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विनायक दामोदर सावरकर की जीवनी एवं विचार/Biography and Thoughts of Vinayak Damodar Savarkar

 
 विनायक दामोदर सावरकर/Vinayak Damodar Savarkar

विनायक दामोदर सावरकर

विनायक दामोदर सावरकर का जन्म महाराष्ट्र (आधुनिक मुम्बई) प्रान्त के नासिक के निकट भागुर गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम दामोदर पन्त सावरकर एवं माता का नाम राधाबाई था। विनायक दामोदर सावरकर की पारिवारिक स्थिति आर्थिक क्षेत्र में ठीक नहीं थी।
सावरकर ने पुणे से ही अपनी क्रान्तिकारी प्रवृत्ति की झलक दिखानी शुरू कर दी थी जिसमें 1908 ई. में स्थापित अभिनवभारत एक क्रान्तिकारी संगठन था।
लन्दन में भी ये कई शिखर नेताओं (जिनमें लाला हरदयाल) से मिले और ब्रिटिश विरोधी गतिविधियों का संचालन करते रहे। सावरकर की इन्हीं गतिविधियों से रुष्ट होकर ब्रिटिश सरकार द्वारा उन्हें दो बार 24 दिसम्बर, 1910 को और 31 जनवरी, 1911 को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई जो विश्व के इतिहास की पहली एवं अनोखी सजा थी।

विनायक दामोदर द्वारा लिखित पुस्तकें

(1) माई ट्रांसपोर्टेशन फॉर लाइफ
(ii) हिन्दू-पद पादशाही
(iii) हिन्दुत्व
(iv) द बार ऑफ इण्डियन इण्डिपेण्डेन्स ऑफ 1851

सावरकर के ऊपर कलेक्टर जैक्सन की हत्या का आरोप लगाया गया जिसे नासिक षड्यंत्र केस में नाम से जाना जाता है। इस आरोप में सावरकर को सेलुलर जेल में रखा गया फिर उन्हें पोर्ट ब्लेयर जेल में ले जाया गया। इस प्रकार इनके क्रान्तिकारी या राजनीति के क्षेत्र में काफी उतार-चढ़ाव आए। अतः इन्हें राजनीति पटल से पूरी तरह निष्कासित होना पड़ा तब इन्होंने अपना रुझान सामाजिक क्षेत्र में लगाया। सावरकर ने सामाजिक उत्थान के प्रयास के लिए 1924 से 1997 ई. में पद यात्राएँ कीं। सावरकर ने इस बात को अच्छी तरह समझ लिया था कि सामान्य जातियों में असमानता है और अगर समानता स्थापित कर दी जाए तो इस समस्या को समाप्त या कम किया जा सकता है। इसी को उन्होंने अन्जाम देने के लिए 1991 ई. में बम्बई में पतित पावन मन्दिर की स्थापना की, जिसे हिन्दू धर्म की प्रत्येक जाति के लोगों के लिए समान रूप से खुला रखा गया।
सावरकर हिन्दुत्व विचारधारा को अपनी उच्चता तक पहुँचना चाहते थे, यहाँ सावरकर ने हिन्दूवाद से आशय यह बताया कि केवल हिन्दू तक सीमित था जबकि हिन्दुत्व एक व्यापक विचारधारा है।

सावरकर के अनुसार सामाजिक कुरीतियाँ

वेदोक्तवन्दी- वेद के कर्मकाण्डों का एक वर्ग को निषेध 
शुद्धिबन्दी- किसी को वापस हिन्दूकरण पर निषेध
स्पर्शबन्दी- निम्न जातियों का स्पर्श तक निषेध, अस्पृश्यता
व्यवसायी- बन्दी कुछ निश्चित व्यवसाय निषेध
सिन्धुबन्दी-  सागरपार यात्रा, व्यवसाय निषेध 
रोटी बन्दी- निम्न जातियों के साथ खान-पान निषेध
बेटीबन्द- खास जातियों के संग विवाह सम्बन्ध निषेध

सावरकर के प्रमुख विचार

सावरकर ने अपनी पुस्तक 'हिन्दू पद पादशाही' में इतिहास की व्याख्या विशेषकर मराठा शक्ति के उदय की राष्ट्रवादी व्याख्या की
(i) सावरकर का यह भी कहना है कि मराठा राज्यतन्त्र में अनेक लोकतान्त्रिक तत्त्व भी देखने को मिलते हैं। 
(ii) सावरकर न्याय के लिए हिंसा अपनाने को भी उचित मानते थे।
(iii) सावरकर ने हिन्दू राष्ट्र की सांस्कृतिक तथा सावयदी एकता को स्वीकार किया। 
(iv) सावरकर ने अपनी पुस्तक 'हिन्दुत्व' में कहा कि 'हिन्दू वह है जो सिन्धु नदी से समुद्र तक सम्पूर्ण भारतवर्ष को अपनी पितृभूमि और पुण्यभूमि मानता है।

हिन्दुत्व का सिद्धान्त

    विनायक दामोदर सावरकर उग्र राष्ट्रवादी तथा वीर क्रान्तिकारी थे। वर्ष 1937 के लगभग वे बालगंगाधर तिलक के लोकतान्त्रिक स्वराज दल में सम्मिलित हो गए और बाद में हिन्दू महासभा की सदस्यता स्वीकार कर ली। सावर को हिन्दुओं की सांस्कृतिक एवं दार्शनिक उपलब्धियों पर बड़ा गर्व था अपनी पुस्तक हिन्दुत्व में उन्होंने दावा किया है कि हिन्दू चिन्तन ने अज्ञात की प्रकृति के सम्बन्ध में मानव चिन्तन की सम्भावनाओं को ही निःशेष कर दिया है।

सावरकर ने हिन्दू राष्ट्र की सांस्कृतिक तथा अवयवी एकता को स्वीकार किया। वे हिन्दु पुनरुत्थान के आदर्श के भारत थे और हिन्दुत्व की सांस्कृतिक श्रेष्ठता में विश्वास करते थे। उन्होंने हिन्दू समाज के नैतिक एवं सामाजिक पुनरुत्थान पर चल दिया। उन्होंने कहा कि यदि हिन्दुत्व मृत्योपरान्त मोक्ष की समस्याओं में तथा ईश्वर एवं विश्व सम्बन्धी धारणाओं में व्यस्त है तो उसे रहने दीजिए। जहाँ तक भौतिक एवं ऐहिक जीवन का सम्बन्ध है, हिन्दू सामान्य संस्कृति, सामान्य इतिहास, सामान्य भाषा, सामान्य देश तथा सामान्य धर्म के द्वारा परस्पर आबद्ध होने के कारण एक राष्ट्र है।

सावरकर का 'हिन्दुत्व' 1923 ई में प्रकाशित हुआ था। यह आधुनिक हिन्दू राजनीतिक विचारधारा की प्रसिद्ध पुस्तक है। हिन्दुत्व अथवा हिन्दू होने के तीन लक्षण हैं। राष्ट्र अथवा प्रादेशिक एकता पहला तत्त्व है। हिन्दू यह है जिसके मन में सिन्धु से ब्रह्मपुत्र तक और हिमालय से कन्याकुमारी तक के समस्त भौगोलिक प्रदेश के प्रति अनुराग है। जाति अथवा रक्त सम्बन्ध दूसरा तत्त्व है। इसमें केवल एक तथ्य पर बल दिया गया है कि शताब्दियों के ऐतिहासिक जीवन के परिणामस्वरूप हिन्दुओं में ऐसी जातिगत विशेषताएँ विकसित हो गई हैं जो जर्मनी, चीनियों अथवा इथियापियों से भिन्न हैं। हिन्दुत्व को निर्धारित करने वाला सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तत्त्व हिन्दू रक्त है।

सावरकर के अनुसार हिन्दुत्व के तीन लक्षण 

सावरकर के अनुसार राष्ट्र या प्रादेशिक एकता पहला तत्त्व है। सावरकर के शब्दों में, "हिन्दू वह है जिसके मन में सिन्धु से ब्रह्मपुत्र तक और हिमालय से कन्याकुमारी तक के समस्त भौगोलिक प्रदेश के प्रति अनुराग है।" 
(i) सावरकर ने जाति या रक्त सम्बन्ध को हिन्दुत्व का दूसरा तत्त्व बताया है। सावरकर के शब्दों में, "हिन्दू यह है जिसकी धमनियों में सप्त सैन्धव क्षेत्र की जाति का रक्त बहता है।
(ii) सावरकर ने हिन्दुत्व का तीसरा लक्षण 'संस्कृति' को माना है। सावरकर के शब्दों में, "जिस व्यक्ति को हिन्दू सभ्यता और संस्कृति पर गर्व है यह हिन्दू है!"
(iii) सावरकर हिन्दुत्व की धारणा को हिन्दुवाद से भी व्यापक मानते हैं, हिन्दूवाद हिन्दुओं के धार्मिक पक्ष की इंगित करता है, जबकि हिन्दुत्व हिन्दुओं के समस्त जीवन को स्पष्ट करता है। 

सावरकर और हिन्दू-मुस्लिम एकता 

सावरकर हिन्दुत्व के प्रति बहुत आस्थावान थे लेकिन उनका किसी अन्य धर्म को लेकर कोई वैर भाव नहीं था। उन्होंने सदैव हिन्दू-मुस्लिम एकता का समर्थन किया। एकता के नाम पर वे नेताओं द्वारा अपनाई जा रही तुष्टीकरण की नीति के विरोधी थे। उनका मानना था कि उन्हें मुसलमानों के सहयोग की आवश्यकता है लेकिन किसी भी बात को लेकर ये विरोधियों की परवाह नहीं करते थे। सावरकर और अखण्ड हिन्दुस्तान सावरकर ने सदैव अखण्ड हिन्दुस्तान की कामना की। पाकिस्तान के निर्माण का उन्होंने सदैव विरोध किया सावरकर मजबूत और शक्तिशाली राष्ट्र चाहते थे ताकि भारत को एक शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में जीवित रखा जा सके क्योंकि विभिन्न देशों के बीच चल रहे उग्र संघर्ष से वे चिन्तित थे।

सावरकर और अहिंसा

सावरकर का गांधीजी की अहिंसा में विश्वास नहीं था। वे क्रान्तिकारी थे तथा वे अपने हक को उड़कर या छीनकर लेने में विश्वास रखते थे। वे राजनीति का हिन्दूकरण तथा हिन्दुओं का सैनिकीकरण करने पर जोर देते थे।

सावरकर के सपनों का भारत

सावरकर ने अपने सपनों के भारत का आदर्श चित्र प्रस्तुत करते हुए निम्नलिखित बातों को स्पष्ट किया है 
(i) भारत में सभी जाति, धर्म, नस्ल अथवा किसी भी भेदभाव के बिना सभी नागरिकों के समान अधिकार तथा कर्तव्य होंगे और सभी भारतीय राष्ट्रभक्त होंगे।
(ii) सभी अल्पसंख्यकों को भाषा, धर्म, संस्कृति आदि की सुरक्षा का अधिकार दिया जाएगा, किन्तु किसी को भी एक राज्य के अन्तर्गत नवीन राज्य का निर्माण करने तथा बहुजनों के अधिकारों (वैधानिक) का हनन करने का अधिकार नहीं दिया जाएगा।
(III) व्यक्ति की स्वतन्त्रता से सम्बन्धित मौलिक अधिकार सभी नागरिकों को समान रूप से प्राप्त होंगे। 
(iv) बिना किसी जाति, विश्वास, धर्म के भेदभाव के बिना ही सभी व्यक्तियों के लिए नियम सामान्य होंगे।
(v) संयुक्त प्रतिनिधित्व की व्यवस्था की जाएगी। 
(vi) प्रारंभिक शिक्षा अनिवार्य तथा निःशुल्क होगी।
(vii) नियुक्तियों का आधार केवल व्यक्ति की योग्यता ही होगी। 
(viii) भाषायी अल्पसंख्यकों को अपनी भाषा के माध्यम से शिक्षा देने के लिए पृथक विद्यालयों की स्थापना करने का अधिकार होगा, उनकी धार्मिक तथा सांस्कृतिक संस्थाएँ इस कार्य के लिए सरकार द्वारा सहायता प्राप्त करेगी, किन्तु यह सहायता उनके द्वारा शासन को दिए कर के अनुपात में होंगी। 
(ix) अवशिष्ट शक्तियों केन्द्रीय सरकार के अन्तर्गत होंगी।
(x) राष्ट्रभाषा हिन्दी तथा संस्कृत देवभाषा होगी।