यों में इसी प्रकार के लोगों ने उपद्रव पैदा किये।
कुलीनतन्त्र में क्रान्ति- अरस्तू के अनुसार कुलीनतन्त्र के जनसाधारण में जब यह धारणा पैदा हो जाती है कि वे श्रेष्ठता में शासक वर्ग के अनुरूप हैं तो कुलीनतन्त्र में विग्रह का शुभारम्भ हो सकता है। इसी कुलीनतन्त्र में विग्रह होने का एक अवसर उस स्थिति में भी उपस्थित होता है जब सर्वश्रेष्ठ प्रतिभासम्पन्न व्यक्तियों के साथ अपमानजनक व्यवहार किया जाता है अथवा जब तेजस्वी पुरुषों को शासन संचालन का गौरव प्राप्त नहीं होता। 
राजतन्त्र में क्रान्ति-राजतन्त्र को अरस्तू उन विधानों में मानता है जिनको बाह्य कारण सहसा नष्ट नहीं कर सकते एवं जिनकी आन्तरिक कमजोरियाँ ही उनके उन्मूलन का कारण बनती हैं। राजतंत्र में राज परिवार में आन्तरिक कलह होने पर अथवा राजा के निरंकुश बनने के प्रयास करने पर ही विद्रोह की उपस्थिति पैदा होती है।
निरंकुशतन्त्र में क्रान्ति-निरंकुशतन्त्र व्यक्तिगत स्वार्थों की असीमित रूप में पूर्ति के उद्देश्य को लेकर स्थापित होता है। इसमें विद्रोह का मुख्य कारण अन्यायपूर्ण उत्पीड़न, आतंक, अत्यधिक तिरस्कार आदि होते हैं। असहय अपमान, सम्पत्ति का अपहरण आदि कुछ प्रमुख प्रकार के अन्यायपूर्ण उत्पीड़न कहे जा सकते हैं।

क्रान्तियों को रोकने के उपाय

अरस्तू ने क्रान्तियों के कारणों का ही विश्लेषण नहीं किया है अपितु एक चिकित्सक की भांति उनके निदान के उपाय भी बताए है। अरस्तू द्वारा क्रान्तियों से बचने के उपाय निम्नलिखित हैं
  1. संविधान के प्रति आस्था-अरस्तु के अनुसार संविधान के प्रति आस्था रखना क्रान्ति से बचने का महत्त्वपूर्ण उपाय है। शासक वर्ग इस बात का हर सम्भव उपाय करे कि जनता द्वारा कानून की आज्ञाओं का पालन हो । कानून उल्लंघन करने की छोटी-छोटी घटनाएँ भी महत्त्वपूर्ण है, अतः उनकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए।
  2. शासक एवं शासितों में सम्बाद-अरस्तू यह आवश्यक मानता है कि शासक के शासितों के बीच निरन्तर सम्वाद बना रहे, शासक शासितों को शासन के समक्ष आने वाली समस्याओं से अवगत करवायें एवं शासित अपनी समस्याएँ शासकों के समक्ष रख सकें।
  3. विधि का शासन-अरस्तू जिस बात पर बल देता है, वह है विधि का शासन।
  4. समानता का व्यवहार-विषमता क्रान्ति की जननी है अतः शासन का लक्ष्य सदैव समानता का व्यवहार होना चाहिए। अरस्तू का यह मत है कि शासन के पदों की अवधि छः मास होनी चाहिए ताकि अधिक से अधिक व्यक्ति शासक बन सकें, थोड़े समय के लिए शासनारूढ़ व्यक्ति अन्याय नहीं कर सकते।
  5. मध्यम वर्ग की प्रधानता- अरस्तू की मान्यता है कि मध्यम वर्ग सदा मर्यादा तथा स्वामित्व का हामी रहा है, इसलिए इसकी प्रधानता का होना क्रान्ति को रोकने का सवल उपाय है। 
  6. आर्थिक समानता-समाज में अत्यधिक आर्थिक असमानता क्रान्ति का एक महत्त्वपूर्ण कारण है इस कारण के निवारण के लिए अरस्तू का मत है कि राज्य की ओर से यह प्रयत्न होना चाहिए कि समाज में आर्थिक असमानता कम से कम हो। धन का वितरण इस प्रकार होना चाहिए कि न तो कोई वर्ग अत्यन्त धनवान बन जाए और न दूसरा वर्ग अत्यन्त निर्धन
  7. समुचित शिक्षा पद्धति किसी शासन प्रणाली की स्थिरता के लिए यह आवश्यक है कि शिक्षा पद्धति उस शासन पद्धति के अनुरूप हो।
  8. विदेशी समस्याओं की तरफ जनता का ध्यान केन्द्रित करना शासकों को चाहिए कि वे राज्य की जनता का ध्यान देश की आन्तरिक समस्याओं की ओर से हटाकर विदेशी मामलों की ओर केन्द्रित करें। राज्य में विदेशी आक्रमण का भय आदि दिखाकर वह जनता में देश प्रेम की भावना को सदा जागृत रखें।