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हीगल की जीवनी एवं विचार (Biography and Thoughts of Hegel)/हीगल की रचनाएँ/विश्वात्मा पर विचार /विश्वात्मा पर विचार / जार्ज विल्हेम फ्रेड्रिक हेगेल

हीगल (Hegel)

जर्मन आदर्शवादियों में होगल का नाम शीर्षस्य है। इनका पूरा नाम जार्ज विल्हेम फ्रेडरिक हीगल था। 1770 ई. में दक्षिण जर्मनी में बर्टमवर्ग में उसका जन्म हुआ और उसकी युवावस्था फ्रांसीसी क्रान्ति के तुफानी दौरे से बीती हींगल ने विवेक और ज्ञान को बहुत महत्त्व प्रदान किया।

उसके दर्शन का महत्त्व दो ही बातों पर निर्भर करता है- (क) द्वन्द्वात्मक पद्धति, (ख) राज्य का आदर्शीकरण।

हीगल की रचनाएँ

लीगल की प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं
1. फिनोमिनोलॉजी ऑफ स्पिरिट (1807) 
2. साइन्स ऑफ लॉजिक (1816)
3. फिलॉसफी ऑफ लॉ या फिलॉसफी ऑफ राइट (1821)
4. कॉन्सटीट्शन ऑफ जर्मनी 
5. फिलॉसफी ऑफ हिस्ट्री (1886) मृत्यु के बाद प्रकाशित

विश्वात्मा पर विचार 

हीगल के अनुसार इतिहास विश्वात्मा की अभिव्यक्ति की कहानी है या इतिहास में घटित होने वाली सभी घटनाओं का सम्बन्ध विश्वात्मा के निरन्तर विकास के विभिन्न चरणों से है। विशुद्ध अद्वैतवादी विचारक हीगल सभी जड़ एवं चेतन वस्तुओं का उद्भव विश्वात्मा के रूप में देखता है वेदान्तियों के रूप में देखता है वेदान्तियों के 'तत्वमसि', 'अयमात्मा ब्रह्म' की भांति हीगल की दार्शनिक मान्यता है "जो कुछ वास्तविक है वह बुद्धिगम्य है और जो कुछ बुद्धिगम्य है वह वास्तविक है।"

हीगल के अनुसार, "विश्वात्मा के विकास का प्रत्येक सोपान अगले सोपान का बोध करता है। ये सोपान आन्तरिक तथा बाह्य जगत दोनों में पाए जाते हैं। हीगल के अनुसार विश्वात्मा के विकास का प्रारम्भिक रूप भौतिक अथवा जड़ जगत है उसके बाद यह वनस्पतियों और प्राणियों में अभिव्यक्त होती है और इसी प्रकार इसका उच्चतम रूप मनुष्य रूप में प्रकट होता है। मनुष्य की स्थिति सर्वोपरि होती है क्योंकि उसमें चेतन आत्मा रहती है।

विश्वात्मा का बाह्य विकास विभिन्न सामाजिक संस्थाओं के रूप में होता है। सभी सामाजिक संस्थाओं का नियामक तथा रक्षक होने के नाते राज्य का स्थान सर्वोच्च है। यही कारण है कि हीगल राज्य को विश्वात्मा का पार्थिव स्वरूप अथवा पृथ्वी पर विद्यमान ईश्वर कहता है विधि निर्माण, नैतिकता सभी कुछ राज्य के अंतर्गत है और चूंकि राज्य स्वयं एक नैतिक संस्था है तथा उसका स्थान सर्वोपरि है इसलिए उसे साधारण नैतिकता के नियमों से नहीं बाँधा जा सकता। हीगल द्वारा प्रतिपादित विश्वात्मा शाश्वत् है एवं इसका विकास द्वन्द्वात्मक प्रक्रिया से निरन्तर होता रहता है।

हीगल की द्वन्द्वात्मक पद्धति

हीगल के मतानुसार मानव सभ्यता का विकास एक सीधी रेखा में नहीं होता जिस प्रकार एक प्रचण्ड तुफान में थपेड़े खाता हुआ एक जहाज अपना मार्ग बनाता है उसी प्रकार सभ्यता भी अनेक टेढ़े-मेढ़े रास्तों से होते हुए आगे बढ़ती है। हीगल के अनुसार विश्व के समस्त पदार्थों का विकास अविकसित तथा एकतापूर्ण स्थिति की ओर होता है जिसके कारण विरोधी वस्तुओ की स्थापना होती है। इस प्रक्रिया में वस्तुओं की निम्नता नष्ट होकर उच्चता ग्रहण कर लेती है। विकसित होने के बाद कोई भी वस्तु वह नहीं रहती जो पहले थी, वह कुछ उन्नत हो जाती है।

वस्तुतः द्वन्दवाद शब्द की उत्पत्ति यूनानी भाषा के शब्द Dialego से हुई जिसका अर्थ वाद-विवाद करना होता है। इसमें सत्य तक पहुंचने के लिए तर्क-वितर्क की प्रक्रिया अपनानी पड़ती है। विकासवाद के अनुसार यह बढ़ती है और इसका विकसित रूप कालान्तर में इसमें मौलिक रूप में बिल्कुल विपरीत हो जाता है जिसे विपरीत रूप (प्रतिबाद) कहते हैं। कालान्तर में विकासवादी सिद्धान्त के अनुसार ये मौलिक रूप तथा विपरीत रूप आपस में मिलते हैं और इन दोनों के मेल से वस्तु का नया सामंजस्य (संवाद) स्थापित होता है।

वाद -प्रतिवाद =संवाद

द्वन्द्वात्मक प्रणाली द्वारा समाज तथा राज्य के विकास का अध्ययन

इस द्वन्द्वात्मक प्रणाली द्वारा ही हीगल समाज और राज्य के विकास का अध्ययन करता है। हीगल की मान्यता है कि 1. चेतन मस्तिष्क की सारी गतिविधियां द्वन्द्वात्मक होती है, 2. यथार्थता स्वयं चेतन मस्तिष्क की एक प्रणाली है, यथार्थत केवल एक विचार है।

हीगल द्वन्द्वात्मक प्रणाली द्वारा राज्य के विकास का अध्यययन करते समय यह मानता है कि यूनानी राज्य मौलिक रूप थे, धर्म राज्य उसके विपरीत रूप, इसलिए राष्ट्रीय राज्य उनका एक सामंजस्यपूर्ण रूप होगा। कला, धर्म तथा दर्शन को भी वह इसी प्रकार मूल रूप, विपरीत रूप तथा सामंजस्यपूर्ण रूप मानता है।" हींगल के राज्य-दर्शन में दो ही तत्त्व सबसे महत्त्वपूर्ण थे एक तत्त्व द्वन्द्वात्मक पद्धति का था और दूसरा तत्त्व राष्ट्रीय  राज्य का गल के चिन्तन में महत्व का प्रतिपादन करता था कोई भी मनुष्य अपने दृष्टिकोण में एक ही स्थान पर रह करया कुटुम्ब पर आश्रित होकर प्रकट नहीं कर सकता। केवल अपने ही कुटुम्ब के पोषण की भावना, जो पहले स्नेह थी, बाद में मोह बन जाती है और तेरे-मेरे का भाव उत्पन्न कर देती है।

इस तरह कालान्तर में ऐसे समाज का निर्माण होता है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन के लिए संघर्य करता है। समाज में शान्तिमय वातावरण उत्पन्न करने पर राज्य की उत्पत्ति होती है अर्थात् राज्य विवेक का परिणाम है यह राज्य कटुम्ब और समाज का अर्थात याद और प्रतिवाद का सामंजस्यपूर्ण रूप या संश्लेषण हुआ। राज्य के अन्दर भी मनुष्य जीवन के लिए संघर्ष करता है, लेकिन यह संघर्ष सृजनात्मक होता है इससे उसकी शक्तियों का विकास होता है। निरंकुशतन्त्र का बाद अपने प्रतिवाद प्रजातन्त्र को जन्म देता है। निरंकुशतन्त्र और प्रजातन्त्र के समन्वय से एक सांविधानिक राजतन्त्र की उत्पत्ति होती जो संवाद या संश्लेषण है।

व्यक्तिवाद तथा राज्य का सिद्धान्त

हीगल ने राज्य पूर्व एक प्रक्रिया को स्वीकार किया है या इसने राज्य के उदय को द्वन्द्वात्मक पद्धति के रूप में देखा होगल पहली संस्था के रूप में कुटुम्ब को मानता है जिसमें पारस्परिक प्रेम, सहानुभूति आदि गुण काम करते हैं। इस परिवार या कुटुम्ब नामक बाद के प्रतिवाद स्वरूप समाज का उदय होता है जिसमें प्रतियोगिता और संघर्ष दिखाई देते हैं प्रत्येक व्यक्ति अपने हित के बात सोचता है और इस तरह संघर्ष जन्म लेते हैं इससे निकलने के लिए पद पारस्परिक प्रेम एवं सहानुभूति का जीवन संग्राम में स्थान हो इस आवश्यकता की अनुभूति के साथ राज्य का प्रादुर्भाव होता है, जो कुटुम्ब और समाज का संश्लेषण है।

राज्य दैवीय है

राज्य आत्मा के उच्चतम विकास का प्रतीक है और ईश्वर से महायात्रा का अन्तिम पड़ाव है। अब इससे आगे कोई विकास नहीं है। जैसा कि गार्नर ने लिखा है "हीगल की दृष्टि में राज्य ईश्वरीय है जो गुलती नहीं कर सकता जो सर्वथा शक्तिशाली और अज्ञान्त है तथा नागरिकों के अपने हित में प्रत्येक बलिदान का अधिकारी है।

अपनी श्रेष्ठता के कारण और जिस त्याग एवं बलिदान के लिए राज्य अपने नागरिकों को आदेश देता है उसके फलस्वरूप वह न केवल व्यक्ति का उत्दान करता है, बल्कि उसे श्रेष्ठत्व भी प्रदान करता है।"

राज्य और व्यक्ति में कोई विरोध नहीं


राज्य को सर्वोच्च शक्तियों से विभूषित कर देने के बाद विभिन्न विद्वानों का मत है कि इन दोनों का विरोध होगा पर होगल अपने विचारों के द्वारा बताता है कि व्यक्ति राज्य का एक अंश मात्र है जिस पूर्णता को व्यक्ति अपने अन्तिम पड़ाव तक नहीं जाना जाता उसे राज्य ने पा लिया है राज्य व्यक्ति का पूर्ण सार्वभौम या साकार रूप है। जिस उच्चता को व्यक्ति पाने का प्रयास करता है राज्य उसे प्रदान करता है।
हीगल के राज्य की विशेषताएँ

हीगल के राज्य की विशेषताएँ निम्नलिखित है-

  1. राज्य का स्वरूप सावयव है 
  2. राज्य सर्वशक्तिमान है
  3. राज्य देवी सत्ता है
  4. राज्य का स्वतन्त्र अस्तित्व होता है
  5. राज्य साध्य है, साधन नहीं
  6. राज्य का स्वतन्त्र अस्तित्व होता है 
  7. व्यक्ति और राज्य में विरोध नहीं
इन दोनों में किसी प्रकार के भेद को नहीं स्वीकारा जा सकता है। हीगल कहता है कि राज्य के अभाव में व्यक्ति दास के तुल्य है जैसा कि वेबर लिखते हैं, "यह राज्य जो देवी है, जो स्वयं साध्य है जो अपने अंशों की अपेक्षा पूर्ण रूप में महान है तथा जो नैतिकता का नियन्ता है।

स्वतन्त्रता सम्बन्धी विचार 

स्वतन्त्रता सम्बन्धी धारणा को हीगल ने रूसो और काण्ट से ग्रहण किया था, किन्तु उसका रूप बहुत कुछ मौलिक है। उसने काण्ट की स्वतंत्रता को नकारात्मक, सीमित और आत्मपरक मानते हुए यह भी स्वीकार किया कि राजनीतिक क्षेत्र में व्यक्तिवादी सिद्धान्त श्रेष्ठ है। इसलिए स्वाधीन होने का अर्थ है अपने अधिकारों और कर्त्तव्यों को तिलांजलि दे देना क्योंकि राज्य के अतिरिक्त अन्य कोई वस्तु स्वाधीनता का प्रतीक नहीं जा सकती हीगल के अनुसार स्वतंत्रता सामाजिक है जिसकी प्राप्ति सामाजिक कार्यों में भाग लेने से होती है समाज और व्यक्ति के सहयोग के बिना कोई स्वतंत्रता संभव नहीं है सेवाइन के शब्दों में, "हीगल का विश्वास था कि स्वतंत्रता को एक सामाजिक व्यवहार समझना चाहिए।"

हीगल का स्वतंत्र नागरिक विषयक सिद्धान्त प्लेटो और अरस्तु की भांति व्यक्तिगत अधिकारों पर नहीं, बल्कि सामाजिक कार्यों पर आधारित था। हीगल का मत है, "आधुनिक राज्य में ईसाई आचार से नागरिकता के विकास के व्यक्तिगत अधिकार और सार्वजनिक कर्तव्य के बीच ऐसा पूर्ण संश्लेषण स्थापित हो जाता है। आधुनिक राज्य में सभी मनुष्य स्वतंत्र है। राज्य की सेवा करके वे उच्चतम आत्मसिद्धि को प्राप्त कर सकते हैं व्यक्तिगत नकारात्मक स्वतंत्रता के स्थान पर राज्य में नागरिकता की वास्तविक स्वतंत्रता स्थापित होती है।



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  भारतीय निर्वाचन आयोग और परिसीमन आयोग परिसीमन आयोग भारत के उच्चतम न्यायालय के अवकाश प्राप्त न्यायाधीश न्यायमूर्ति कुलदीप सिंह की अध्यक्षता में 12 जुलाई 2002 को परिसीमन आयोग का गठन किया गया। यह आयोग वर्ष 2001 की जनगणना के आधार पर निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन करेगा। दिसंबर 2007 में इस आयोग ने नये परिसीमन की संसुतिति भारत सरकार को सौंप दी। लेकिन सरकार ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया। इस पर उच्चतम न्यायलय ने, एक दाखिल की गई रिट याचिका पर केंद्र सरकार को नोटिस जारी की। फलस्वरूप कैविनेट की राजनीतिक समिति ने 4 जनवरी 2008 को इस आयोग की संस्तुतियों को लागु करने का निश्चय किया। 19 फरवरी 2008 को राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल ने इस परिसीमन आयोग को लागू करने की स्वीकृति प्रदान की। परिसीमन •    संविधान के अनुच्छेद 82 के अधीन, प्रत्येक जनगणना के पश्चात् कानून द्वारा संसद एक परिसीमन अधिनियम को अधिनियमित करती है. •    परिसीमन आयोग परिसीमन अधिनियम के उपबंधों के अनुसार संसदीय निर्वाचन क्षेत्रों के सीमाओं को सीमांकित करता है. •    निर्वाचन क्षेत्रों का वर्तमान परिसीमन 1971 के जनगणना आँकड़ों पर आधारित

भारतीय संविधान सभा तथा संविधान निर्माण |Indian Constituent Assembly and Constitution making

  भारतीय संविधान सभा तथा संविधान निर्माण |Indian Constituent Assembly and Constitution making संविधान निर्माण की सर्वप्रथम मांग बाल गंगाधर तिलक द्वारा 1895 में "स्वराज विधेयक" द्वारा की गई। 1916 में होमरूल लीग आन्दोलन चलाया गया।जिसमें घरेलू शासन सचांलन की मांग अग्रेजो से की गई। 1922 में गांधी जी ने संविधान सभा और संविधान निर्माण की मांग प्रबलतम तरीके से की और कहा- कि जब भी भारत को स्वाधीनता मिलेगी भारतीय संविधान का निर्माण -भारतीय लोगों की इच्छाओं के अनुकुल किया जाएगा। अगस्त 1928 में नेहरू रिपोर्ट बनाई गई। जिसकी अध्यक्षता पं. मोतीलाल नेहरू ने की। इसका निर्माण बम्बई में किया गया। इसके अन्तर्गत ब्रिटीश भारत का पहला लिखित संविधान बनाया गया। जिसमें मौलिक अधिकारों अल्पसंख्यकों के अधिकारों तथा अखिल भारतीय संघ एवम् डोमिनियम स्टेट के प्रावधान रखे गए। इसका सबसे प्रबलतम विरोध मुस्लिम लीग और रियासतों के राजाओं द्वारा किया गया। 1929 में जवाहर लाला नेहरू की अध्यक्षता में कांग्रेस का लाहौर सम्मेलन हुआ। जिसमें पूर्ण स्वराज्य की मांग की गई। 1936 में कांग्रेस का फैजलपुर सम्मेलन आयोजित किया गय

राज्य की नीति के निदेशक तत्त्व |Directive Principles of State Policy

  36. परिभाषा- इस भाग में, जब तक कि संदर्भ से अन्यथा अपेक्षित न हो, 'राज्य' का वही अर्थ है जो भाग 3 में है। 37. इस भाग में अंतर्विष्ट तत्त्वों का लागू होना- इस भाग में अंतर्विष्ट उपबंध किसी न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय नहीं होंगे किंतु फिर भी इनमें अधिकथित तत्त्व देश के शासन में मूलभूत हैं और विधि बनाने में इन तत्त्वों को लागू करना राज्य का कर्तव्य होगा। 38. राज्य लोक कल्याण की अभिवृद्धि के लिए सामाजिक व्यवस्था बनाएगा- राज्य ऐसी सामाजिक व्यवस्था की, जिसमें सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय राष्ट्रीय जीवन की सभी संस्थाओं को अनुप्राणित करे, भरसक प्रभावी रूंप में स्थापना और संरक्षण करके लोक कल्याण की अभिवृद्धि का प्रयास करेगा। राज्य, विशिष्टतया, आय की असमानताओं को कम करने का प्रयास करेगा और न केवल व्यष्टियों के बीच बल्कि विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले और विभिन्न व्यवसायों में लगे हुए लोगों के समूहों के बीच भी प्रतिष्ठा, सुविधाओं और अवसरों की असमानता समाप्त करने का प्रयास करेगा। 39. राज्य द्वारा अनुसरणीय कुछ नीति तत्त्व- राज्य अपनी नीति का, विशिष्टतया, इस प्रकार संचालन करेगा कि सुनि

राजव्यवस्था के अति महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर/very important question and answer of polity

 राजव्यवस्था के अति महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर प्रश्‍न – किस संविधान संशोधन अधिनियम ने राज्‍य के नीति निर्देशक तत्‍वों को मौलिक अधिकारों की अपेक्षा अधिक प्रभावशाली बनाया?  उत्‍तर – 42वें संविधान संशोधन अधिनियम (1976) ने प्रश्‍न – भारत के कौन से राष्‍ट्रपति ‘द्वितीय पसंद'(Second Preference) के मतों की गणना के फलस्‍वरूप अपना निश्चित कोटा प्राप्‍त कर निर्वाचित हुए?  उत्‍तर – वी. वी. गिरि प्रश्‍न – संविधान के किस अनुच्‍छेद के अंतर्गत वित्‍तीय आपातकाल की व्‍यवस्‍था है?  उत्‍तर – अनुच्‍छेद 360 प्रश्‍न – भारतीय संविधान कौन सी नागरिकता प्रदान करता है?  उत्‍तर – एकल नागरिकता प्रश्‍न – प्रथम पंचायती राज व्‍यवस्‍था का उद्घाटन पं. जवाहरलाल नेहरू ने 2 अक्‍टूबर, 1959 को किस स्‍थान पर किया था ? उत्‍तर – नागौर (राजस्‍थान) प्रश्‍न – लोकसभा का कोरम कुल सदस्‍य संख्‍या का कितना होता है?  उत्‍तर – 1/10 प्रश्‍न – पंचवर्षीय योजना का अनुमोदन तथा पुनर्निरीक्षण किसके द्वारा किया जाताहै? उत्‍तर – राष्‍ट्रीय विकास परिषद प्रश्‍न – राज्‍य स्‍तर पर मंत्रियों की नियुक्ति कौन करता है?  उत्‍तर – राज्‍यपाल प्रश्‍न – नए

भारतीय संविधान के भाग |Part of Indian Constitution

  भाग 1  संघ और उसके क्षेत्र- अनुच्छेद 1-4 भाग 2  नागरिकता- अनुच्छेद 5-11 भाग 3  मूलभूत अधिकार- अनुच्छेद 12 - 35 भाग 4  राज्य के नीति निदेशक तत्व- अनुच्छेद 36 - 51 भाग 4 A  मूल कर्तव्य- अनुच्छेद 51A भाग 5  संघ- अनुच्छेद 52-151 भाग 6  राज्य- अनुच्छेद 152 -237 भाग 7  संविधान (सातवाँ संशोधन) अधिनियम,- 1956 द्वारा निरसित भाग 8  संघ राज्य क्षेत्र- अनुच्छेद 239-242 भाग 9  पंचायत - अनुच्छेद 243- 243O भाग 9A  नगर्पालिकाएं- अनुच्छेद 243P - 243ZG भाग 10  अनुसूचित और जनजाति क्षेत्र- अनुच्छेद 244 - 244A भाग 11  संघ और राज्यों के बीच संबंध- अनुच्छेद 245 - 263 भाग 12  वित्त, संपत्ति, संविदाएं और वाद -अनुच्छेद 264 -300A भाग 13  भारत के राज्य क्षेत्र के भीतर व्यापार, वाणिज्य और समागम- अनुच्छेद 301 - 307 भाग 14  संघ और राज्यों के अधीन सेवाएं- अनुच्छेद 308 -323 भाग 14A  अधिकरण- अनुच्छेद 323A - 323B भाग 15 निर्वाचन- अनुच्छेद 324 -329A भाग 16  कुछ वर्गों के लिए विशेष उपबंध संबंध- अनुच्छेद 330- 342 भाग 17  राजभाषा- अनुच्छेद 343- 351 भाग 18  आपात उपबंध अनुच्छेद- 352 - 360 भाग 19  प्रकीर्ण- अनुच्छेद 361 -367

संघीय कार्यपालिका एवं भारत का राष्ट्रपति | Federal Executive and President of India

  भारतीय संघ की कार्यपालिका शक्ति राष्ट्रपति में निहित है. 1.  भारत में संसदीय व्यवस्था को अपनाया गया है. इसलिए राष्ट्रपति नामपत्र की कार्यपालिका है तथा प्रधानमंत्री तथा उसका मंत्रिमंडल वास्तविक कार्यपालिका है. राष्ट्रपति a.  राष्ट्रपति भारत का संवैधानिक प्रधान होता है. b.  भारत का राष्ट्रपति भारत का प्रथम व्यक्ति कहलाता है. 2.   राष्ट्रपति पद की योग्यता:  संविधान के अनुच्छेद 58 के अनुसार कोई व्यक्ति राष्‍ट्रपति होने योग्य तब होगा, जब वह: (a)  भारत का नागरिक हो. (b)  35 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो. (c)  लोकसभा का सदस्य निर्वाचित किए जाने योग्य हो. (d)  चुनाव के समय लाभ का पद धारण नहीं करता हो. नोट:  यदि व्यक्ति राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति के पद पर हो या संघ अथवा किसी राज्य की मंत्रिपरिषद का सदस्य हो, तो वह लाभ का पद नहीं माना जाएगा. 3.   राष्‍ट्रपति के निर्वाचन के लिए निर्वाचक मंडल:  इसमें राज्य सभा, लोकसभा और राज्यों की विधान सभाओं के निर्वाचित सदस्य रहते हैं. नवीनतम व्यवस्था के अनुसार पांडिचेरी विधानसभा तथा दिल्ली की विधानसभा के निर्वाचित सदस्य को भी सम्मिलित किया गया है. 4.  राष्ट्रप

विनायक दामोदर सावरकर की जीवनी एवं विचार/Biography and Thoughts of Vinayak Damodar Savarkar

   विनायक दामोदर सावरकर/Vinayak Damodar Savarkar विनायक दामोदर सावरकर विनायक दामोदर सावरकर का जन्म महाराष्ट्र (आधुनिक मुम्बई) प्रान्त के नासिक के निकट भागुर गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम दामोदर पन्त सावरकर एवं माता का नाम राधाबाई था। विनायक दामोदर सावरकर की पारिवारिक स्थिति आर्थिक क्षेत्र में ठीक नहीं थी। सावरकर ने पुणे से ही अपनी क्रान्तिकारी प्रवृत्ति की झलक दिखानी शुरू कर दी थी जिसमें 1908 ई. में स्थापित अभिनवभारत एक क्रान्तिकारी संगठन था। लन्दन में भी ये कई शिखर नेताओं (जिनमें लाला हरदयाल) से मिले और ब्रिटिश विरोधी गतिविधियों का संचालन करते रहे। सावरकर की इन्हीं गतिविधियों से रुष्ट होकर ब्रिटिश सरकार द्वारा उन्हें दो बार 24 दिसम्बर, 1910 को और 31 जनवरी, 1911 को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई जो विश्व के इतिहास की पहली एवं अनोखी सजा थी। विनायक दामोदर द्वारा लिखित पुस्तकें (1) माई ट्रांसपोर्टेशन फॉर लाइफ (ii) हिन्दू-पद पादशाही (iii) हिन्दुत्व (iv) द बार ऑफ इण्डियन इण्डिपेण्डेन्स ऑफ 1851 सावरकर के ऊपर कलेक्टर जैक्सन की हत्या का आरोप लगाया गया जिसे नासिक षड्यंत्र केस में नाम से जाना

PREAMBLE of India

 PREAMBLE WE, THE PEOPLE OF INDIA, having solemnly resolved to constitute India into a SOVEREIGN SOCIALIST SECULAR DEMOCRATIC REPUBLIC and to secure to all its citizens: JUSTICE, social, economic and political, LIBERTY of thought, expression, belief, faith and worship, EQUALITY of status and of opportunity: and to promote among them all  FRATERNITY assuring the dignity of the individual and the unity and integrity of the Nation,  IN OUR CONSTITUENT ASSEMBLY this twenty-sixth day of November, 1949, do HEREBY ADOPT, ENACT AND GIVE TO OURSELVES THIS CONSTITUTION.