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प्राचीन भारतीय राजनीतिक विचार (Ancient Indian Political Thought )

          


 प्राचीन भारतीय राजनीतिक विचार

कौटिल्य और अर्थशास्त्र

    कौटिल्य के बचपन का नाम विष्णुगुप्त था तथा वे चणक नामक ब्राह्मण के पुत्र थे इसलिए उन्हें चाणक्य नाम से भी सम्बोधित किया जाता है। हमारे समक्ष कौटिल्य के संबंध में जो भी ऐतिहासिक तथ्य, सूचनाएं एवं जानकारियां उपलब्ध हैं, उनके द्वारा यह प्रमाणित होता कि कौटिल्य मौर्य सम्राट् के चन्द्रगुप्त प्रधानमंत्री तथा विशेष सलाहकार थे।
कौटिल्य के अर्थशास्त्र की जानकारी वर्ष 1905 में उस समय हुई। जब तंजौर के एक ब्राह्मण ने इसकी हस्तलिखित
एक पाण्डुलिपि मैसूर राज्य के प्राच्य पुस्तकालय को भेंट की। इन पाण्डुलिपियों को एक ग्रन्थ के रूप में 1909 में प्रकाशित किया गया । कौटिल्य के इस ग्रन्थ (अर्थशास्त्र) में पन्द्रह अधिकरण, एक सौ अस्सी प्रकरण, एक सौ पचास अध्याय और छह हजार श्लोक हैं।

राजनीतिक विचार

कौटिल्य का अर्थशास्त्र मूलतः राजनैतिक ग्रंथ है। इसमें समस्त राजनैतिक विचारों को समाहित किया गया है। अर्थशास्त्र में उल्लेखित राजनीतिक विचार निम्नलिखित हैं-

राज्य की उत्पत्ति और स्वरूप

कौटिल्य ने सामाजिक समझौते के सिद्धान्त को राज्य की उत्पत्ति के सम्बन्ध में स्वीकार किया है। उन्होंने स्पष्ट रूप में उद्धरित किया है कि उनके पूर्व राज्य व समाज में मत्स्य न्याय की स्थिति थी। इस व्यवस्था से तंग होकर लोगों ने मनु को अपने राजा के रूप में स्वीकार कर लिया। राजा जनता द्वारा उत्पादित अन्न या आय का कुछ भाग कर के रूप में लिया करता था। इस कर के बदले में राजा उन्हें सुरक्षा की समुचित व्यवस्था प्रदान करता था। इस प्रकार कौटिल्य के अनुसार राज्य की उत्पत्ति एक सामाजिक समझौते का सिद्धान्त थी।

राज्य का उद्देश्य 

कौटिल्य के अनुसार, राज्य का उद्देश्य व्यक्ति को उसके पूर्ण विकास में सहायता प्रदान करना था। अच्छा राज्य शान्ति व्यवस्था और सुरक्षा बनाए रखने के साथ ही स्वस्थ और सुदृढ़ अर्थव्यवस्था पर आधारित होता है। कौटिल्य के अनुसार राज्य की भूमि का क्षेत्र इतना हो कि वह निवासियों की आवश्यकताओं की पूर्ति कर सके और उनकी शत्रुओं से रक्षा कर सके।

कौटिल्य के अनुसार राज्यों के प्रकार-

1. द्वैराज्य
2. वैराज्य,
3. संघ राज्य।

सप्तांग सिद्धान्त

कौटिल्य से पूर्व के विद्वानु जिनमें मन, भीष्म और शुक्र ने राज्य की कल्पना एक जीवंत शरीर के रूप में की। शुक्र नीति में राज्य के इन अंगों को मानव शरीर से तुलना करते हुए कहा गया है-"इस शरीर रूपी राज्य में राजा सिर के समान है, अमात्य आँख है, सुहत कान है, कोष मुख है, बल मन है, दुर्ग हाथ है और राष्ट्र पैर है।"
यथा राज्य को आंगिक या सावयवी मानकर अपने विचारों को प्रतिपादित करते हैं ठीक उसी तरह कौटिल्य भी राज्य की उत्पत्ति के सम्बन्ध में संविदा सिद्धान्त को मानते हुए राज्य के सप्तांगों को स्वीकार करते हैं जिनकी वह प्रकृति की संज्ञा देते हैं। कौटिल्य ने अर्थशास्त्र के छठे अधिकरण के पहले अध्याय में राज्य के सात अंगों या प्रकृतियों का निम्नलिखित रूप
से उल्लेख किया है-

1. राजा

कौटिल्य राजतंत्र के समर्थक तो अवश्य थे परन्तु निरंकुश एवं स्वेच्छाचारी राजाओं के नहीं। उन्होंने महापद्मनन्द का समूल विनाश करने का संकल्प उसकी स्वेच्छाचारिता तथा अवपीड़न से प्रजा की मुक्ति के लिए ही लिया था। तथापि सैद्धान्तिक रूप में वे राजतंत्र के ही समर्थक रहे। इसीलिए उन्होंने नन्द बंश का विनाश करके उसके स्थान पर चन्द्रगुप्त मौर्य के नेतृत्व में मौर्य वंश की स्थापना करने मे सहायता की।
कौटिल्य की राजत्त्व की धारणा के संबंध में यह स्मरण रखा जाना चाहिए कि वे राजा के दैवी अधिकारों के समर्थक
नहीं थे। राजतंत्र के समर्थक होने के बावजूद, लोक कल्याण की भावना उनके अन्तर्मन में विद्यमान थी जिसके कारण उन्होंने राजा को सर्वशक्तिमान बताते हुए नैतिक मर्यादाओं से बांधे रखा है। उन्होंने राजत्त्व तथा राजा के पद के गरिमा तथा प्रजाहितों के बीच संतुलित समन्वय बनाने का प्रयास किया है। कौटिल्य के अनुसार राजा में इन्द्र तथा यम का सुन्दर सम्मिश्रण होना चाहिए जिससे कि वह योग्य व्यक्तियों को पुरस्कृत तथा अनाचारियों को दंड़ित कर सके राजा का राज्य में सर्वोच्च स्थिति तभी तक है जब तक वह राजधर्म का पालन करता है। दुराचारी, निरंकुश, दुर्व्यसनी, तथा कर्तव्यविमुख राजा को, कौटिल्य शासन करने का अधिकार नहीं देते। कौटिल्य के अनुसार, "ऐसे राजा को राज्य सत्ता से बंचित करके उसका स्थान प्रजा को ले लेना चाहिए।"

कौटिल्य के अनुसार राजा के गुण (Essential qualities of a king according to Kautilya) - 

कौटिल्य ने राजा के चारित्रिक गुण को उसकी पूंजी बताया है जिससे वह प्रजा में आदर एवं सत्कार का पात्र होता है। ये चारित्रिक गुण निम्न प्रकार हैं-
  •  राजा को उच्च कुल में उत्पन्न तथा राज्य के भू-क्षेत्र का ही निवासी होना चाहिए।
  •  राजा को सत्यवादी, आचरण से पवित्र तथा इन्द्रियजयी होना चाहिए। 'शास्त्रविहित करतव्यों के विंपरीत आचरण करने वाला इन्द्रिय-लोलुप राजा सारी पृथ्वी का अधिपति होते हुए भी शीघ्र नष्ट हो जाता है।
  •  राजा को विनयशली, विद्या-व्यसनी, बुद्धिमान, दानी, अहंकार रहित, कृतज्ञ होना चाहिए।
  • कौटिल्य के अनुसार, राजा को विद्वान् पुरुषों की संगति में रहकर अपनी बुद्धि का विकास करना चाहिए इन्द्रियों पर नियंत्रण रखते हुए उसे परायी स्त्री, पराया धन तथा हिंसा प्रवृत्ति का सर्वया त्याग कर देना चाहिए।
  • कौटिल्य ने राजा के लिए धर्म, अर्थ तथा काम के संतुलित उपभोग का सुझाव दिया है। इन तीनों का संतुलित उपभोग करने वाला राजा दीर्घकाल तक निष्कंटक राज्य का उपभोग करता है।
  •  राजा को प्रजा वात्सल अर्थात् प्रजा की भलाई के लिए हर समय तत्पर रहना चाहिए। उसे प्रजा के साथ पुत्रवत्व्य वहार करना चाहिए।
  •  कौटिल्य के अनुसार राजा में शीर्य, उत्साह, शीघ्र निर्णय की क्षमता तथा विवेक का होना अति आवश्यक है
  • राजा को स्मरणशक्ति से सम्पन्न, दूरदर्शी, संकट के समय धैर्य को न खोने वाला, त्यागी, रहस्यों एवं मंत्रणाओं की गोपनीयता को बनाए रखने वाला होना चाहिए।

कौटिल्य के अनुसार राजा के कर्त्तव्य

कौटिल्य ने राजा के गुणों के साथ ही साथ उसके दायित्त्वों का भी वर्णन अपनी प्रसिद्ध अर्थशास्त्र के अन्तर्गत किया है। उन्होंने राजा को प्रजा का रक्षक तथा प्रजा एवं राजा के हितों का सम्वर्द्धनकर्त्ता बताया है। इस दृष्टिकोण से उन्होंने राजा के कर्तव्यों को दो उपखण्डों में रखा है-

a) सरंक्षण के रूप में राजा के प्रमुख कर्त्तव्य (Important Duties of King as a Guardian) 

कौटिल्य ने राजा को स्वाभाविक संरक्षक माना है। इस दृष्टि से उसे निम्नलिखित कार्य सम्पादित करने चाहिए-
  • कौटिल्य के अनुसार, प्रजा की रक्षा करना राजा का प्रमुख धर्म है। राज्य का लक्ष्य 'योगक्षेम' (Protection as well as well-being) है। अतः राजा को प्रजा की हिंसा से रक्षा करना तथा कानून-व्यवस्था को बनाए रखने की प्रमुख जिम्मेदारी है।
  • प्रजा का रक्षक होने के नाते राजा का यह परम कर्त्तव्य है कि वह बाह्य शत्रुओं तथा प्राकृतिक आपदाओं (बाढ़, अकाल, आग, महामारियों तथा हिंसक पशुओं) से प्रजा की रक्षा करे।
  • प्रजा के रक्षक के रूप में राजा को अनाथों, विधवाओं, अपंगों, गर्भवती स्त्रियों, तथा बच्चों को आर्थिक सहायता की व्यवस्था करे।
  • प्रजा की सम्पत्ति की रक्षा तथा शान्ति एवं व्यवस्था में बाधा उत्पन्न करने वाले तत्त्वों को दण्डित करना भी राजा का प्रमुख दायित्त्व है।
  •  प्रजा की सुरक्षा के लिए अपराधियों के लिए दण्ड की व्यवस्था करना भी राजा के लिए अत्यंत आवश्यक है। राजा को यह देखना चाहिए कि अपराध की गम्भीरता के अनुपात में ही दण्ड निर्धारित किया जाए।
  • राज्य की सेनाओं का सर्वोच्च सेनानायक होने के नाते यह निर्णय करना कि कब किस देश पर आक्रमण किया जाए अथवा कब शान्ति स्थापित की जाए, राजा का ही दायित्त्व है।

b)  संवर्द्धनक दायित्त्व  Duties as a promoter of well being of the people and that of the state-

प्रजा तथा राज्य के हितों के संवर्द्धनकर्त्ता के रूप में राजा के प्रमुख दायित्त्व निम्न प्रकार हैं-
  •  प्रजा के अन्दर नैतिकता का संचार तथा उसके भीतिक कल्याण के लिए प्रयत्नशील रहना।
  •  प्रजा को सुरक्षित तथा स्वतंत्रतापूर्वक जीवन-यापन के लिए आवश्यक परिस्थितियों का निर्माण।
  •  राज्य की एकता तथा अक्षुण्णता को बनाए रखना।
  •  राज्य में कृषि, व्यापार तथा कला का विकास करना।
  •  शिल्पियों तथा श्रमिकों के जीवन स्तर में सुधार लाना।
  • राज्य में व्यापार मार्गों को सुरक्षित बनाना जिससे कि व्यापारी निर्भय होकर व्यापार कर सकें।
  •  नदियों पर बांधों तथा कटबन्धों का निर्माण तथा वनों की सुरक्षा ताकि राज्य की आय में वृद्धि हो।
  •  राज्य में शिक्षा का विकास तथा गरीब विद्यार्थियों के लिए राज्य द्वारा आर्थिक सहायता की व्यवस्था।
  •  कौटिल्य के अनसार राज्य में चिकित्सा सुविधाओं की व्यवस्था करना भी राजा का दायित्त्व है। विद्वानों, कलाकारों तथा योग्य व्यक्तियों को प्रोत्साहन, पुरस्कार तथा संरक्षण प्रदान करना राजा का प्रमुख कर्त्तव्य है।

    कौटिल्य द्वारा वर्णित राजा के कर्त्व्यों तथा दायित्त्वों के विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि राजा सर्व-शक्तिमान
होते भी लोक-कल्याण के प्रति उसका समर्पण आवश्यक है। कौटिल्य ने न केवल राजा के कर्तव्यों का वर्णन किया है, वरन् उसके लिए दिनचर्या भी निर्धारित की है।

    कौटिल्य का यह मानना है कि कोई भी शासक जन्म से सर्वगुण सम्पन्न नहीं हो सकता, अतः उसे राजा का पद धारण करने से पूर्व आन्बीक्षिकी (दर्शनशास्त्र) त्रयी (Trayi), वात्ता (Vertta) एवं दण्डनीति (Dandniti) इन चारों विद्याओं का ज्ञान होना आवश्यक है। आन्वीक्षिकी के अन्तर्गत सांख्य, योग तथा लोकायत (नास्तिक दर्शन) आते हैं।  त्रयी के अन्तर्गत धर्म-अधर्म की वात्ता के अन्तर्गत अर्थ-अनार्थ का तथा दण्डनीति में सुशासन तथा दुःशासन का ज्ञान प्रतिपादन है। वात्ता अर्थ विज्ञान है जिसके द्वारा राजा राज्य के आर्थिक आधार को मजबूत करता है तथा प्रजा की खुशहाली के लिए प्रयासरत रहता है।

2. अमात्य

काटिल्य के अनुसार, अमात्य शब्द में मन्त्री और प्रशासनिक अधिकारी दोनों समाहित हैं। अमात्य राज्य का राजा के बाद दूसरा महत्त्वपूर्ण अंग है। जिसकी नियुक्ति करते समय राजा को उसी व्यक्ति का चयन करना चाहिए जो धर्म, अर्थ, काम और भय द्वारा परीक्षित हो और उसकी कार्यक्षमता के अनुसार, कार्यभार सौंपा जाना चाहिए।

3. जनपद

कौटिल्य ने राज्य के तीसरे अंग के रूप में जनपद को स्वीकार किया था। जनपद का अर्थ है 'जनयुक्त भूमि' आधुनिक राज्य की जनपद की परिभाषा में जनसंख्या और भू-भाग को अनिवार्य रूप से शामिल किया जाता है पर कौटिल्य ने इन दोनों के मिश्रण को ही जनपद की संज्ञा देते हैं।
    कौटिल्य का मत है मनुष्यों के बिना प्रदेश जनपद नहीं कहला सकता और भूमि रहित जन समूह जनपद नहीं कहला सकता। अर्थात् यदि जनपद न होगा तो राज्य द्वारा शासन किस पर किया जाएगा। जनपद के संघटन के सम्बन्ध में कौटिल्य का विचार, "आठ सो गाँवों के बीच में एक स्थानीय, चार सौ गाँवों के समूह में एक द्रोणमुख, दो सी गाँवों के बीच में एक स्थानीय, चार सौ गाँवों के समूह में एक द्रोणमुख, दो सी गाँवों के बीच में एक सार्वत्रिक और दस गाँवों के समूह में संग्रहण नामक स्थानों की विशेष रूप से स्थापना होनी चाहिए।"
    कौटिल्य ने जनपद एक जनपद के रूप में निम्न गुणों का उल्लेख किया, "जनपद की स्थापना ऐसी होनी चाहिए कि जिसके बीच में तथा सीमान्तों में किले बने हों, जिसमें यथेष्ट अन्न पैदा होता हो, जिसमें विपत्ति के समय बन-पर्वतों के द्वारा आत्मत्षा की जा सके, जिसमें थोड़े श्रम से ही अधिक धान पैदा हो सके, जो नदी, तालाब, वन, खानों से युक्त हो, जहाँ के किसान बड़े मेहनती हों और जहाँ प्रेमी एवं शुद्ध स्वभावों वाले लोग बसते हों, इन गुणों से युक्त देश जनपद सम्पन्न कहा जाता है।"

4. दुर्ग

कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अनुसार दुर्ग राज्य के प्रति रक्षात्मक शक्ति तथा आक्रमण शक्ति दोनों का प्रतीक माना जाता है। दुर्गों के प्रकार निम्नलिखित हैं-
  •  औदिक दुर्ग-इस दुर्ग के चारों ओर पानी भरा होता है।
  •  पार्वत दुर्ग-इसके चारों ओर पर्वत या चट्टानें होती हैं।
  •  धान्चन दुर्ग-इसके चारों ओर ऊसर भूमि होती है जहाँ न तो जल और न ही घास होती है।
  •  वन दुर्ग-इसके चारों ओर वन, दलदल आदि पाए जाते हैं।

5. कोप

कौटिल्य के अनुसार, राज्य के संचालन में कोष का बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान है। जिसका प्रयोग दूसरे देश से युद्ध करने और प्राकृतिक या मानवीय आपदा से बाहर निकलने के लिए किया जाता है। कौटिल्य ने भी इस महत्ता को स्वीकार किया और कहा है कि धर्म, अर्थ और काम इन तीनों से ये अर्थ सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण है या इन दोनों का आधार स्तम्भ है।
कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में इसका भी वर्णन किया है कि राज्य द्वारा प्रजा से कर किस प्रतिशत में लिया जाए अर्थात्प्र जा से अनाज का छठा, व्यापार से दसवाँ और पशुओं के व्यापार के लाभ का पचासवाँ भाग लिया जाना चाहिए राजकोष के गुणों पर कौटिल्य के विचार हैं, "राजकोष ऐसा होना चाहिए जिसमें पूर्वजों की तथा अपने धर्म की कमाई संचित हो, इस प्रकार कोष धान्य, सुवर्ण, चाँदी, नाना प्रकार के बहुमूल्य र्न तथा हिरण्य से भरा-पूरा हो, जो दुर्भिक्ष एवं आपत्ति के समय सारी प्रजा की रक्षा कर सके। इन गुणों से युक्त खजाना कोष सम्पन्न कहलाता है।

6. सेना या दण्ड

अर्थशास्त्र के अनुसार, दण्ड से तात्पर्य सेना से है। सेना रांज्य की सुरक्षा का प्रतीक मानी जाती है। सेना को कौटिल्य ने चार श्रेणियों में वर्गीकृत किया है-1. हस्ति-सेना, 2. अश्व-सेना, 3. रथ-सेना, 4. पैदल सेना।
उक्त सेनाओं में हस्ति सेना को कौटिल्य सर्वश्रेष्ठ मानते हैं और सेना पर अपने विचार रखते हुए कहते हैं कि "सेना ऐसी होनी चाहिए जिसमें वंशानुगत स्थायी एवं वंश में रहने वाले सैनिक भर्ती हों, जिनके स्त्री-पुत्र राजवृति को पाकर पूरी तरह सन्तुष्ट हों। युद्ध के समय जिसको सभी आवश्यक सामग्री प्राप्त हो सके, जो कभी भी हार न खाता हो, दुःख को सहने वाला हो, युद्ध कौशल से परिचित है, हर तरह के युद्ध में निपुण हो, राजा के लाभ तथा हानि में हिस्सेदार हो और जिसमें क्षत्रियों की अधिकता हो। इन गुणों से युक्त सेना ही दण्ड सम्पन्न कही जाती है।"

7. मित्र

कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में मित्र को इस रूप में वर्णित किया है। "राज्य की प्रगति के लिए और आपत्ति के समय राज्य की सहायता के लिए मित्रों की आवश्यकता होती है इस पर कौटिल्य कहते हैं मित्र ऐसा होना चाहिए, जो वंश परंपरागत हो, स्थायी हो, अपने वंश में रह सके, जिनसे विरोध की संभावना न हो, प्रभुमंत्र, उत्साह आदि शक्तियों से युक्त तथा जो समय आने पर सहायता कर सके। मित्रों में इन गुणों का होना मित्र सम्पन्न कहा जाता है।"


विजिगीषु नीति (वैदेशिक सम्बन्ध)

एक राजनीतिक विचारक के रूप में कौटिल्य ने न सिर्फ राज्य के आन्तरिक प्रशासन के सिद्धान्तों का वर्णन किया है अपितु उसके अनुसार एक राज्य द्वारा दूसरे राज्यों के साथ अपने सम्बन्ध नि्धारित किया जाना चाहिए इसका भी विस्तृत वर्णन किया। उसने विदेशों में राजदूत और गुप्तचर रखने की बात भी कही। कौटिल्य ने दूसरे राज्यों के साथ व्यवहार सम्बन्ध में दो सिद्धान्तों का विवेचन किया पड़ोसी राज्यों के साथ सम्बंन्ध स्थापित करने के लिए मण्डल सिद्धान्त और अन्य राज्यों के साथ व्यवहार निश्चित करने के लिए 6 लक्षणों वाली वाइ्गुण्य  नीति। कौटिल्य के शब्दों में, "विजिगीषु राजा की विजय यात्रा में क्रमशः शत्रु (अरि), मित्र, अरिमित्र, मित्र-मित्र और अरिमित्र-मित्र ये पाँच प्रकार के राजा आते हैं। इसी प्रकार उसके पीछे क्रमशः पाण्णिग्राह, आक्रेन्द, पाण्णिग्रिहासार और आक्रन्दासार-ये चार राजा होते हैं। विजिगीषु राजा सहित आगे-पीछे के राजाओं को मिलाकर एक राजमण्डल कहलाता है "

मण्डल सिद्धान्त

कौटिल्य पड़ोसी राज्यों के लिए मण्डल सिद्धान्त का प्रतिपादन और वाइ्गुण्य नीति अर्थात् छह लक्षणों वाली नीति का प्रतिपादन कौटिल्य ने विदेशी राज्यों के संदर्भ में किया जो उसकी अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध में सबसे बड़ी देन है ।

    मण्डल का अर्थ राज्यों का वृत्त है। इस वृत्त में कौटिल्य ने 12 राज्यों को सम्मिलित किया है। इस बृत्त के केन्द्र में
राजा है जो मानवीय स्वभाव के अनुसार प्रत्येक राजा राज्य विस्तार की नीति अपनाता है। अपने पड़ोसी राज्यों को जीतकर अपने राज्य में मिलाने का प्रयास करता है।
मण्डल में बारह राज्यों का उल्लेख किया जा सकता है-
  1.  विजिगीषु-इसका स्थान मण्डल के बीच में होता है और यह अपने राज्य के विस्तार की आकांक्षा रखता है।
  2. अरि-विजिगीषु के सामने वाला राज्य उसका शत्रु होता है।
  3.  मित्र-अरि के सामने वाला राज्य मित्र अरि का शत्रु और विजिगीषु का मित्र होता है।
  4. अरिमित्र-मित्र के सामने वाला राज्य अरिमित्र होगा, ये अरि का मित्र और विजिगीषु का शत्रु होगा।
  5.  मित्र-मित्र-अरिमित्र के सामने होने के कारण ये उसका शत्रु होगा पर मित्र राज्य का मित्र होने के कारण ये राज्य विजिगीषु का मित्र होगा।
  6. अरिमित्र-मित्र-मित्र-मित्र के सामने वाला राज्य अरिमित्र-मित्र कहलाता है क्योंकि अरिमित्र राज्य का मित्र हाता है और इसलिए अरि राज्य के साथ भी उसका सम्बन्ध मैत्रीपूर्ण होता है।
  7.  पाण्र्िग्राह-ये विजिगीषु के पीछे का राज्य होगा। अरि की तरह वह विजिगीषु का शत्रु ही होता है।
  8.  आक्रन्द-ये पार्णिग्राह के पीछे का राज्य होगा जो विजिगीपु का मित्र होगा।
  9. पाण्णिग्राहासार-ये राज्य आक्रन्द के पीछे होगा ये राज्य पाण्णिग्राह का मित्र होता है।
  10. आकन्दासार-ये पाण्ण्िग्राहासार के पीछे होगा और आक्रन्द का मित्र होता है।
  11. मध्यम-ये प्रदेश विजिगीषु और अरि राज्य की सीमा से लगा होगा ये दोनों से अधिक शक्तिशाली होगा, जिससे ये दोनों से अलग-अलग मुकाबला करने के साथ-साथ दोनों की सहायता भी करता है।
  12. उदासीन-इसका प्रदेश विजिगीषु, अरि और मध्यम इन तीनों राज्यों की सीमाओं से अलग होता है। ये राज्य बहुत शक्तिशाली होता है जो सहायता या मुकाबला दोनों स्थिति में होता है।

षाइूगुण्य

छह लक्षणों वाली षाइूगुण्य नीति के द्वारा कौटिल्य ने अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में, जिसमें परराष्ट्र नीति या विदेश नीति को, जिसे अपने राष्ट्र के हित के अनुकूल परिवर्तित किया जा सके। इस नीति का समर्थन मनु ने भी किया है और इसका वर्णन महाभारत में भी प्राप्त होता है। कौटिल्य ने इन छः गुणों को विदेश नीति के आधार के रूप में वर्णन किया है। षाइगुण्य नीति के प्रयोग पर कौटिल्य ने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा है कि "शत्रु की तुलना में अपने को निर्बल समझने पर सन्धि कर लेनी चाहिए यदि शत्रु की तुलना में स्वयं को बलवान समझा जाए तो विग्रह कर देना चाहिए।" यदि शत्रु बल और आत्मबल में कोई अन्तर न दिखलाई दे या समझ में जाए तो आसन को अपना लेना चाहिए। यदि स्वयं को सर्व सम्पन्न और शक्ति सम्पन्न समझे तो शत्रु पर आक्रमण कर देना चाहिए। यदि स्वयं को निरा अशक्त समझने पर संश्रय से काम लेना चाहिए। यदि सहायता की अपेक्षा समझे तो ह्वैधीभाव को अपना लेना चाहिए।

सन्धि

सन्धि से तात्पर्य दो राजाओं के बीच हुआ समझौता, ये समझौता एक राजा को लाभ करा सकता है। हानि करा सकता है या बराबर का लाभ या हानि करा सकता है। इसी प्रकार कौटिल्य अपने राजा को सन्धि के लिए तब कहता है जब दूसरे राजा के कार्य को रोक सके या उसके कार्यों से अपना लाभ प्राप्त कर सके या उसे विश्वास में लेकर उसे समाप्त कर सके। 
कौटिल्य के अनुसार, सन्धि के निम्नलिखित प्रकार हैं 
  • हीन सन्धि
  • दण्डोपनत सन्धि
  • भूमि सन्धि,
  • कर्म सन्धि, 
  • नवसित सन्धि, 
  • अति सन्धि,
  • सम-विषम सन्धि आदि।

विद्रह या युद्ध

विग्रह का अभिप्राय युद्ध से लगाया जाता है। कौटिल्य ने अपने राजा को युद्ध करने का सुझाव उसी स्थिति में दिया है। जब शत्रु उससे सबल हो। कौटिल्य ने तो यह भी सुझाव दिया है कि अगर युद्ध से जो लाभ प्राप्त होना है, अगर सन्धि से लाभ की प्राप्ति हो सकती है तो विग्रह को टालने का प्रयास किया जाना चाहिए ताकि घन और जन दोनों को हानि से बचाया जा सके।
कौटिल्य ने अपने दर्शन में स्पष्ट किया है कि युद्ध के लिए सेना, युद्ध के लिए शक्तियाँ और युद्ध के प्रकार को जानकर ही विग्रह किया जाना चाहिए। कौटिल्य ने सेना के चार अंग बताए हैं-I) पैदल, II) हाथी,III) घोड़े, IV) रथ।
कौटिल्य के इन अंगों में सर्वाधिक महत्त्व हाथी या हस्ति का है। कौटिल्य ने युद्ध की तीन शक्तियों का भी उल्लेख किया है, जिनसे उत्साह शक्ति (अर्थात् सफल युद्ध के लिए आवश्यक नैतिल बल), प्रभाव शक्ति (अर्थात् शस्त्र सामग्री) ,मन्त्र शक्ति (अर्थात् मन्त्रणा और कूट नीति शक्ति) से है।

युद्धों के प्रकार

कौटिल्य के अनुसार, युद्ध के तीन प्रकार निम्न हैं-
  1. प्रकाश युद्ध-देश या काल के निश्चित होने पर की गई घोषणा ।
  2. कूट युद्ध-योजना में तत्काल परिवर्तन करके, धोखा देकर, भय दिखाकर आदि तरीकों से किया गया युद्ध।
  3. तुष्णी युद्ध-इस प्रकार का युद्ध शत्रु को विश्वास में लेकर उसे जहर पिलाकर वेश्याओं के साथ लिप्त कराकर आदि तरीकों से किया गया युद्ध।

कौटिल्य ने राजाओं को तीन भागों में उनकी प्रवृत्ति के अनुसार बाँटा है, जैसे-
  1. धर्म विजयी-ऐसा राजा गौरव और प्रतिज्ञा पाकर ही सन्तुष्ट हो जाता है।
  2. लोभ विजयी-ऐसा राजा लोभ की प्राप्ति, धन या भूमि की प्राप्ति के उपरान्त सन्तुप्ट हो जाता है।
  3. असुर विजयी-ऐसा राजा धन, भूमि के साथ स्त्री, पुत्र की प्राप्ति करने के उपरान्त ही सन्तुष्ट होता है।
नोट : कौटिल्य ने राजाओं की उक्त श्रेणी में धर्म विजयी राजा को श्रेष्ठ माना है।

यान

कौटिल्य ने विग्रह के तहत स्पष्ट किया है कि अगर बिना युद्ध के काम चल जाए तो विग्रह से बचना चाहिए, पर यान
में ऐसा नहीं है इसका अर्थ ही है वास्तविक युद्ध।
कौटिल्य के अनुसार, "यदि समझें कि शत्रु के कर्मों का नाश यान से हो सकेगा और अपने कमं की रक्षा का पूरा
प्रबन्ध कर दिया है। तो यान का आश्रय लेकर अपनी उन्नति करो।"
कौटिल्य के अनुसार, यान को इस परिस्थितियों में किया जाना चाहिए-"जब देखें कि शत्रु व्यसनों में फँसा है, उसका प्रकृति प्रमुख मण्डल भी व्यसनों में उलझा है। अपनी सेनाओं से पीड़ित उसकी प्रजा उससे विरक्त हो गई, राजा स्वयं उत्साहहीन है, प्रकृतिमण्डल में परस्पर कलह है, उसको लोभ देकर फोड़ा जा सकता है, शत्रु, अग्नि, जल, व्याधि, संक्रामक रोग के कारण वह अपने वाहन, कर्मचारी और कोप की रक्षा न कर सकने के कारण क्षीण हो चुका है तो ऐसी दशाओं में विरह करके चढ़ाई कर दें।"
I) आसन-आसन से तात्पर्य तटस्थता से हे। इसके अर्थ से तात्पर्य यह है कि राजा अपनी स्थिति को मजबूत करने
के लिए कुछ समय के लिए इन्तजार स्वरूप बैठा रहे। कौटिल्य ने आसन के दो प्रकार बताए हैं-
  • विग्रहा आसन-विजिगीषु और शत्रु समान शक्ति रखते हो, सन्धि की इच्छा रखते हों, कुछ समय के लिए चुपचाप बैठ जाते हैं।
  • सन्धाय आसन-जब सन्धि करके चुप बैठते हैं।
II) संश्रय से तात्पर्य है बलवान राजा की शरण लेना। शरण में उस राजा के पास जाना चाहिए जो शत्रु से बलवान हो।
III) द्वैघीभाव-द्वैधीभाव से तात्पर्य है दोहरे भाव के साथ व्यवहार का किया जाना, जिसमें एक राजा के साथ सन्धि और दूसरे से विग्रह, अतः कौटिल्य बताते हैं कि सन्धि बलवान से और विग्रह निर्बल से करनी चाहिए। कौटिल्य ने
विदेश नीति के निर्धारण में छ: तत्त्वों के अलावा चार उपायों की चर्चा की है ।

निर्बल राजा के साथ उपाय
  • साम-दुर्बल राजा को शान्तिपूर्वक समझा-बुझा दिया जाना चाहिए।
  • दाम या कुछ धन देकर अपने पक्ष किया जाना चाहिए।

बलवान राजा के साथ उपाय
  • दण्ड-जब तीनों उपाय सार्थक न हों तब दण्ड का सहारा लेना चाहिए।
  • भेद-शक्तिशाली शत्रु से विजय न पाने की स्थिति में फूट डालनी चाहिए ताकि उसकी शक्ति क्षीण हो सके।

गुप्तचर व्यवस्था

राजदर्शन में कौटिल्य को प्रथम दार्शनिक माना जाता है जिसने गुप्तचरों का प्रयोग सरकार के लिए आवश्यक अंग के रूप में किया है। कीटिल्य ने गुप्तचर के लिए मूल रूप में बरीद शब्द का प्रयोग किया है। देखा जाए तो प्राचीनकाल ही हमें गुप्तचरों का उल्लेख प्राप्त होता है जो राज्य की आन्तरिक क्रियाओं और वाह्य रूप से होने वाली अप्रत्याशित घटना के घटित होने के पूर्व ही सूचित करके जन और धन की होने वाली क्षति से बचाने में अपनी भूमिका का निर्वाह करती हैं। राज्य नीति में गुप्तचरों और दूतों की बहुत बड़ी भूमिका होती है। इस पर कौटिल्य ने अपने विचार प्रकट किए हैं।
कौटिल्य ने गुप्तचरों का वर्गीकरण निम्न प्रकार से किया है-

1. स्थायी गुप्तचर

कौटिल्य ने ऐसे गुप्तचरों को पाँच श्रेणियों में विभक्त किया-
  1. कापटिक गुप्तचर-विद्यार्थी की वेशभूषा में रहने वाला और दूसरों के रहस्यों को जानने वाला गुप्तचर कापटिक कहलाता है। यह गुप्तचर राज्य से धन, यान और सत्कार प्राप्त करके राज्य की सेवा करता है।
  2. उदास्थित गुप्तचर-ऐसे गुप्तचर संन्यासी के वेश में रहते हैं और उसी स्थान में रहकर राज्य का काम करते हैं जहाँ उन्हें कृषि, पशुपालन एवं व्यापार के लिए भूमि नियुक्त की जाती है।
  3. गृहपति गुप्तचर- ऐसे गुप्तचर का भेष एक गरीब किसान का होता है ये भी उदास्थित गुप्तचर की भाँति कार्य करता है जहाँ इसे कृषि, पशुपालन एवं व्यापार के लिए भूमि का आबंटन किया जाता है। 
  4. बैदेहक गुप्तचर-ऐसा भेष एक गरीब व्यापारी का होता है। ये उदास्थित गुप्तचर की भाँति काम करते हैं।
  5. तापस गुप्तचर-ऐसा गुप्तचर का भेष साधु भविष्यवक्ता और लौकिक शक्तियों से सम्पन्नता का होता है ये गुप्तचर अपनी मण्डली के साथ स्थानीय लोगों के भेदों को जानने का प्रयास करते हैं।

2. भ्रमणशील गुप्तचर

कौटिल्य ने भ्रमणशील गुप्तचर को चार श्रेणियों में बाटा है। ऐसे गुप्तचर का उपनाम संचार गुप्तचर भी है-
  1. स्त्री गुप्तचर-ऐसे गुप्तचर जो विभिन्न कलाओं से युक्त हों, जैसे-नाचने-गाने, ज्योतिष, सामुद्रिक विधा, वशीकरण, इन्द्रजाल आदि।
  2. तीक्ष्ण गुप्तचर-ऐसे गुप्तचर जो धन की लालसा में कठिन-से-कठिन काम करने के लिए प्रसिद्ध होते हैं।
  3. रसद गुप्तचर-कठोर हदय वाले, आलसी स्वभाव वाले ऐसे व्यक्ति जो राजा के कहने पर शत्रु को जहर देने में भी निर्दयी भाव रखते हैं।
  4. परिव्राजिका गुप्तचर-साधु के वेश में गुप्तचरी का काम करने वाली गुप्तचरी जो दरिद्र, व्राह्मणी, रनिवास में सम्मानित गुप्तचरी परिब्राजिका कहलाती है।

3. उभय बेतन भोगी

कौटिल्य ने इनके अलावा भी राज्य में उभय वेतनभोगी और विषकन्या गुप्तचर का उल्लेख किया है। उभय वेतनभोगी गुप्तचर राजा का सेवक होते हुए विदेशी राज्य से जाकर दूसरे राजा के यहाँ नौकरी करता है और उसी से वेतन भी लेता है पर वफादारी अपने राज्य के राजा के प्रति निभाता है।

4. विषकन्या

इस कन्या को पहले राज्य में विष का पान करा-कराकर तैयार किया जाता है, फिर शत्रु राजा के साथ इसको यौन सम्बन्ध के लिए भेजा जाता है। ऐसी स्थिति में शत्रु स्वतः ही तड़प-तड़प कर मर जाता है।


कौटिल्य के धार्मिक विचार

कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में कहीं भी अधिकरण या अध्याय में धर्म सम्बन्धी विचारों का उल्लेख नहीं किया है उसके ग्रन्थ अर्थशास्त्र में धर्म को कुछ-कुछ अंश के रूप में यत्र-तत्र विखेर रूप में दिखलाई देता है। कौटिल्य ने धर्म का प्रयोग तीन अर्थों में किया है।
कौटिल्य सामाजिक कर्तव्य के रूप में कहते हैं कि एक राजा को धर्मनिष्ठ होना चाहिए क्योंकि राजा से ही प्रजा की अनुकरण की प्रवृत्ति आती है अगर कोई भी व्यक्ति भले किसी भी प्रकार का अस्तित्व रखता है तो उसे अपने धर्म का पालन नहीं करता है तो उसे धर्म के मार्ग में लाने के लिए दण्ड का प्रयोग किया जाना चाहिए।
कौटिल्य ने नैतिक कानून के रूप में धर्म का प्रयोग किया है और कहा है कि धर्मपूर्वक प्रजा पर शासन करना ही राजा का निज धर्म है। जो राजा को स्वर्ग ले जाता है।

कौटिल्य कानून के रूप में धर्म का प्रयोग करते हैं इन कानूनों की व्याख्या करने वाले न्यायाधीशों को धर्मसक
संज्ञा दी गई है।

प्लेटो के दार्शनिक-राजा तथा कौटिल्य के इन्दरियजयी राजा के बीच समानवाय

प्राचीन यूनानी दार्शनिक प्लेटो ने अपनी पुस्तक 'दी रिपव्लिक' में जिस दार्शनिक-राजा का चित्रण किया है, वास्तव मे  कौटिल्य के आदर्श राजा का लगभग प्रतिरूप ही है दोनों के बीच निम्नलिखित समानताएं पायी जाती हैं-
  1. दोनों के लिए प्रशिक्षण प्रवम शर्त है (TralnIng Is the First Condition for Both )- कौटिल्य की भांति पटेटे यह मानकर चलते हैं कि आदर्श राजा प्रशिक्षण के विना सम्भव नहीं है। उसका विशिष्ट चरित्र जिसमें आत्मसंयम सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तत्त्व है, प्रशिक्षण के विना निर्मित नहीं किया जा सकता।
  2. दोनों ही दार्शनिक तथा दर्शनशास्त्र के प्रकाण्ड विद्वान हैं (Both are Philosophers and adept In Philosophy)-प्लेटो का राजा दार्शनिक है। उसके लिए दार्शनिक तथा राजा एक दूसरे के पर्यायवाची हैं। कौटिल्य ने भी राजा के लिए आन्वीक्षिकी अर्थात् दर्शनशास्त्र का अध्ययन के महत्त्व पर बल दिया है।
  3. दोनों ही लोक-कल्याण के लिए समर्पित हैं (Both are committed to the Welfare of the People)-प्लेटो का दार्शनिक राजा तथा कौटिल्य का सम्प्रभु दोनों ही का लक्ष्य नागरिकों की भलाई के लिए समर्पित रहना है
  4. प्लेटो तथा कौटिल्य दोनों के अनुसार शासक को नैतिकुता के उच्च मानदण्ड स्थापित करने चाहिए (According to Both Plato and Kautilya, the sovereign should lay down high More Standards)-प्लेटो तथा कौटिल्य दोनों का लक्ष्य एक ऐसे आदर्श शासक को प्रस्तुत करना था जो सभी प्रकार की बुराइयों से दूर हो।

प्लेटो तथा कौटिल्य के राजा के बीच अन्तर

कौटिल्य तथा प्लेटो द्वारा वर्णित शासक में उपरोक्त समानताओं के बावजूद कुछ उल्लेखनीय विपमताएं भी हैं जो निम्न प्रकार हैं-
  1. प्लेटो का दार्शनिक-राजा काल्पनिक है जबकि कौटिल्य द्वारा बर्णित शासक के कई उदाहरण प्राचीन भारतीय इतिहास में मिलते हैं-प्लेटो द्वारा अपनी पुस्तक 'दी रिपब्लिक' में वर्णित दार्शनिक राजा एक काल्पनिक हस्ती है। प्लेटो ने दार्शनिक-राजा का चित्रण करने के पश्चात् अपनी लक्ष्य प्राप्ति के लिए सिराक्यूज के शासक डोयनोसियस को दार्शनिक-राजा बनाने का प्रयत्न किया तो इसमें उसे केवल असफलता हाथ लगी वरन डोयनोसियसने प्लेटो को गुलाम बनाकर बेच दिया।
  2. कौटिल्य ने जिस शासक का माडल हमारे सामने रखा है कि है अत्यंत शक्तिशाली तथा विशाल साम्राज्य का स्वामी है जबकि प्लेटो का दार्शनिक-राजा तत्कालीन यूनानी नगर-राज्य के संदर्भ में है-कौटिल्य द्वारा यर्णित सम्प्रभू शासक के संबंध में यह स्मरण रखा जाना चाहिए कि कौटिल्य का लक्ष्य एक विशाल साम्राज्य की स्थापना था। इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए उन्होंने उपयुक्त पात्र के रूप में चन्द्रगुप्त मौर्य की खोज की तथा दीर्घकाल तक वे उसके प्रमुख सलाहकार भी रहे। उनका राजा अथवा शासक वास्तव में सम्प्रभु है जिसकी सत्ता को कोई चुनौती नहीं दे सकता। उन्होंने राजा को अपनी सीमाओं के विस्तार का सुझाव दिया है। दूसरी ओर प्लेटो ने दार्शनिक-राजा का चित्रण यूनानी नगर-राज्यों के संदर्भ में किया है।
  3. प्लेटो ने अपने दार्शनिक राजा के लिए पलियों तथा सम्पत्ति के साम्यवाद की व्यवस्था की है जबकि कौटिल्य ने अपने शासक के लिए ऐसी कोई व्यवस्या नहीं है-प्लेटो तथा कौटिल्य में एक महत्त्वपूर्ण अन्तर यह है कि पलेटी ने अपने दार्शनिक राजा को पारिवारिक बंधनों से दूर रखा है। प्लेटो का मानना था पारिवारिक बघनों तथा मोह के कारण ही शासक भ्रष्ट होता है, अतः उसे इनसे दूर रखा जाना चाहिए। दूसरी और कौटिल्य ने अपने राजा के लिए पारिवारिक जीवन पर कोई प्रतिबंध नहीं लगाया। कौटिल्य के अनुसार राजा की पतलनी होगी तथा उसका परिवार भी होगा। परन्त कीटिल्य का राजा धर्म, अर्थ तथा काम का संतुलित उपभोग ही करेगा।
  4. प्लेटो द्वारा वर्णित-राजा केवल स्वविवेक से नियंत्रित होता है जबकि कौटिल्य ने अपने शासक के लिए सामूहिक बुद्धिमत्ता के उपयोग पर जोर दिया है-प्लेटो तथा कौटिल्य के राजा के बीच एक उल्लेखनीय अन्तर यह है कि प्लेटो का दार्शनिक-राजा अपने सभी निर्णय स्वविवेक से लेता है। उसका विवेक ही उसका मार्गदर्शक है परन्तु कौटिल्य ने अपने राजा के लिए मंत्रिपरिपद् की व्यवस्था की है जिसमें राज्य के योग्य तथा बुद्धिमान व्यक्ति ही होंगे। राजा राज्य से संबंधित सभी विषयों पर मंत्रिपरिषद् के परामर्श से कार्य करेगा ।

कौटिल्य तथा मैकियावेली

कौटिल्य तथा मैकियावेली की राजनीतिक विचारक के रूप में तुलना करने से पूर्व दोनों विचारकों के व्यक्तित्त्व, त्कालीन परिस्थितियों तथा उनके चिन्तन को प्रभावित करने वाले तत्त्वों पर विचार करना अधिक उपयुक्त होगा। कौटिल्य मैकियावेली से लगभग 1900 वर्ष पूर्व पैदा हुए। इस समय यूरोप अन्धकार के युग में रहा होगा दूसरी ओर मैकियावेली का जन्म 15वीं शताब्दी में इटली में हुआ। इस समय इटली की राजनीतिक स्थिति बहुत ही नाजुक थी । चारों ओर राजनीतिक अव्यवस्था तथा संघर्ष की स्थिति थी। वेनिस, फ्लोरेन्स, नैपल्स, तथा मिलान राज्यों के महत्त्वाकांक्षी सामंती शासक आपस में युद्ध उलझे हुए थे। मैकियावेली इटली की इस आन्तरिक स्थिति से चिन्तित था । वे इटली को एक संगठित तथा शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में देखना चाहता था। वे एक महानू देशभक्त तथा राष्ट्रवादी विचारक थे। फ्लोरेन्स राज्य के प्रतिनिधि के रूप में वे विभिन्न युरोपीय देशों में नियुक्त रहे तथा इन देशों की राजनीतिक स्थिति का प्रत्यक्ष रूप से अध्ययन किया। वापिस लौटने के पश्चात् उन्होंने अपनी प्रमुख कृति 'दि प्रिन्स' (The Prince) की रचना की 'दि प्रिन्स' में उन्होंने राज्य को सशक्त एवं सुव्यवस्थित बनाने के लिए राजा अथवा शासक को सुझाव दिए हैं।

कौटिल्य तथा मैकियावेली में असमानता

  • ग्रन्य की रचना-अर्थशास्त्र सफल राजनीतिज्ञ होने के बाद लिखी गई जबकि प्रिंस मैकियावेली के निराशा के समय लिखी गई।
  • अर्वशास्त्र एवं प्रिंस-प्रिन्स राजनीति पर आधारित है पर अर्थशास्त्र कई विषयों को समेटे हुए हैं।
  • धर्म का आदर-राज्य का शासन धर्म के अनुसार कौटिल्य करने की कहता पर मैकियावेली धर्म विरोधी।
  • राजतन्त्र-मैकियावेली गणतन्त्र के भी समर्थक थे जबकि कौटिल्य राजतन्त्र के समर्थक थे। राजा मैकियावली का राजा बेईमान, स्वार्थी, धूर्त और अधार्मिक है। जबकि कौटिल्य का राजा सच्चरित्र, गुणवान, बुद्धिमान और कठोर निदचर्या का पालन करने वाला है।
  • न्याय, कानून, दण्ड-इस पर कौटिल्य ने अपने ग्रन्थ में विस्तार से वर्णन किया है पर मैकियाबेली ने इसकी उपेक्षा की है।
  • राजदूत-कौटिल्य ने राजदूत का उल्लेख किया है, पर मैकियावेली ने इसकी उपेक्षा की है। 

कौटिल्य तथा मैकियावेली में समानता

  • राजा सम्प्रभु
  • राज्य का विस्तार
  • ऐतिहासिक उदाहरण
  • पड़ोसी राष्ट्र शत्रु
  • राजतन्त्र का समर्थक
  • राज्य की एकता
  • युद्ध आवश्यक
  • व्यावहारिक राजनीति
  • शान्ति और सुरक्षा शक्ति द्वारा स्थापित
  • विदेशी राज्य पर आधिपत्य
  • गुप्तचर व्यवस्था
  • नैतिकता की उपेक्षा
  • मानव स्वभाव

विदेश नीति-मैकियाबेली राजा तक ही सीमित रह जाता है पर कौटिल्य ने मण्डल सिद्धान्त और पाडूगुण्य नीति के द्वारा एक कदम और आगे बढ़ा दिया।

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