टी.एच. ग्रीन (T. H. Green) |
टी.एच. ग्रीन (T. H. Green)
उदारवाद की मुख्य समस्या व्यक्ति के व्यक्तित्व तथा सामाजिक समुदाय में सामंजस्य लाने की रही है। जहाँ पहले उदारवादियों ने समाज की अपेक्षा व्यक्ति को अधिक महत्त्व दिया, वहाँ ग्रीन (1898) ने यह विचार प्रकट किया कि सामाजिक जीवन में महत्त्वपूर्ण भाग अदा करने से ही व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास हो सकता है। उदारवाद ने पुराने सिद्धांत ने राज्य को कम-से-कम कानून बनाने की सलाह दी परंतु ग्रीन का यह मत था कि उदारवाद को इस संकुचित चार पर हमेशा के लिए खड़ा नहीं किया जा सकता। उदारवादी नीतियों को लचीला होना पड़ा ताकि वे समय की तयों का सामना कर सकें। यदि उदारवाद को सच्चा होना है तो उसका आधार नैतिक होना चाहिए। उनके अनुसार यादी दर्शन का केंद्र-बिंदु सामाजिक हित का विचार अर्थात् सार्वजनिक कल्याण है। राज्य द्वारा बनाए जाने वाले अनूनों का भी उसने यही मापदंड निर्धारित किया। सवतंत्रता की धारणा भी, ग्रीन के अनुसार, व्यक्तिगत धारणा के साथ-साथ एक सामाजिक धारणा है और यह उस समाज की गुणवत्ता (quality) और समाज में रहने वाले व्यक्तियों को गुणवत्ता दोनों की तरफ संकेत करती है। उसके विचार का मुख्य आधार व्यक्ति और सामाजिक समुदाय की पारस्परिक निर्भरता है। आत्म-तत्व एक सामाजिक आत्म-तत्त्व (self is a social self) होता है। एक अच्छी सरकार का आधार इच्छा है, शक्ति नहीं क्योंकि व्यक्ति को समाज से बांधने वाली उसकी अपनी प्रकृति है, राज्य द्वारा दी जाने वाली सजा का डर नहीं। अतः ग्रीन के अनुसार उदारवादी राज्य से यह अभिप्राय बिल्कुल नहीं है कि कम-से-कम कानून बनाए या तटस्थ रहे। उदारवादी राज्य की स्थापना एक राजनीतिक भूल भी नहीं है। उदारवादी राज्य का कार्य एक स्वतंत्र समाज की स्थापना करना और उन सभी बाधाओं को दूर करना है जो व्यक्ति के नैतिक विकास में बाधक है। ग्रीन अपनी विचारधारा इस धारणा से आरंभ करता है कि व्यक्ति का उद्देश्य आत्म-विकास है। यह आत्म-विकास व्यक्ति को स्वयं करना है क्योंकि नैतिक आत्म-विकास से अभिप्राय स्वयं लागू किए गए कर्त्तव्यों को निभाने से है, राज्य व्यक्ति की नैतिकता को बढ़ाने में कोई खास योग नहीं दे सकता। राज्य का कार्य उन बाह्य परिस्थितियों को बनाए रखना है जो व्यक्ति के नैतिक विकास के लिए आवश्यक हैं। राज्य के कानूनों और संस्थाओं का उद्देश्य व्यक्ति को अकेला छोड़ना नहीं है। इसके विपरीत यदि निरक्षरता और अज्ञान व्यक्ति के नैतिक और बौद्धिक विकास में बाधक हैं तो यह राज्य का कर्तव्य है कि वह स्कूल और कॉलेज का प्रबंध करे ताकि व्यक्ति शिक्षा प्राप्त कर सके। यदि राज्य को मालूम है कि कुछ स्वार्थी माँ-बाप अपने बच्चों को स्कूल भेजने के स्थान पर फैक्टरी में काम करने के लिए भेज देते हैं तो राज्य का यह कर्त्तव्य है। कि वह अनिवार्य शिक्षा के लिए कानून बनाए। इसी तरह यदि गरीबी व्यक्ति के नैतिक और बौद्धिक विकास में बाधक है, तो राज्य को जीबी के कारण समाप्त करने चाहिए। निरक्षरता, शराबखोरी, गरीबी आदि सामाजिक समस्याओं को सुलझाने के लिए ग्रीन नौ राज्यों के हस्तक्षेप को उचित ठहराया। इसी तरह व्यक्ति के आत्म-विकास की बाह्य परिस्थितियों को बनाए रखने के लिए स्वास्थ्य, अच्छे मकान, काम करने के घण्टे निश्चित करना, काम के लिए उचित वातावरण-संबंधी प्रबंध के लिए ग्रीन ने राज्य के हस्तक्षेप का समर्थन किया। उसने उद्योगों में बच्चों और औरतों से काम करने पर प्रतिबंध लगाने की मांग भी की।
ग्रीन ने राज्य के हस्तक्षेप के लिए पर्याप्त कार्यक्षेत्र का संकेत दिया। उसने सामाजिक सुधार के कार्यों का केवल व्यावहारिक स्तर पर ही समर्थन नहीं किया बल्कि उनको राज्य के अनिवार्य कार्यों में माना व्यक्ति के अच्छे जीवन के लिए सामाजिक बाधाओं को दूर करने का विचार प्रस्तुत कर ग्रीन ने प्रारंभिक उदारवादियों से बिल्कुल भिन्न प्रकार सामने रखे उसके अनुसार व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिए सामाजिक मलाई आवश्यक है और यही विचार 20वीं शताब्दी में कल्याणकारी राज्य का आधार बना जिसका स्पष्टीकरण लॉस्की और मैकाइवर की रचनाओं में मिलता है। आदर्शवादी विचारधारा से संबंध रखने के बावजूद भी ग्रौन राज्य और व्यक्ति में व्यक्ति को प्राथमिकता देता है परंतु उसने व्यक्ति को एक सामाजिक व्यक्ति माना और राज्य का कार्य व्यक्ति की स्वतंत्रता का क्षेत्र विकसित करना माना। जैसा कि हॉबहाउस ने भी लिखाः 'स्वतंत्रता का कार्यक्षेत्र विकास का कार्यक्षेत्र है। ऐसी स्वतंत्रता केवल राज्य के हस्तक्षेप से ही प्राप्त की जा सकती है क्योंकि सामूहिक स्वतंत्रता से संबंधित हर पहलू सामाजिक स्तर पर किसी व्यक्ति य समूह पर रोक लगाने से जुड़ा हुआ है।
Follow Us