शांति पर्व
मानव के एक सामाजिक प्राणी होने के नाते उसमें अन्तः सम्बन्धों की प्रवृत्ति स्वतः ही विकसित होती जाती है प्राचीनकाल की शासन पद्धति की जानकारी हमें उस समय में लिखे गए ऐतिहासिक ग्रंथों के माध्यम से ही प्राप्त होती है अतः उ प्राचीन भारतीय शासन पद्धति के अध्ययन में महान ग्रन्य महाभारत के शान्ति पर्व का अध्ययन अति उल्लेखनीय है। इस काल की राजनीतिक व्यवस्था के अध्ययन में हम महाभारत के शांति पर्व में वर्णित उस समय की राजनीति व्यवस्था दण्डनीति राजधर्म, मन्त्रिपरिषद् और कर व्यवस्था के साथ परराष्ट्र सम्बन्धों को समझने में करेंगे। शान्ति पर्व में उल्लेखित प्रमुख राजनीतिक विचार निम्नलिखित है-शान्तिपर्य में संवाद के कर्तव्यों एवं शासन व्यवस्था के विभिन्न अंगों का विस्तृत वर्णन है। इसके साथ ही इसमें राजशास्त्र के महत्व का वर्णन भी किया गया है। महाभारत का शान्ति पर्व में प्रमुख राजनीतिक विचार निम्न है-
राज्य की उत्पत्ति का आधार क्या है?
महाभारत के शान्ति पर्व मानव में बहुत ही ज्यादा प्रेम, त्याग, भाईचारा, धर्म के अनुसार जीने की आदत आदि यी यहाँ किसी शक्ति या राजा की आवश्यकता नहीं महसूस की गई पर कालान्तर में मानव विकास के साथ स्वार्थ, ईर्ष्या एवं दैप की भावना ने जन्म ले लिया। वहीं दूसरी ओर अनेक व्यसनों ने भी धर्म के मार्ग में प्रवेश किया जिससे धर्म क्षेत्र में पराभव प्रारम्भ हो गया। इस स्थिति को देख देवता अपने उपाय के लिए जगत पिता ब्रह्मा के पास गए। उन्होंने जगत पिता ब्रह्मा से अपनी समस्या के हल का मार्ग प्रशस्त करने का अनुरोध किया। इस अनुरोध को ब्रह्मा जी ने स्वीकार करते हुए अपने मानस पुत्र विराजस को राजा के रूप में नियुक्त किया, पर विरजस और उसके पुत्र और पौत्र तपस्या में ही ध्यान केन्द्रित किए रहे कालान्तर में उसी पीढ़ी के पृयु को राज्य का कार्यभार सौंपा गया, वे वेदों के ज्ञाता युद्ध में महारत प्राप्त तथा नीतिशास्त्र में पाणित्व प्राप्त थे।
वहीं दूसरी तरफ शान्ति पर्व के 67वें अध्याय में जो उल्लेख प्राप्त होता है उससे यह स्पष्ट होता है कि राज्य की उत्पत्ति समझौते या अनुबन्ध द्वारा हुई है। इस समझौते का प्रभाव कुछ पीढ़ियों तक तो चला पर पुनः अव्यवस्था, हिंसा, अत्याचार जैसी स्थिति मानव समाज में परिलक्षित होने लगी। इस स्थिति से निपटने के लिए भी लोग जगत पिता ब्रह्मा जी के पास गए और अनुरोध किया कि हमें इस समस्या से बाहर निकलने के लिए मार्ग बतलाएँ। ब्रह्मा जी ने उन्हीं में से मनु को राजा नियुक्त किया किन्तु मनु ने राजा का पद स्वीकार नहीं किया, क्योंकि अराजकता के बीच राज्य करना उनके लिए बहुत कठिन था। तब प्रजा समूह ने उनसे आग्रह किया कि आप चिन्ता न करो हम आपकी आन्ना का पालन करेंगे।
राज्य के आवश्यक तत्त्व क्या हैं?
महाभारत के शान्ति पर्व के 69वें कथन में राज्य के सात तत्त्वों या अंगों का वर्णन किया गया गया है जिसे राज्य को सप्तांग कहा इस कथन में राजा को केन्द्र में रखकर उसके अंगों-अमात्य, सेवक, कोषदण्ड, मित्र, जनपद और पुर का प्रयोग प्रजा के हितों में करना चाहिए।
राजा की स्थिति क्या होनी चाहिए?
महाभारत के शान्ति पर्व अनुसार, राजा को धर्मपरायण होना चाहिए क्योंकि पहले राजा को देवीय उत्पत्ति माना गया था। प्रजा का राज्य में राजा की आवा का पालन नहीं करना चाहिए क्योंकि उसमें देवताओं का अंश विद्यमान होता है इसलिए दैवीय स्वरूप होने के कारण उसे कार्यों, उसके आदेश, उसके प्रशासन की गतिविधियों पर प्रजा को कभी सन्देह नहीं करना चाहिए और हृदय से उसके आदेशों का पालन करना चाहिए। महाभारत के शान्ति पर्व में राजा को सभी गुणों से मूर्त माना गया है। राजा को युद्ध विद्या में निपुण, दान देने वाला सुद्धावारी, जितेन्द्रिय तथा मनोहर आभूषणों को धारण करने वाला होना चाहिए। महाभारत में इस बात के साक्ष्य प्राप्त होते. है कि राजा का पद वंशानुगत या ज्येष्ठ पुत्र ही राजसिंहासन का उत्तराधिकारी माना गया था। पर अगर ज्येष्ठ पुत्र पद धारण करने की योगयता नहीं रखता है तो उसके दूसरे पुत्र को यह पद प्रदान कर दिया जाता था। इस प्रकार राजा अपनी प्रजा के हितों के लिए अपने सुख का त्याग कर देता था और प्रजा राजा के आदेशों की स्वीकारती थी और राज्य के संचालन के लिए कर देती थी। इस प्रकार प्रजा और राजा के मध्य सम्बन्ध पुत्र और पिता के समान था।
राज्य के साध्य क्या हैं?
महाभारत में उल्लेखित है कि राज्य या राजा का एक ही साध्य है वे अपनी प्रजा की सुरक्षा और सुख तथा सामाजिक व्यवस्था बनाए रखने के लिए सदैव प्रयत्नशील रहें।
राज्य के साधन क्या हैं?
राजा अपने साधन के रूप में प्रजा से कर, युद्ध के दौरान प्रजा को सैनिक रूप में प्रयोग करता था। यह सर्वविदित है कि उस समय स्थायी सेनाएँ नहीं रखी जाती थीं।
न्याय व्यवस्था
शान्ति पर्व में न्याय व्यवस्था पर भीष्म पितामह के अनुसार विधि के शासन में रहने से मनुष्य सुखी रहता है। उनकी आस्था विधि की प्रधानता में है उन्होंने विधि के चार प्रमुख स्रोत बताए हैं
1. देवसम्मत स्रोत ब्रह्मा द्वारा निर्मित विधि।
2. आप स्रोत-ऋषि मुनियों द्वारा देश-काल, परिस्थिति को ध्यान में रखकर निर्मित विधि।
3. लोक सम्मत स्रोत-ऐसी विधियों का निर्माण जनता द्वारा अपनी सुविधा को ध्यान में रखकर किया जाता है।
4. संस्था सम्मत स्रोत-चिरकाल की संस्थाओं द्वारा निर्मित विधि, जैसे-कुलकर्म, जाति धर्म, देश धर्म आदि।
दण्ड व्यवस्था
दण्ड व्यवस्था के तहत न्याय स्थापित करने के लिए चार प्रकार की विधियों का उल्लेख किया गया है। अगर विधि सम्मत व्यवहार किसी व्यक्ति द्वारा नहीं किया जाता है तो उसे दण्ड दिया जाएगा।
शासन
किसी भी राज्य में व्यवस्था और शान्ति की स्थापना शासन संचालन से होती है। शासन के तीन अंगों में कार्यपालिका सर्व प्रमुख है क्योंकि ये राजा और उसके मन्त्रियों से मिलकर बनी थी, अन्य दो संस्थाएं विधायिका और न्यायपालिका कार्यपालिका में ही समाहित थी, क्योंकि राजा ही सम्प्रभु होता है। शान्ति पर्व में एक जगह उल्लेख आया है कि जिस राज्य में राजा के अमात्य नहीं होते यह राज्य तीन दिन से ज्यादा नहीं चलाया जा सकता है।
नैतिकता
शान्ति पर्व में एक जगह आपदा काले धर्मे नाशे' नियम लागू किया गया है पर ये नियम तपस्वी और ब्राह्मण को छोड़कर राजा धन, बल और मित्रों की प्राप्ति के लिए कोई भी काल आपदा के समय करता है तो वह नैतिकता में ही जाएगा।
विदेश सम्बन्ध
विदेश (परराज्य) सम्बन्ध का उल्लेख महाभारत में स्पष्ट रूप में उल्लेख मिलता है राजा अपने साम्राज्य को बढ़ाने के लिए दूसरे देश पर आक्रमण करके उसके जन-धन पर अपना नियन्त्रण स्थापित कर लेता था और अपने हितों के अनुसार उनसे सन्धि करता था सन्तु जो राज्य जीतने लायक नहीं है या उससे ज्यादा शक्तिशाली है या उसके लिए भी मित्रों का उल्लेख महाभारत में मिलता है। ये चार प्रकार के होते थे
1. सहज
2. सहार्य
3. यजमान
4. कृत्रिमः।
शांति पर्व में राजा को सुझाव दिया गया है कि शत्रुओं को पराजित करके सदा सुख की नींद न सोए, बल्कि दुष्टात्मा शत्रु लोग सदा ही जागते रहते हैं। इसलिए सतर्कता राजा के लिए अनिवार्य है।
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